Look Inside
Basti
Basti
share-Icon
Basti
Basti

Basti

Regular price ₹ 290
Sale price ₹ 290 Regular price ₹ 299
Unit price
Save 3%
10% off
Size guide
Icon

Pay On Delivery Available

Load-icon

Rekhta Certified

master-icon

7 Day Easy Return Policy

Basti

Basti

Cash-On-Delivery

Cash On Delivery available

Rekhta-Certified

Plus (F-Assured)

7-Days-Replacement

7 Day Replacement

Product description
Shipping & Return
Offers & Coupons
Read Sample
Product description

यह उपन्यास भारत और पाकिस्तान के सम्मिलित उर्दू कथा साहित्य में अपनी अनूठी कथा-शैली और इंसानी सरोकारों के संवेदनशील आकलन के कारण अपूर्व स्थिति रखता है। हिन्दू-मुस्लिम सांस्कृतिक मिथकों, क़िस्सों, जातक कथाओं, लोककथाओं को यथार्थपरक घटनाओं के साथ इस जादू से पिरोया गया है कि कथ्य की सम्प्रेषणीयता देश-काल को लाँघ गई है।
इस उपन्यास में भारत के विभाजन के बाद सीमा-पार के एक संवेदनशील व्यक्ति की मनःस्थिति, अपनी जड़ों से फिर से जुड़ने की अकुलाहट, अपनी सांस्कृतिक पहचान की छटपटाहट से उत्पन्न नॉस्टेल्जिया, 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान पाकिस्तान की फ़िज़ा में आम आदमी की प्रतिक्रियाएँ, बौद्धिकों की नपुंसकता, जकड़ती हुई राजनीतिक व्यवस्था की काली छाया का चित्रण बड़ी ही सहज और रोचक भाषा में किया गया है। उपन्यासकार अपने इस उपन्यास में इस भोलेपन से इंसानी नियति से जुड़े अनेक मूलभूत प्रश्न उठाता है कि निरंकुश राजनीति की काइयाँ नज़र पहचाने भी और न भी पहचाने।
सांस्कृतिक पहचान की अन्तर्यात्रा का यह उपन्यास भारतीय पाठकों को बेहद रुचेगा। Ye upanyas bharat aur pakistan ke sammilit urdu katha sahitya mein apni anuthi katha-shaili aur insani sarokaron ke sanvedanshil aaklan ke karan apurv sthiti rakhta hai. Hindu-muslim sanskritik mithkon, qisson, jatak kathaon, lokakthaon ko yatharthaprak ghatnaon ke saath is jadu se piroya gaya hai ki kathya ki sampreshniyta desh-kal ko langh gai hai. Is upanyas mein bharat ke vibhajan ke baad sima-par ke ek sanvedanshil vyakti ki manःsthiti, apni jadon se phir se judne ki akulahat, apni sanskritik pahchan ki chhataptahat se utpann nausteljiya, 1971 ke bharat-pak yuddh ke dauran pakistan ki fiza mein aam aadmi ki prtikriyayen, bauddhikon ki napunsakta, jakadti hui rajnitik vyvastha ki kali chhaya ka chitran badi hi sahaj aur rochak bhasha mein kiya gaya hai. Upanyaskar apne is upanyas mein is bholepan se insani niyati se jude anek mulbhut prashn uthata hai ki nirankush rajniti ki kaiyan nazar pahchane bhi aur na bhi pahchane.
Sanskritik pahchan ki antaryatra ka ye upanyas bhartiy pathkon ko behad ruchega.

Shipping & Return
  • Sabr– Your order is usually dispatched within 24 hours of placing the order.
  • Raftaar– We offer express delivery, typically arriving in 2-5 days. Please keep your phone reachable.
  • Sukoon– Easy returns and replacements within 7 days.
  • Dastoor– COD and shipping charges may apply to certain items.

Offers & Coupons

Use code FIRSTORDER to get 5% off your first order.


You can also Earn up to 10% Cashback with POP Coins and redeem it in your future orders.

