अनुक्रम
आमुख - 7
जीती रहो - 13
मिकदार - 13
बात - 14
सूई पिरोना - 16
दिन का देहांत - 17
मीठा है? - 17
चील के परांठे - 19
खुश किस्मत - 20
आंधी का आसन - 21
पावन आंसू - 22
रे गंधी! - 23
अवयव - 24
भूतो न भविष्यति - 26
मशक्कत - 26
चेतन - 27
महाराजा मालदेव - 30
नान्तं न मध्यं - 31
जीरा - 34
कविता में बोलूंगा - 35
किससे कहूं? - 36
इतना ही सामान शेष है - 37
अतिरेकी - 38
तू ही बिज्जी बन जा - 39
डायरी के पन्ने नहीं सुनाएगा? – 40
न दैन्यम् न पलायनम् - 41
अब क्या कहूं! - 42
नींबोजी का सिलोका – 43
तीस बरस तक तीन बजे - 46
यह उलूक – 48
यकीन ही नहीं होता - 49
गांव वापिस कब आएगा – 50
झूठ चबेना - 51
पेंटिंग - 52
विनोबाजी की टेक - 55
आज मैं डायरी न लिखता - 58
ईश्वरीय अनुभूति की मद्धिम-सी झंकृति - 59
इसीलिए तो पंडितजी के पास आया हूं - 60
म्हनै तो लाय लगावणी आवै - 61
दोनों भाषाएं समृद्ध हो जाएंगी - 62
इंटेलीजेंट उत्तर - 64
खुलूस-ओ-मुहब्बत - 66
वेद व्यास - 68
खूब... खूब - 69
रोनी पर कुछ लिखते क्यों नहीं - 71
आज का दिन व्यर्थ - 73
कई चीज़ों पर मेरी नज़र है -74
चिंता बिज्जी की और आनंद भी बिज्जी का -76
मजा आया, तो पैसे दे -79
आज बोरूंदा चला आया -80
हे भगवान, यह स्मृति -81
आंसू सपने में भी धोखा नहीं देते -83
क्षमस्व परमेश्वरी -85
धणी रौ मांन धणियाणी रै हाथ 92
मात्र यह मातृ वंदन -92
दुनिया में हूं दुनिया का तलबगार नहीं हूं -92
वाह बिज्जी -95
दो गूंगों का गुड़ -97
हमारा ग़म कुछ और है मित्रो -101
कुबेर को चिट्ठी लिख दूंगा -104
और किस पुण्यस्मरण से उनको प्रणाम करूं -107
प्रेमजी 'तनहा दिल' लिये घूमने वाले आदमी हैं -109
गजब के गो-सेवक नींबोजी 113
आग लगे तुम्हारे इन परवानों को -117
मां की महिमा -120
सफेद सो सारे श्वेत कपोत -123
आप महाराज हैं क्या -126
आपको राई-रत्ती जान चुका हूं -129
मोरा बाला, चंदा का जैसा हाला रे -131
पर्यायवाची लिखने के बाद भी रोता है रे -134
करणी समौ न देवता, गीता समौ न पाठ -136
राम-राम मालू -139
फिर बेतलवा डाल पर -142
बिज्जी पर क्या गुजर रही है -144
यह मुझसे उम्र में बड़ा है -146
एहसान मेरे दिल पे तुम्हारा है दोस्तो -148
निवै तिलोकी नाथ, राधा आगळ राजिया -152
एक भुजा खंडित -154
वाभा... आंखें क्यों नहीं खोलते -156
बस 'बातों की बगिया' पूरी हो जाए -157
अलविदा बिज्जी -159
11 जनवरी, 2013
जीती रहो
आज मैं बोरूंदा पहुंचा, शाम 6.45 बजे । आने का मन नहीं था पर फ़ैज़ साहब
का शे'र याद किया, रखा, किसी मंत्र की तरह :
दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुझसे भी दिल - फ़रेब हैं ग़म रोज़गार के
यह बात कितनी मामूली है, मगर कितनी जटिल ! इसको उमर के 56 वें
बरस में लुढ़कता मालचंद तिवाड़ी महसूस कर सकता है, लेकिन जरूरी नहीं
कि और तमाम लोग, जो उसकी रोजमर्रा जिंदगी और जिम्मेदारियों से वाबस्ता
हों, वे इसकी जटिलता को समझें और तदनुरूप आचरण करें। बहरहाल, फ़ैज़
साहब का ही एक मिसरा इस दर्द की दवा है :
वो बुतों ने डाले हैं वसवसे
के दिलों से ख़ौफ़-ए-ख़ुदा गया
वो रोज़ पड़ी हैं क़यामतें
के ख़याले-रोज़े-जज़ा गया
क़यामत को आम शहरी की जिंदगी का ऐसा संदर्भ बना देना कदाचित्
ग़ालिब के वश की बात भी न थी । इसलिए फ़ैज़ के 'फ़ैज़' को सलाम ! जीती
रहो ! अब लोग सोचें, यह आशीर्वचन मैंने किससे कहा-उर्दू की शायरी से,
अपनी आला दरजे की बेवकूफाना तबीयत से या किसी और से, जो जीती तो
बेशक रहे पर मेरी खबर न ले ?
