Eliot Aur Hindi Sahitya Chintan
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Author | Mohankrishna Bohra |
Language | Hindi |
Publisher | Prabhakar Prakashan |
Pages | 264 |
ISBN | 978-9356821897 |
Book Type | Paperback |
Item Weight | 0.4 kg |
Dimensions | 21.59 x 13.97 x 1.52 cm |
Edition | 1st |
Eliot Aur Hindi Sahitya Chintan
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परिवेश पर बल देने वाले अज्ञेय को परंपरा पर बल देने वाले एलियट का अनुकर्ता नहीं कहा जा सकता। साहित्य के लिए जितनी परंपरा अनिवार्य है, उतना ही परिवेश अपरिहार्य, इसलिए अज्ञेय को एलियट का विरोधी भी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि साहित्य को साहित्य के रूप में देखने के प्रश्न पर दोनों विचारक एक ही धरातल पर खड़े हैं, इसलिए कुछ कहना ही हो तो अज्ञेय को एलियट का पूरक कहा जा सकता हैं यद्यपि इसका अर्थ यह बिलकुल नहीं होगा कि पूरक कहे जाने भर से वे एलियट की कक्षा के साहित्य-चिंतक मान लिए जाएँ।
यह हिंदी आलोचना का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि डॉ. देवराज जैसा चिंतनशील और सशक्त अभिव्यक्ति का धनी आलोचक दर्शन के क्षेत्र से साहित्यालोचना के क्षेत्र में आकर भी आलोचना को उपकर्म बनाकर ही रह गया; और वहाँ भी वह उसे दर्शन के अंकुश से मुक्त नहीं कर सका, अपनी सारी बौद्धिक वस्तुनिष्ठता के बावजूद, और एलियट के अनुशीलन के बावजूद भी।
मुक्तिबोध हिंदी साहित्य जगत में मार्क्सवाद के तत्प्रचलित साहित्यिक संस्करण से संतुष्ट नहीं थे। वे उसका भिन्न रूप अनुष्ठित करना चाहते थे। इस भिन्न के अनुष्ठान का एक पक्ष वह है, जिसमें वे मार्क्सवाद को साहित्य की प्रकृति के निकट लाने में प्रवृत्त देखे जा सकते हैं; तो दूसरा वह है जिसमें वे साहित्य की प्रकृति को पाने के प्रयत्न में मार्क्सवाद से दूर निकल गए हैं। अपने इसी रूप में वे एलियट के निकट आए देखे जा सकते हैं।
एलियट के परंपरा-सिद्धांत का मर्म यह है कि अतीत भी वर्तमान से उतना ही परिवर्तित होता है जितना कि वर्तमान अतीत से निर्दिष्ट होता है। दिनकर ने इस मर्म को बखूबी आयत्त कर लिया था। उनकी व्यावहारिक आलोचनाओं में हमें इसके कई एक उदाहरण मिल जाते हैं।
यह हिंदी आलोचना का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि डॉ. देवराज जैसा चिंतनशील और सशक्त अभिव्यक्ति का धनी आलोचक दर्शन के क्षेत्र से साहित्यालोचना के क्षेत्र में आकर भी आलोचना को उपकर्म बनाकर ही रह गया; और वहाँ भी वह उसे दर्शन के अंकुश से मुक्त नहीं कर सका, अपनी सारी बौद्धिक वस्तुनिष्ठता के बावजूद, और एलियट के अनुशीलन के बावजूद भी।
मुक्तिबोध हिंदी साहित्य जगत में मार्क्सवाद के तत्प्रचलित साहित्यिक संस्करण से संतुष्ट नहीं थे। वे उसका भिन्न रूप अनुष्ठित करना चाहते थे। इस भिन्न के अनुष्ठान का एक पक्ष वह है, जिसमें वे मार्क्सवाद को साहित्य की प्रकृति के निकट लाने में प्रवृत्त देखे जा सकते हैं; तो दूसरा वह है जिसमें वे साहित्य की प्रकृति को पाने के प्रयत्न में मार्क्सवाद से दूर निकल गए हैं। अपने इसी रूप में वे एलियट के निकट आए देखे जा सकते हैं।
एलियट के परंपरा-सिद्धांत का मर्म यह है कि अतीत भी वर्तमान से उतना ही परिवर्तित होता है जितना कि वर्तमान अतीत से निर्दिष्ट होता है। दिनकर ने इस मर्म को बखूबी आयत्त कर लिया था। उनकी व्यावहारिक आलोचनाओं में हमें इसके कई एक उदाहरण मिल जाते हैं।
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