Read Sample

जब दुनिया अभी नई-नई थी, जब आसमान ताज़ा था और ज़मीन अभी मैली नहीं
हुई थी, जब दरख़्त सदियों में साँस लेते थे और परिंदों की आवाज़ में जुग बोलते.
थे, कितना हैरान होता था वह इर्द-गिर्द को देखकर कि हर चीज़ कितनी नई थी और
कितनी पुरानी नज़र आती थी। नीलकंठ, खटबढ़िया, मोर, फ़ाख़ता, गिलहरी, तोते
जैसे सब उसके संग पैदा हुए थे, जैसे सब जुगों के भेद संग लिये फिरते हैं मोर
की झनकार लगता कि रूपनगर के जंगल से नहीं, वृंदावन से रही है खटबढ़िया
उड़ते-उड़ते ऊँचे नीम पर उतरती तो दिखाई देती कि वह मलका-सबा के महल में
ख़त छोड़ के रही है और हज़रत सुलेमान के क़िले की तरफ़ जा रही है। और
जब गिलहरी मुँडेर पर दौड़ते-दौड़ते अचानक दुम पर खड़ी होकर चक-चक करती
तो वह उसे तकने लगता और हैरत से सोचता कि उसकी पीठ पर पड़ी यह काली
धारियाँ रामचन्द्रजी की उँगलियों के निशान हैं। और हाथी तो हैरत का एक जहान
था। अपनी ड्योढ़ी में खड़े होकर जब वह उसे दूर से आता देखता तो बिलकुल ऐसा
लगता कि पहाड़ चला रहा है - यह लम्बी सूँड़, बड़े-बड़े कान पंखों की तरह
हिलते हुए, तलवार की तरह ख़म खाए हुए दो सफ़ेद-सफ़ेद दाँत, दो तरफ़ निकले
हुए। उसे देखके वह हैरान अन्दर आता और सीधा बी अम्माँ के पास पहुँचता
"बी अम्माँ, हाथी पहले उड़ा करते थे ? "
'अरे तेरा दिमाग़ तो नहीं चल गया है !"
'भगतजी कह रहे थे "
अरे उस भगत की अक़्ल पे तो पत्थर पड़ गए हैं। लो भला लहीम-शहीम
जानवर हवा में कैसे उड़ेगा ?"
"बी अम्माँ, हाथी पैदा कैसे हुआ था ?"
'कैसे पैदा होता ! मैया ने जना, पैदा हो गया।"
"नहीं बी अम्माँ, हाथी अंडे से निकला है।"
अरे तेरी अक़्ल चरने तो नहीं गई है ?"
भगतजी कह रहे थे "
" क़िस्मत-मारे भगत की तो मत मारी गई है। इतना बड़ा जानवर, हाथी


उसने
स्नान किया और आईना देखा, और उस पर यह रहस्य खुला कि उसके सिर
के बाल घर से निकलते वक़्त सारे काले थे, अब सारे सफ़ेद हो चुके हैं। यह इस
देश में उसका पहला दिन था और मेरा पहला दिन ? बीते दिन उसकी कल्पना में
भीड़ करते चले गए। मगर मुझे तो इस देश में अपने पहले दिन की तलाश हैं। वह
भीड़ को चीरता - फाड़ता, भीड़ लगाते दिनों को धकेलता बढ़े चला गया। मेरा पहला
दिन कहाँ है? वह भीड़ को चीरता चला जा रहा था कि धुँधली - धुँधली याद की
सूरत एक दिन उसके सामने खड़ी हुई अनारकली बाज़ार कुछ खुला, कुछ
बन्द। जहाँ-तहाँ कोई दुकान खुली हुई, बाक़ियों में ताले पड़े हुए। भीड़ बहुत,
खरीदार ग़ायब। वह वहाँ से निकलकर बड़ी सड़क पर आया माल रोड, ताँगे,
साइकिलें, कोई-कोई कार, अलग-अलग दूर से गुज़रती हुई इक्का-दुक्का बस।
एक लम्बा आदमी, चौड़ी - चकली काठी, सिर पर तुर्रे वाली पगड़ी, टाँगों में बड़े
घेरवाली शलवार, लम्बे डंग भरता उसके बराबर से गुज़रा। उसने हैरत से उसे देखा।
फिर कितने ही इस क़द-काठ वाले ऐसा लिबास पहने अपने आसपास चलते-फिरते
नज़र आए। यह शक्लें उसके लिए नई थीं। उसके लिए सारा वातावरण ही नया था।
चलते हुए लग रहा था कि वह किसी नई ज़मीन पर चल रहा है। उसे इस नई ज़मीन
पर चलने में कितना मज़ा रहा था। एक सड़क से दूसरी सड़क पर, दूसरी से
तीसरी सड़क पर जाने वह कितनी देर चलता रहा, मगर ज़रा भी थका हो! कितने
ज़माने बाद वह आज़ाद होकर चल रहा था, इस आशंका के बग़ैर कि अभी कोई
बराबर से गुज़रते-गुज़रते छुरा उसके अन्दर उतार देगा
'साहिबज़ादे ! सारे दिन कहाँ रहे ?"
'हकीमजी, पाकिस्तान देख रहा था "
'अब और क्या देखना रहा है, पाकिस्तान ही को देखना है इतनी जल्दी क्या
है? दोपहर को आकर कम-अज़-कम ख़ाना तो खा लिया होता "
साफ़-सुथरा फिर हकीम जी अब्बाजान से बातों में व्यस्त हो गए। उसने खाना खाया और
उस कमरे में जाकर लेट रहा, जहाँ उसे सोना था। उसने कमरे का जायज़ा लिया।
और ख़ूब खुला कमरा था और कितना-कितना रोशन था। चार कोनों
में चार बल्ब लगे हुए थे। यहाँ पहले कौन रहता होगा, यूँ ही उसे ख़याल आया। इसी
के साथ उसे अपने कमरे का ख़याल आया, बदरंग दीवारों वाला छोटा-सा कमरा
जिसमें एक चारपाई थी, किताबों से भरी एक मेज़, किताबों के बीच में रखा हुआ
एक लैम्प जिसकी धीमी रोशनी में वह रात गए तक पढ़ा करता था। मेरा कमरा आज
की रात ख़ाली पड़ा होगा। इस बड़े और रोशन कमरे में लेटे हुए उसे वह अपना छोड़ा
हुआ ख़स्ता-हाल कमरा बहुत याद आया आँखों में उतरी नींद गायब हो गई। देर

 

 

Customer Reviews

Be the first to write a review
0%
(0)
0%
(0)
0%
(0)
0%
(0)
0%
(0)

Related Products

Recently Viewed Products