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Ek Sex Mareej Ka Rognamcha

Vinod Bhardwaj

Rs. 295 Rs. 274

‘सेप्पुकु’ से विनोद भारद्वाज और ‘सच्चा झूठ’ (पत्रकारिता के पतन) से शुरू हुई कवि, उपन्यासकार और कला समीक्षक विनोद भारद्वाज की उपन्यास-त्रयी की तीसरी और अन्तिम कड़ी ‘एक सेक्स मरीज का रोगनामचा’ 2008 के बाद भारतीय कला बाज़ार में आई जबरदस्त गिरावट, नोटबन्दी से पैदा हुई निषेधी स्थिति को एक... Read More

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Description
‘सेप्पुकु’ से विनोद भारद्वाज और ‘सच्चा झूठ’ (पत्रकारिता के पतन) से शुरू हुई कवि, उपन्यासकार और कला समीक्षक विनोद भारद्वाज की उपन्यास-त्रयी की तीसरी और अन्तिम कड़ी ‘एक सेक्स मरीज का रोगनामचा’ 2008 के बाद भारतीय कला बाज़ार में आई जबरदस्त गिरावट, नोटबन्दी से पैदा हुई निषेधी स्थिति को एक अलग-लगभग अतिय थार्थवादी कोण से देखने की कोशिश है। उपन्यास का नायक जय कुमार 1984 में दिल्ली के कुख्यात सिख हत्याकांड की रक्तरंजित स्मृतियों में जन्मा एक साधारण डाकिये की सन्तान है। 2004-07 के समय में भारतीय बाजार में जो जबरदस्त उछाल आया था उसके थोड़े-से स्वाद ने जय कुमार की रचनात्मकता को लगभग अवरुद्ध कर दिया है। वह अपने को सेक्स एडिक्ट समझने लगता है हालाँकि दयसकी सेक्स ज़िन्दगी कला बा [ज़ार के नये अतियथार्थवादी व्याकरण के कारण भी रोगग्रस्त होने का भ्रम पैदा करती है। दिल्ली की कला दुनिया का एक अंडरग्राउंड भी है जिसमें विनोद भारद्वाज की एक कला समीक्षक के रूप में आत्मीय आवाजाही रही है। कलाकारों ने किसी सेक्स रोगी होने का भ्रम पैदा करने वाले अपने अनगिनत क़िस्से समय-समय पर लेखक को सुनाये हैं। उन्हीं क़िस्सों ने इस उपन्यास की घटनाओं का ताना-बाना रचा है। कभी-कभी यथार्थ कल्पना से कहीं अधिक अतियथार्थवादी होती है। इस उपन्यास की पृष्ठभूमि में देश की बदलती राजनीतिक स्थिति की कड़वी सच्चाई भी है। इसके केन्द्र में ऐसे पात्र भी हैं जो कला बाज़ार में 2008 में आयी नाटकीय गिरावट को कांग्रेस के पतन से भी देख रहे थे। उन्हें मोदी की अर्थनीतियों से उम्मीदें थीं; पर उनका मोहभंग होने में भी देर नहीं लगी। जय कुमार क्या इस दुनिया में अपनी कला के सच्चे पैथन को बचा पायेगा? रोगी वह स्वयं है या उसके आसपास का समाज और राजनीति?]

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Hardbound

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Ek Sex Mareej Ka Rognamcha

‘सेप्पुकु’ से विनोद भारद्वाज और ‘सच्चा झूठ’ (पत्रकारिता के पतन) से शुरू हुई कवि, उपन्यासकार और कला समीक्षक विनोद भारद्वाज की उपन्यास-त्रयी की तीसरी और अन्तिम कड़ी ‘एक सेक्स मरीज का रोगनामचा’ 2008 के बाद भारतीय कला बाज़ार में आई जबरदस्त गिरावट, नोटबन्दी से पैदा हुई निषेधी स्थिति को एक अलग-लगभग अतिय थार्थवादी कोण से देखने की कोशिश है। उपन्यास का नायक जय कुमार 1984 में दिल्ली के कुख्यात सिख हत्याकांड की रक्तरंजित स्मृतियों में जन्मा एक साधारण डाकिये की सन्तान है। 2004-07 के समय में भारतीय बाजार में जो जबरदस्त उछाल आया था उसके थोड़े-से स्वाद ने जय कुमार की रचनात्मकता को लगभग अवरुद्ध कर दिया है। वह अपने को सेक्स एडिक्ट समझने लगता है हालाँकि दयसकी सेक्स ज़िन्दगी कला बा [ज़ार के नये अतियथार्थवादी व्याकरण के कारण भी रोगग्रस्त होने का भ्रम पैदा करती है। दिल्ली की कला दुनिया का एक अंडरग्राउंड भी है जिसमें विनोद भारद्वाज की एक कला समीक्षक के रूप में आत्मीय आवाजाही रही है। कलाकारों ने किसी सेक्स रोगी होने का भ्रम पैदा करने वाले अपने अनगिनत क़िस्से समय-समय पर लेखक को सुनाये हैं। उन्हीं क़िस्सों ने इस उपन्यास की घटनाओं का ताना-बाना रचा है। कभी-कभी यथार्थ कल्पना से कहीं अधिक अतियथार्थवादी होती है। इस उपन्यास की पृष्ठभूमि में देश की बदलती राजनीतिक स्थिति की कड़वी सच्चाई भी है। इसके केन्द्र में ऐसे पात्र भी हैं जो कला बाज़ार में 2008 में आयी नाटकीय गिरावट को कांग्रेस के पतन से भी देख रहे थे। उन्हें मोदी की अर्थनीतियों से उम्मीदें थीं; पर उनका मोहभंग होने में भी देर नहीं लगी। जय कुमार क्या इस दुनिया में अपनी कला के सच्चे पैथन को बचा पायेगा? रोगी वह स्वयं है या उसके आसपास का समाज और राजनीति?]