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किसी भी व्यक्ति के निजी और आत्मीय संसार में उसके समय की राजनीति और हालात किस तरह सेंध लगा सकते हैं, इसका एक बेचैन कर देनेवाला दस्तावेज़ है, सुपरिचित कथाकार मंज़ूर एहतेशाम का बहुचर्चित उपन्यास ‘दास्तान-ए-लापता’।दरअसल संसार लोगों का ही नहीं, ‘लापताओं’ का भी मंच है। अन्य प्रजातियों की तरह यहाँ ‘लापता’ भी जन्म लेते हैं, बड़े होते हैं और आख़िर थककर अपने अन्त को प्राप्त होते हैं।‘दास्तान-ए-लापता’ दास्तान है ज़मीर अहमद ख़ान की, जिसने ज़िन्दगी की शुरुआत में बहुत विश्वास से कहा था, ‘‘मुझे सच्चा प्यार चाहिए, बस।’’ और यह भी कि ‘‘मैं उसे हासिल करके दिखाऊँगा!’’ ‘दास्तान-ए-लापता’ इस क्रूर दुनिया में उसके बड़े होने का दस्तावेज़ है। ‘दास्तान-ए-लापता’ ज़मीर अहमद ख़ान सहित उन सब लोगों की कहानी है जो जाने-अनजाने किसी परिवार या व्यवस्था की परिधि से छूट जाते हैं। ‘दास्तान-ए-लापता’ उन लोगों की कथा है जो चाहते हुए भी अन्धी दौड़ का हिस्सा नहीं बन पाते, जो हर बार अपने अन्तर्विरोधों के साथ सिर्फ़ अपने भीतरी तहख़ानों में उतर पाते हैं। यह उन लोगों की कथा है जो ज़िन्दगी की हर असफलता में अतीत के शाप सुनते हैं, जो अपनी छोटी-छोटी बेईमानियों को आत्मा में पैबन्द की तरह लगाकर चलते हैं और एक दिन सबके देखते-देखते अपने भीतर लापता हो जाते हैं।कथानक में पीड़ा की एक धुँधली लकीर बराबर चलती है। अपने देश-काल से असुविधाजनक सवाल पूछते-पूछते यह लकीर मंज़ूर एहतेशाम के पिछले उपन्यास ‘सूखा बरगद’ से ‘दास्तान-ए-लापता’ तक अनायास खिंच आई है। हालाँकि यहाँ पाठक को भ्रमित करने के लिए सांसारिक घटनाक्रम है, परिवारों और व्यक्तियों का सनकीपन है, फिर भी लेखक का कोई भी शिल्पगत प्रयोग इस लकीर को पूरी तरह ढक नहीं पाता।एक तरह से ‘दास्तान-ए-लापता’ मंज़ूर एहतेशाम के पिछले उपन्यास ‘सूखा बरगद से’ प्रस्थान है। जहाँ इससे पहले लेखक का सरोकार एक अल्पसंख्यक समाज था, वहाँ इस बार अल्प या बहुसंख्यक की परिभाषा को बेमानी करता एक अकेला आदमी है, जो परिधि से बाहर की ओर चल निकला है, एक क्रमशः अदृश्य होता आदमी, जो लोप होने से पहले इस कथानक के परिदृश्य में अपने पदचिह्न छोड़ता है, अपनी सुप्त पीड़ा के साथ, शायद आख़िरी बार...
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