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ऐसे लेखक बिरले होते हैं जो अपनी आधुनिकता/प्रगतिशीलता को सही विकल्प मानने के बावजूद उस अहंकार को जीत पाते हैं जो आधुनिकता और प्रगतिशीलता में कहीं बद्धमूल है। बिज्जी ऐसे बिरले आधुनिक लेखक थे। वे पूर्व-आधुनिक से उसकी वाणी नहीं छीनते, उसका ‘प्रतिनिधि’ बनने की, उसे अपने अधीन लाने की और इस तरह अपने को श्रेष्ठतर जताने की औपनिवेशिक कोशिश नहीं करते। जैसे ‘व्हाइट मेन’स बर्डन’ होता है वैसे ही एक ‘मॉडर्न मेनֹ’स बर्डन’ भी होता है। बिज्जी के कथा-लोक में उनकी ‘बातां री फुलवाड़ी’ में, जो उनके लेखन का सबसे सटीक रूपक भी है और उनका मैग्नम ओपस भी, पूर्व-आधुनिक भी फूल हैं, ‘पिछड़े’, ‘गँवार’ नहीं।
बिज्जी ताउम्र बोरूंदा में रहे, वहीं एक प्रेस स्थापित किया, प्रणपूर्वक राजस्थानी में लिखा और अपने गाँव में अपने प्रगतिशील, आधुनिक विचारों और नास्तिकता के बावजूद विरोधी भले माने गए हों, ‘बाहरी’ कभी नहीं माने गए।
चौदह खंडों में ‘बातां री फुलवाड़ी’ रचकर उन्होंने भारतीय और विश्वसाहित्य के इतिहास में जिस युगान्तकारी परिवर्तन का सूत्रपात किया था, वह अब भी हिन्दी पाठकों को अपनी समग्रता में उपलब्ध नहीं था। बिज्जी के स्नेहाधिकारी और द्विभाषी लेखक मालचन्द तिवाड़ी उसके बड़े हिस्से का अनुवाद करने के लिए एक साल तक बिज्जी के साथ बोरूंदा में रहे, वही एक साल जो बिज्जी के जीवन का अन्तिम एक साल सिद्ध हुआ। इस डायरी में बिज्जी का वह पूरा साल है जब वे शारीरिक रूप से परवश होकर अपनी स्वभावगत सक्रियता का अनन्त भार अपने मन पर सँभाले रोग-शय्या पर थे।
यह भी एक अर्थ-बहुल विडम्बना है कि बिज्जी के शाहकार का अनुवाद एक ऐसे लेखकीय आत्म के हाथों सम्पन्न हुआ जो इस डायरी-वृत्तान्त में एक आस्तिक ही नहीं, एक पूर्व-आधुनिक की तरह प्रस्तुत है। इस डायरी-वृत्तान्त को पढ़ना, डायरीकार को पढ़ना दरअसल बिज्जी के अपने रचे समाज को, उनके कथा-संसार को पढ़ना है जिसके साथ बिज्जी के द्वन्द्वात्मक लेकिन करुणामय सम्बन्ध का एक उदाहरण इस डायरीकार के साथ बिज्जी का—और बिज्जी के साथ डायरीकार का—अपना निजी, जटिल और रागात्मक सम्बन्ध है। Aise lekhak birle hote hain jo apni aadhunikta/pragatishilta ko sahi vikalp manne ke bavjud us ahankar ko jit pate hain jo aadhunikta aur pragatishilta mein kahin baddhmul hai. Bijji aise birle aadhunik lekhak the. Ve purv-adhunik se uski vani nahin chhinte, uska ‘pratinidhi’ banne ki, use apne adhin lane ki aur is tarah apne ko shreshthtar jatane ki aupaniveshik koshish nahin karte. Jaise ‘vhait men’sa bardan’ hota hai vaise hi ek ‘maudarn menֹ’sa bardan’ bhi hota hai. Bijji ke katha-lok mein unki ‘batan ri phulvadi’ mein, jo unke lekhan ka sabse satik rupak bhi hai aur unka maignam opas bhi, purv-adhunik bhi phul hain, ‘pichhde’, ‘ganvar’ nahin. Bijji taumr borunda mein rahe, vahin ek pres sthapit kiya, pranpurvak rajasthani mein likha aur apne ganv mein apne pragatishil, aadhunik vicharon aur nastikta ke bavjud virodhi bhale mane ge hon, ‘bahri’ kabhi nahin mane ge.
Chaudah khandon mein ‘batan ri phulvadi’ rachkar unhonne bhartiy aur vishvsahitya ke itihas mein jis yugantkari parivartan ka sutrpat kiya tha, vah ab bhi hindi pathkon ko apni samagrta mein uplabdh nahin tha. Bijji ke snehadhikari aur dvibhashi lekhak malchand tivadi uske bade hisse ka anuvad karne ke liye ek saal tak bijji ke saath borunda mein rahe, vahi ek saal jo bijji ke jivan ka antim ek saal siddh hua. Is dayri mein bijji ka vah pura saal hai jab ve sharirik rup se parvash hokar apni svbhavgat sakriyta ka anant bhar apne man par sanbhale rog-shayya par the.
Ye bhi ek arth-bahul vidambna hai ki bijji ke shahkar ka anuvad ek aise lekhkiy aatm ke hathon sampann hua jo is dayri-vrittant mein ek aastik hi nahin, ek purv-adhunik ki tarah prastut hai. Is dayri-vrittant ko padhna, dayrikar ko padhna darasal bijji ke apne rache samaj ko, unke katha-sansar ko padhna hai jiske saath bijji ke dvandvatmak lekin karunamay sambandh ka ek udahran is dayrikar ke saath bijji ka—aur bijji ke saath dayrikar ka—apna niji, jatil aur ragatmak sambandh hai.

