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जब फोर्ट विलियम कॉलेज अस्तित्व में आया तो अकादमिक जरूरतों को पूरा करने के लिए नए ढंग से पाठ्यक्रमों के निर्माण का भी काम हाथ में लिया। अकादमिक जरूरतों को ध्यान में रखकर ही श्यामसुन्दर दास और रामचंद्र शुक्ल ने भी पाठ्यक्रम निर्माण की दिशा में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। आदिकालीन साहित्य और मध्यकालीन साहित्य के भी पाठ को शोध-संपादित कर स्थिर किया गया और बाद में पाठ्यक्रमों में जोड़ा गया। हम विद्वान लेखक आलोचक रामचंद्र शुक्ल, माता प्रसाद गुप्त, वासुदेव शरण अग्रवाल, विश्वनाथ प्रसाद मिश्र आदि को इसलिए याद करते हैं क्योंकि उन्होंने कबीर, जायसी, सूर, बिहारी, घनानंद जैसे महान कवियों के पाठ को स्थिर कर पाठकों तक पहुँचाया। जिसका हवाला आज भी दिया जाता है। पाठकों तक टेक्स्ट या ज्ञान सामग्री को पहुँचाने का एक महत्त्वपूर्ण जरिया अकादमिक जगत भी रहा है। साहित्य ही नहीं कमोवेश यह स्थिति दर्शन, मनोविज्ञान, कला, इतिहास, समाजशास्त्र, राजनीति विज्ञान आदि पर भी लागू होती है। एक नजरिए से देखें तो अकादमिक जरूरतों के लिए जो पाठ्यक्रम बनाए गए, उसकी भी एक सुदीर्घ परंपरा और इतिहास है।
यह पुस्तक भी अकादमिक जरुरतों को ध्यान में रखकर लिखी गई है। जैसे-जैसे राजनीति, समाज और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में बदलाव आ रहे हैं, पाठ्यक्रमों में भी बदलाव की जरूरत महसूस की जा रही है। या कहें पाठ्यक्रम के साथ पाठ्य-पुस्तकें भी बदल रही हैं। एथनिक ग्रुपों के उभार और अस्मिताओं के विमर्श के कारण पाठ्य-सामग्री बदली है। यह पुस्तक परंपरागत ज्ञान के स्रोतों से लेकर समकालीन विमर्शों के अध्ययन की प्रविधिगत समस्याओं पर विचार करती है। भाषा, साहित्य, संस्कृति, प्रकृति विज्ञान, इतिहास, समाज विज्ञान, दर्शन आदि की सैद्धांतिक, प्रविधिगत और आलोचनात्मक बुनियादी समस्याएँ एवं उलझनें क्या है? इनके आपसी संबंध और अलगाव के महत्त्वपूर्ण बिन्दु कौन-कौन से हैं, यहाँ इन्हीं प्रश्नों को सुलझाने की कोशिश की गई है। यह पुस्तक भाषा और उसकी संरचना की अवस्थिति को विभिन्न आयामों में खोलती है। व्यक्तिनिष्ठता और वस्तुनिष्ठता के जटिल सवालों से उलझती है। भारतीय और पश्चिमी साहित्य एवं दर्शन में 'पाठ' की सैद्धांतिकी एवं प्रविधिगत मसले को समझने-समझाने पर जोर देती है। हालांकि इस कसौटी पर पुस्तक कितना खरा उतरी है, यह तो पाठक ही तय करेंगे।
रोलां बार्थ की मानें तो हर रचना अपने पूर्ववर्तियों की ऋणी है। वह परंपरा से ग्रहण करती है। सीखती है। नकल करती है। चोरी भी। मैंने भी इस पुस्तक को तैयार करने में सामग्री उधार ली है। मैं भारतीय दर्शन के महान विचारक डा. राधाकृष्णन, प्रसिद्ध लेखक अभिजीत कुंडु , प्रमोद के. नायर, श्वेता का विशेष रूप से ऋणी हूँ। मैंने उनसे सामग्री लेकर काफी हद तक भाषांतरण की कोशिश की है। गुत्थियों को सुलझाने में मददगार साथी हरि प्रसाद एवं रीनू का भी आभारी हूँ। इस पुस्तक के योजनाकार गुरुवर सुधीश पचौरी और प्रकाशक अरुण माहेश्वरी हैं। उनके प्रति विनम्र श्रद्धा ।

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