12 जनवरी, 2013
मिकदार
आज विवेकानंद की 149वीं जयंती है। 39 वर्ष का छोटा-सा मगर तेजस्वी जीवन
जीकर चला गया यह भारतीय नर सिंह ! इस महान प्रतिभा को पहचानने वाले
महापुरुष रामकृष्ण परमहंस को कोटिशः प्रणाम । निरालाजी द्वारा मूल बांग्ला
से अनूदित हिंदी 'वचनामृत' का गत वर्ष मैंने राजस्थानी में अनुवाद करना शुरू
बोरूंदा डायरी
तीन दिन रहा।" फिर बताया, "शांति-निकेतन में पहले-पहल तीन विदेशियों
ने छात्रों के रूप में प्रवेश लिया था। उनमें से एक जापानी था । "
जब मैं उनसे थोड़ा अलग, सोफे पर बैठकर मेरे द्वारा दो दिन पहले उद्घाटित
टेबल पर थाली रखकर खाना खा रहा था, तो वे अकस्मात् बोले, “मालू,
हजारीप्रसाद द्विवेदी की एक किताब है - शांति निकेतन पर।" फिर रुककर
कहा, “ठीका-ठीक... सिर्फ ठीका-ठीक! कोई खास दम नहीं ।"
3 मार्च, 2013
तू ही बिज्जी बन जा
कल लक्ष्मणजी ने फोन करके बताया कि 'इंडिया टुडे' की कोई महिला पत्रकार
बिज्जी पर स्टोरी करने सुबह ग्यारह बजे पहुंचेगी। महेंद्र बाबू बड़े सवेरे जरूरी
काम से अपनी गाड़ी में जोधपुर चले जाएंगे; कहा है, सब कुछ मालजी को
ही संभालना है। मैंने कहा, "निश्चित रहें, सब हो जाएगा।"
मैंने बिज्जी को बताया, तो उन्होंने कहा, " 'इंडिया टुडे' तो जबरदस्त
निकला करता था। मैं नियमित पढ़ता था । बड़ा छापा था। अब पता नहीं कैसा है !"
मैंने कहा, “ अब भी बड़ा है । "
मैं थोड़ा आशंकित था; बड़ी पत्रिका से पत्रकार, सो भी लड़की!
सुबह चिमनारामजी आए तो उन्हें 11 बजे तक बिज्जी को तैयार करने की
हिदायत दी । हज्जाम तुलसाराम को फोन किया गया। बिज्जी की हजामत बनी।
बिज्जी फ्रेश हुए। कुल्ला - दातुन किया। कांगसिया-सिनान हुआ। इस्तरी किया
कुर्ता, बाड़मेरी बास्केट, सिर पर खरगोश की खाल की टोपी जो चार-पांच बरस
पहले मेरे ही हाथ मैकलाडगंज (हि.प्र.) से खरीदकर उनके एक मुरीद संजीव
भनोत ने भेजी थी। मामला टनाटन । बालसुलभ कौतुक भी, थोड़ी बेचैनी ।
अचानक मुझसे कहा, "मालू, जो लोग आ रहे हैं, वे मुझसे मिले हैं कभी ?"