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अनुक्रम


आमुख - 7  
जीती रहो - 13  
मिकदार - 13  
बात - 14  
सूई पिरोना - 16  
दिन का देहांत  - 17 
मीठा है?   - 17
चील के परांठे - 19  
खुश किस्मत - 20  
आंधी का आसन - 21  
पावन आंसू  - 22
रे गंधी! - 23  
अवयव - 24  
भूतो न भविष्यति - 26  
मशक्कत - 26
चेतन - 27  
महाराजा मालदेव - 30  
नान्तं न मध्यं - 31  
जीरा - 34  
कविता में बोलूंगा - 35  
किससे कहूं? - 36  
इतना ही सामान शेष है - 37  
अतिरेकी - 38  
 तू ही बिज्जी बन जा - 39  
डायरी के पन्ने नहीं सुनाएगा? – 40
न दैन्यम् न पलायनम् - 41
अब क्या कहूं! - 42
नींबोजी का सिलोका – 43
तीस बरस तक तीन बजे -  46
यह उलूक – 48
यकीन ही नहीं होता - 49
गांव वापिस कब आएगा – 50
झूठ चबेना - 51
पेंटिंग - 52
विनोबाजी की टेक - 55
आज मैं डायरी न लिखता  - 58
ईश्वरीय अनुभूति की मद्धिम-सी झंकृति  - 59
इसीलिए तो पंडितजी के पास आया हूं - 60
म्हनै तो लाय लगावणी आवै - 61
दोनों भाषाएं समृद्ध हो जाएंगी - 62
इंटेलीजेंट उत्तर - 64
खुलूस-ओ-मुहब्बत - 66
वेद व्यास - 68 
खूब... खूब - 69
रोनी पर कुछ लिखते क्यों नहीं - 71
आज का दिन व्यर्थ - 73 

कई चीज़ों पर मेरी नज़र है -74  
चिंता बिज्जी की और आनंद भी बिज्जी का -76  
मजा आया, तो पैसे दे -79
आज बोरूंदा चला आया -80  
हे भगवान, यह स्मृति -81
आंसू सपने में भी धोखा नहीं देते -83  
क्षमस्व परमेश्वरी -85
धणी रौ मांन धणियाणी रै हाथ 92  
मात्र यह मातृ वंदन -92
दुनिया में हूं दुनिया का तलबगार नहीं हूं -92
वाह बिज्जी -95
दो गूंगों का गुड़ -97
हमारा ग़म कुछ और है मित्रो -101 
कुबेर को चिट्ठी लिख दूंगा -104
और किस पुण्यस्मरण से उनको प्रणाम करूं -107
प्रेमजी 'तनहा दिल' लिये घूमने वाले आदमी हैं -109
गजब के गो-सेवक नींबोजी 113  
आग लगे तुम्हारे इन परवानों को -117
मां की महिमा  -120
सफेद सो सारे श्वेत कपोत -123
आप महाराज हैं क्या -126
आपको राई-रत्ती जान चुका हूं -129
मोरा बाला, चंदा का जैसा हाला रे -131
पर्यायवाची लिखने के बाद भी रोता है रे -134 
करणी समौ न देवता, गीता समौ न पाठ -136  
राम-राम मालू -139
फिर बेतलवा डाल पर -142
बिज्जी पर क्या गुजर रही है -144
यह मुझसे उम्र में बड़ा है -146  
एहसान मेरे दिल पे तुम्हारा है दोस्तो -148
निवै तिलोकी नाथ, राधा आगळ राजिया -152
एक भुजा खंडित -154
वाभा... आंखें क्यों नहीं खोलते -156
बस 'बातों की बगिया' पूरी हो जाए -157
अलविदा बिज्जी -159

