Dukkhum Sukkham
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Author | Mamta Kalia |
Language | Hindi |
Publisher | Vani Prakashan |
Pages | 274 |
ISBN | 978-8126319336 |
Book Type | Paperback |
Item Weight | 0.4 kg |
Edition | 8th |
Dukkhum Sukkham
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दुक्खम सुक्खम - 'मनीषा जानती है दादी की याद में कहीं कोई स्मारक खड़ा नहीं किया जायेगा। न अचल न सचल। उसके हाथ में यह क़लम है। वही लिखेगी अपनी दादी की कहानी।' यशस्वी कथाकार ममता कालिया का उपन्यास 'दुक्खम सुक्खम' दादी विद्यावती और पौत्री मनीषा के मध्य समाहित/सक्रिय समय एवं समाज की अनूठी गाथा है। इस आख्यान में तीन पीढ़ियों की सहभागिता है। मथुरा में रहनेवाले लाला नत्थीमल और उनकी पत्नी विद्यावती से यह आख्यान प्रारम्भ होता है। दूसरी पीढ़ी है लीला, भग्गो, कविमोहन और कवि की पत्नी इन्दु । कवि-इन्दु की दो बेटियाँ प्रतिभा और मनीषा तीसरी पीढ़ी का यथार्थ हैं। ममता कालिया ने मथुरा की पृष्ठभूमि में इस उपन्यास को रचा है। वैसे कथा के सूत्र दिल्ली, आगरा और बम्बई तक गये हैं।'दुक्खम सुक्खम' जीवन के जटिल यथार्थ में गुँथा एक बहुअर्थी पद है। रेल का खेल खेलते बच्चों की लय में दादी जोड़ती हैं 'कटी ज़िन्दगानी कभी दुक्खम कभी सुक्खम।' यह खेल हो सकता है किन्तु इस खेल की त्रासदी, विडम्बना और विसंगति तो वही जान पाते हैं जो इसमें शामिल हैं। परम्पराओं-रूढ़ियों में जकड़े मध्यवर्गीय परिवार की दादी का अनुभव इसी गृहस्थी में बामशक़्क़त क़ैद, डण्डाबेड़ी, तन्हाई जाने कौन-कौन सी सज़ा काट ली। एक तरह से यह उपन्यास श्रृंखला की बाहरी-भीतरी कड़ियों में जकड़ी स्त्रियों के नवजागरण का गतिशील चित्र और उनकी मुक्ति का मानचित्र है।उपन्यास में बीसवीं शताब्दी की बदलती हुई मथुरा है। लेखिका ने स्वतन्त्रता के संघर्ष, गाँधी के प्रभाव, चर्खा-खादी स्वदेशी से उभरे आत्मबल, देश-विभाजन की त्रासदी और आज़ादी के बाद का परिदृश्य—इन सबको कथा की आन्तरिकता में शामिल किया है। कविमोहन के माध्यम से लेखिका ने नये जीवन मूल्यों की तलाश में व्यस्त ऐसे व्यक्ति की कहानी प्रस्तुत की है जिसका संसार डिग्री कालेज, साहित्य और रेडियो स्टेशन तक फैला है। हाँ, कुहेली भट्टाचार्य की अन्तः कथा कवि की कहानी को मार्मिक आयाम देती है। कुहेली से विलग होने पर कवि ने लिखा, 'और हम अपनी बनायी जेलों से बाहर आ जायेंगे।'लीला, भगवती, इन्दु, प्रतिभा, मनीषा और सर्वोपरि दादी का जीवन संघर्ष विलक्षण है। सुशोभन बड़ी बहन प्रतिभा के सामने औसत रूप-रंग की मनीषा किस प्रकार अपने गुणों को विकसित कर आत्मशक्ति सम्पन्न बनती है, यह पढ़ने योग्य है। ममता कालिया ने बेहद संवेदनशीलता के साथ उसके द्वन्द्वों-वयःसन्धि के अनुभवों और वैचारिकता में होने वाले परिवर्तनों को व्यक्त किया है। लेखिका का जीवनानुभव अपनी सर्वोत्तम रचनाशीलता के साथ 'दुक्खम सुक्खम' में आकार पा सका है। अमृतलाल नागर के उपन्यास 'खंजन नयन' के बाद ब्रजभाषा की मिठास, टीस और अर्थव्याप्ति का सबसे सार्थक उपयोग इस उपन्यास में हुआ है।जीवन की विपुल आपाधापी में अस्तित्व के बहुतेरे प्रश्नों की गूँज और उनके उत्तरों की आहट 'दुक्खम सुक्खम' में सुनाई पड़ती है।— सुशील सिद्धार्थ
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