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Bhasha Yugbodh Aur Kavita
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"कहने में कितना अच्छा लगता है-साहित्य समाज का दर्पण है और कितने आलोचकों ने नहीं कहा, साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब है, परन्तु कितने आलोचकों ने अपने कहने की सचाई का अनुभव किया है और अनुभव करके उसके अनुसार आचरण किया है? समाज में मनुष्यों के पारस्परिक सम्बन्ध बदले हैं, उनके भावों और विचारों में परिवर्तन हुए हैं, परिस्थितियाँ बदली हैं और उनके साथ 'मनुष्यत्व' की परिभाषाएँ भी बदली हैं। साहित्य के भाव, विचार, उनको व्यक्त करने के ढंग गतिशील युग-प्रवाह में बदलते रहे हैं । उनके इस बदलने के क्रम को, इस बहाव को, स्थायी कहा जा सकता है। परन्तु साहित्य और समाज के सम्बन्ध की यह व्याख्या स्वीकार करने वाले लोग कम हैं । समाजवादी और प्रगतिशील कवियों के लिए न तो रोमांटिक कवि आदर्श हैं न रीतिकालीन । परन्तु दोनों की तुलना में अधिक महत्त्व रोमांटिक कवियों को ही दिया जायेगा । रीतिकालीन कवियों की संस्कृति ही ऐसी होती है कि प्रत्येक देश और समाज का भला चाहने वाला उसका शत्रु हो जायेगा। उनकी भाषा पर दरबारी संस्कृति की गहरी छाप रही है, इस बात से कौन इनकार करेगा ? प्रगतिशील कवि के लिए भाषा को सरल और सुबोध बनाना आवश्यक है। परन्तु रीतिकालीन और डिकेडेंट कवियों की भाषा-माधुरी से उसे बचाना होगा। इंगलैंड में ऑस्कर वाइल्ड, ओ शौनेसी, पेटर आदि इसी तरह के डिकेडेंट साहित्यिक थे। पुराने कवियों से भाव चुराकर उन्होंने भाषा और शैली में एक बनावटी मिठास पैदा कर दी थी। उनका आदर्श स्वस्थ साहित्य के लिए घातक है। ऐसे ही रीतिकालीन दरबारी कवियों का आदर्श यह रहा है कि जो कुछ वे कहें उसमें चमत्कार अवश्य हो, जिससे सुनने वाले वाह-वाह कर उठें ! जो बात कही जाय वह चाहे महत्त्वपूर्ण न हो, कहने का ढंग अनोखा होना चाहिए। इस रीतिकालीन आदर्श को साहित्य के लिए चिरन्तन मान लेना साहित्य के विकास में काँटे बिछाना है। "

 

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