मैंने कहा, "शायद ही । "
वे बोले, "तो ऐसा कर, तू ही बिज्जी बन जा और इंटरव्यू दे दे। मेरी जान
बचे ।"
चिमनारामजी सामने सोफे पर पालथी मारे बैठे थे- उनींदे से। रात को खेत
में नीलगायें खदेड़ते-खदेड़ते नींद पूरी नहीं होती। बिज्जी ने कहा, "चिमनिया,
वे यहां रहें तब तक मेरे पैर मत दबाना। बड़ा बुरा लगेगा।"
चिमनारामजी जोर से हंसे, फिर कहा, "मेरे हाथ इस काम के लिए खुजला
नहीं रहे हैं।"
लाक्षणिक भारतीय अनुभूति को भुलाए बैठी हैं । मेरे जैसा साधारण पिता मेरे बेटे
की उम्र के एक अज्ञात कुलशील अपराधी नौजवान के कृत्य पर यह सोचता
और पूछता है कि ये किसके बच्चे हैं ? हमारे नहीं तो और किसके ? तो कुछ
तो जिम्मेदारी बनती है हमारे शासकों की !
बहरहाल, आज मेरी फीमेल फ्रेंड ने अकस्मात् आकर यह क्या कर दिया ?
कैसा दुखभरा राग छेड़ दिया ? और दो बिस्किट जूठे छोड़कर चली भी गई !
पुनः पुनः पुनश्च
आज मेरी जीवन संगिनी चंदा का इक्यावनवां जन्मदिन था । सवेरे उसके साथ
बात की तब भूल रहा । उसने भी कुछ न कहा पर अपराह्न छोटे बेटे सुकांत का
BBM संदेश आया : Mumy's Birthday today... मैंने चंदा को फोन कर बधाई
दी। वह सरलमना औरत इन टेम्परेरी चोंचलों को फूटी आंख नहीं देखती ... फिर
भी हंसी; और संभव है, कुछ लाली भी बिखरी हो उसके इर्द-गिर्द !
29 सितंबर, 2013
हमारा ग़म कुछ और है मित्रो
फुलवाड़ी' का तेरहवां भाग अनुवाद के अपने अंतिम चरण में आ पहुंचा है।
कोई चार-पांच छोटी कहानियां और एक थोड़ी लंबी कथा 'अकल रौ कांमण'
बची है। आज बिज्जी ने मुझे एक बार भी याद नहीं किया। सुरेश से पूछा था
मैंने। उसने बताया कि वे अपने कई परिजनों, जिनके साथ उनका बरसों से विग्रह
चलता आया है, के नाम अनेक कलह-संदर्भों में कल रात बार-बार लेते रहे ।
उनकी स्मृति उनके साथ खिलवाड़ कर रही है। बिज्जी धीरे-धीरे अपने प्रयाण-
बिंदु की ओर बढ़ रहे हैं। वहां पहुंचकर राजस्थानी के निस्सीम नभ का यह गरुड़-
पाखी किसी अदीठ देश में उड़ विलीन होगा। बिज्जी के अनेक नायक पछतावे
के क्षणों में, लज्जा के क्षणों में, पराजय के क्षणों में, अक्सर एक ऐसे ही अदीठ
देश की कामना करते हैं कि वहां चले जाएं। वे अपने देश-काल को मुंह दिखाने
के काबिल नहीं !
आज भी पूरा दिन कल की तरह रवींद्र - उल्लिखित एक बंगाली 'छड़े'
(शिशु-गीत) की तर्ज पर 'बीता - बिस्टी पोड़े टापुर-टुपुर !' बांग्ला की इस
द्विध्वनि को सुनिए तो जरा-टापुर-टुपुर ! क्या बारिश की एक गति विशेष का
ठीक यही स्वर नहीं होता ? वह हमारे कानों में क्या इसी शब्द में नहीं बजती ?
आज बिज्जी की एक और अद्भुत कहानी का अनुवाद किया- 'गम बड़ी