Dingal Kavya Parampara : Ek Anushilan
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Author | Mahipal Singh Rathore |
Language | Hindi |
Publisher | Rajasthani Granthaghar |
Pages | NA |
ISBN | 978-9384168582 |
Book Type | Paperback |
Item Weight | 0.4 kg |
Dingal Kavya Parampara : Ek Anushilan
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डिंगल काव्य परम्परा : एक अनुशीलन : भारत के मध्यकालीन इतिहास में जहाँ राजस्थान का केसरिया अध्याय रहा है, वहीं हिन्दी के आदिकाल में अपभ्रंश काल के पश्चात् आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में राजस्थानी व उसके समूचे डिंगल साहित्य का अद्भुत योगदान है। उस महत्वपूर्ण साहित्य सम्पदा की अद्यतन अनदेखी कर हमने उसे पीछे छोड दिया। कहना न होगा हिन्दी के प्रबुद्ध चिंतक व आलोचकों ने महाकवि पृथ्वीराज राठौड़ की ‘वेलि क्रिसन रूकमणी री’ व भक्तिकाल की महान् कवयित्रि मेड़तणी मीरां के पदों को तो अपनी शोभा बढ़ाने के लिए इतिहास एवं आलोचना का अंग बना लिया।अंग्रेजों के भारत आगमन, देशी राजाओं से युद्ध संधियों के दौर में यहाँ के डिंगल कवि बांकीदास (सं. 1828-1890) ने एक गीत इस प्रकार रचा-आयो इंगरेज मुलक रै उपर, आहंस लीधा खेंचि उरा।धणियां मरै न दीधी धरती, धणियां उभां गई धरा।राखै रै किहिंक रजपूती, मरद हिन्दू की मुसलमान।RelatedTRUE
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