11 जनवरी, 2013
जीती रहो

आज मैं बोरूंदा पहुंचा, शाम 6.45 बजे । आने का मन नहीं था पर फ़ैज़ साहब
का शे'र याद किया, रखा, किसी मंत्र की तरह :
दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुझसे भी दिल - फ़रेब हैं ग़म रोज़गार के
यह बात कितनी मामूली है, मगर कितनी जटिल ! इसको उमर के 56 वें
बरस में लुढ़कता मालचंद तिवाड़ी महसूस कर सकता है, लेकिन जरूरी नहीं
कि और तमाम लोग, जो उसकी रोजमर्रा जिंदगी और जिम्मेदारियों से वाबस्ता
हों, वे इसकी जटिलता को समझें और तदनुरूप आचरण करें। बहरहाल, फ़ैज़
साहब का ही एक मिसरा इस दर्द की दवा है :

वो बुतों ने डाले हैं वसवसे
के दिलों से ख़ौफ़-ए-ख़ुदा गया
वो रोज़ पड़ी हैं क़यामतें
के ख़याले-रोज़े-जज़ा गया

क़यामत को आम शहरी की जिंदगी का ऐसा संदर्भ बना देना कदाचित्
ग़ालिब के वश की बात भी न थी । इसलिए फ़ैज़ के 'फ़ैज़' को सलाम ! जीती
रहो ! अब लोग सोचें, यह आशीर्वचन मैंने किससे कहा-उर्दू की शायरी से,
अपनी आला दरजे की बेवकूफाना तबीयत से या किसी और से, जो जीती तो
बेशक रहे पर मेरी खबर न ले ?

12 जनवरी, 2013
मिकदार

आज विवेकानंद की 149वीं जयंती है। 39 वर्ष का छोटा-सा मगर तेजस्वी जीवन
जीकर चला गया यह भारतीय नर सिंह ! इस महान प्रतिभा को पहचानने वाले
महापुरुष रामकृष्ण परमहंस को कोटिशः प्रणाम । निरालाजी द्वारा मूल बांग्ला
से अनूदित हिंदी 'वचनामृत' का गत वर्ष मैंने राजस्थानी में अनुवाद करना शुरू
बोरूंदा डायरी

तीन दिन रहा।" फिर बताया, "शांति-निकेतन में पहले-पहल तीन विदेशियों
ने छात्रों के रूप में प्रवेश लिया था। उनमें से एक जापानी था । "
जब मैं उनसे थोड़ा अलग, सोफे पर बैठकर मेरे द्वारा दो दिन पहले उद्घाटित
टेबल पर थाली रखकर खाना खा रहा था, तो वे अकस्मात् बोले, “मालू,
हजारीप्रसाद द्विवेदी की एक किताब है - शांति निकेतन पर।" फिर रुककर
कहा, “ठीका-ठीक... सिर्फ ठीका-ठीक! कोई खास दम नहीं ।"

3 मार्च, 2013
तू ही बिज्जी बन जा

कल लक्ष्मणजी ने फोन करके बताया कि 'इंडिया टुडे' की कोई महिला पत्रकार
बिज्जी पर स्टोरी करने सुबह ग्यारह बजे पहुंचेगी। महेंद्र बाबू बड़े सवेरे जरूरी
काम से अपनी गाड़ी में जोधपुर चले जाएंगे; कहा है, सब कुछ मालजी को
ही संभालना है। मैंने कहा, "निश्चित रहें, सब हो जाएगा।"
मैंने बिज्जी को बताया, तो उन्होंने कहा, " 'इंडिया टुडे' तो जबरदस्त
निकला करता था। मैं नियमित पढ़ता था । बड़ा छापा था। अब पता नहीं कैसा है !"
मैंने कहा, “ अब भी बड़ा है । "
मैं थोड़ा आशंकित था; बड़ी पत्रिका से पत्रकार, सो भी लड़की!
सुबह चिमनारामजी आए तो उन्हें 11 बजे तक बिज्जी को तैयार करने की
हिदायत दी । हज्जाम तुलसाराम को फोन किया गया। बिज्जी की हजामत बनी।
बिज्जी फ्रेश हुए। कुल्ला - दातुन किया। कांगसिया-सिनान हुआ। इस्तरी किया
कुर्ता, बाड़मेरी बास्केट, सिर पर खरगोश की खाल की टोपी जो चार-पांच बरस
पहले मेरे ही हाथ मैकलाडगंज (हि.प्र.) से खरीदकर उनके एक मुरीद संजीव
भनोत ने भेजी थी। मामला टनाटन । बालसुलभ कौतुक भी, थोड़ी बेचैनी ।
अचानक मुझसे कहा, "मालू, जो लोग आ रहे हैं, वे मुझसे मिले हैं कभी ?"
मैंने कहा, "शायद ही । "
वे बोले, "तो ऐसा कर, तू ही बिज्जी बन जा और इंटरव्यू दे दे। मेरी जान
बचे ।"
चिमनारामजी सामने सोफे पर पालथी मारे बैठे थे- उनींदे से। रात को खेत
में नीलगायें खदेड़ते-खदेड़ते नींद पूरी नहीं होती। बिज्जी ने कहा, "चिमनिया,
वे यहां रहें तब तक मेरे पैर मत दबाना। बड़ा बुरा लगेगा।"
चिमनारामजी जोर से हंसे, फिर कहा, "मेरे हाथ इस काम के लिए खुजला
नहीं रहे हैं।"

लाक्षणिक भारतीय अनुभूति को भुलाए बैठी हैं । मेरे जैसा साधारण पिता मेरे बेटे
की उम्र के एक अज्ञात कुलशील अपराधी नौजवान के कृत्य पर यह सोचता
और पूछता है कि ये किसके बच्चे हैं ? हमारे नहीं तो और किसके ? तो कुछ
तो जिम्मेदारी बनती है हमारे शासकों की !
बहरहाल, आज मेरी फीमेल फ्रेंड ने अकस्मात् आकर यह क्या कर दिया ?
कैसा दुखभरा राग छेड़ दिया ? और दो बिस्किट जूठे छोड़कर चली भी गई !

पुनः पुनः पुनश्च 

आज मेरी जीवन संगिनी चंदा का इक्यावनवां जन्मदिन था । सवेरे उसके साथ
बात की तब भूल रहा । उसने भी कुछ न कहा पर अपराह्न छोटे बेटे सुकांत का
BBM संदेश आया : Mumy's Birthday today... मैंने चंदा को फोन कर बधाई
दी। वह सरलमना औरत इन टेम्परेरी चोंचलों को फूटी आंख नहीं देखती ... फिर
भी हंसी; और संभव है, कुछ लाली भी बिखरी हो उसके इर्द-गिर्द !

29 सितंबर, 2013
हमारा ग़म कुछ और है मित्रो

फुलवाड़ी' का तेरहवां भाग अनुवाद के अपने अंतिम चरण में आ पहुंचा है।
कोई चार-पांच छोटी कहानियां और एक थोड़ी लंबी कथा 'अकल रौ कांमण'
बची है। आज बिज्जी ने मुझे एक बार भी याद नहीं किया। सुरेश से पूछा था
मैंने। उसने बताया कि वे अपने कई परिजनों, जिनके साथ उनका बरसों से विग्रह
चलता आया है, के नाम अनेक कलह-संदर्भों में कल रात बार-बार लेते रहे ।
उनकी स्मृति उनके साथ खिलवाड़ कर रही है। बिज्जी धीरे-धीरे अपने प्रयाण-
बिंदु की ओर बढ़ रहे हैं। वहां पहुंचकर राजस्थानी के निस्सीम नभ का यह गरुड़-
पाखी किसी अदीठ देश में उड़ विलीन होगा। बिज्जी के अनेक नायक पछतावे
के क्षणों में, लज्जा के क्षणों में, पराजय के क्षणों में, अक्सर एक ऐसे ही अदीठ
देश की कामना करते हैं कि वहां चले जाएं। वे अपने देश-काल को मुंह दिखाने
के काबिल नहीं !
आज भी पूरा दिन कल की तरह रवींद्र - उल्लिखित एक बंगाली 'छड़े'
(शिशु-गीत) की तर्ज पर 'बीता - बिस्टी पोड़े टापुर-टुपुर !' बांग्ला की इस
द्विध्वनि को सुनिए तो जरा-टापुर-टुपुर ! क्या बारिश की एक गति विशेष का
ठीक यही स्वर नहीं होता ? वह हमारे कानों में क्या इसी शब्द में नहीं बजती ?
आज बिज्जी की एक और अद्भुत कहानी का अनुवाद किया- 'गम बड़ी

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