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Bahadur Shah Zafar Aur Phool Walon Ki Sair
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About the Book: फूल वालों की सैर दिल्ली वालों के बीच हमेशा से लोकप्रिय रही है। अकबर शाह सानी के ज़माने में शुरू हुई ये सैर सांस्कृतिक एकता का परिचायक है। इस किताब में बहादुरशाह ज़फ़र के ज़माने की फूल वालों की सैर का नक़्शा खींचा गया है। इस के लेखक मिर्ज़ा फ़रहतउल्लाह बेग हैं, मूल रूप से उर्दू की इस किताब का हिंदी लिप्यंतरण ज़ुबैर सैफ़ी ने किया है।

About the Author: "मिर्ज़ा फ़रहतउल्लाह बेग उर्दू के जाने-माने व्यंग्यकार थे। उनक जन्म सन् 1883 में दिल्ली में हुआ था। उनके पिता का नाम हशमत बेग था। उन्होंने शुरुआती शिक्षा-दीक्षा गर्वनमेंट हाई स्कूल दिल्ली में हासिल की। बी. ए. की डिग्री हासिल करने के बाद वे हैदराबाद में नौकरी करने लगे। वहाँ पर वे न्यायपालिका में अलग-अलग पदों पर रहे। अंत में होम सेक्रेटरी होकर सेवानिवृत्त हुए और पेंशन पाई। हैदराबाद के साहित्यिक माहौल ने मिर्ज़ा की साहित्यिक दृष्टि को ख़ूब निखारा और वो उच्च स्तर के व्यंग्यकार बने। फ़रहतउल्लाह बेग का सबसे पहला व्यंग्य आलेख 'इस्मत बेग' के छद्म नाम से रिसाले 'इफ़ादा' में छपा। उस आलेख का शीर्षक 'हम और हमारा इम्तिहान' था। 27 अप्रैल सन् 1947 को उनकी मृत्यु हो गई। 1993 में गुलावठी (बुलंदशहर) में जन्मे ज़ुबैर सैफ़ी नई पीढ़ी के कवि और गंभीर अध्येता हैं। उनकी कविताएँ सदानीरा, हिंदवी और अन्य पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। वर्तमान में वे रेख़्ता फ़ाउंडेशन के उपक्रम सूफ़ीनामा से सम्बद्ध हैं।"

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दीबाचा

 

दिल्ली में फूल वालों की है एक सैर 'दाग'

बदले में हम ने देख ली सारे जहाँ की सैर

दाग देहलवी

 

दिल्ली को हिंदुस्तान का दिल कहते हैं और इसी दिल्ली में  हिंदुस्तान धड़कता है।

दिल्ली, जो राजधानी भी है और रूप-रानी  भी। मेरी निगाह में दिल्ली से खूबसूरत

और दिलकश शहर कोईनहीं। हाँ! आलम--अरवाह का कोई शहर हो, तो हो।

ये मीर की दिल्ली है, ग़ालिब की दिल्ली है और इसी दिल्ली में शाह वलीउल्लाह के

पायताने हकीम मोमिन ख़ाँ मोमिन भी हैं। यहीं निजामुद्दीन औलिया भी हैं और ख़्वाजा

कुतुब भी इसी दिल्ली में मीर दर्द रहे और जौक़ भी इसी दिल्ली में रहीम हैं, तो खुसरौ

भी हैं। इसी दिल्ली की सड़कें हैं, जहाँ दिल खिंच जाते हैं और जेब कट जाती है।

इसी दिल्ली की आब--हवा का असर है कि सरमद कह उठता है-

 

"ये जमीन मिरा बिस्तर है और आसमान मिरा लिबास”

 

इसी दिल्ली में सैकड़ों शाइर--अदीब रोजी-रोटी के लिए दिन भर की-बोर्ड
खटखटाते हैं, मगर मजाल है कि दिल्ली उनसे छूट जाए। वो दुनिया के किसी
कोने में भी चले जाएँ, तब भी दिल्ली दिल में किसी फॉस की तरह गड़ी रह जाती
है। इसी फाँस को यहीं के एक शाइर ने यूँ कह पुकारा था- 

ये खलिश कहाँ से होती, जो जिगर के पार होता.....
दिल्ली ने  जाने कितनी सल्तनत बनते देख, बिगड़ते देखीं। दिल्ली किसी ब्रह्मराक्षस
के जीवन की तरह किलोमीटर दर किलोमीटर फैलती चली गई, पुरानी से नई दिल्ली
हो गई।
ये वही दिल्ली है, जिसके मिजाज में आला दर्जे की निस्वानियत है। दिल्ली वो
हसीन--जमील लड़की है, जो अपनी आशिक़ का चुनाव करना जानती है। ये जिसे
अपने आशिक़ के तौर पर चुन ले, तो उससे ता-उम्र वफ़ा करती है। अगर किसी को ये
चुनना ना चाहे, तो वो चाहे सातों आसमाँ लाकर इसके पैरों में रख दे या फिर इसकी चौखट
पर सर फोड़कर मर जाए, इसे कोई फर्क नहीं पड़ता। ये जिसे चाहे, उसे अपने सीने से लगा
ले और जिसे चाहे सीने से लगाकर इस जोर से भींचे कि पसलियाँ चटखा दे। जिस पर निगाह
करनी चाहे, तो उसके नसीब में बस जिंदगी को ख़राब करना ठहरा। दिल्ली के मिजाज में, जितनी
नफासत और शाहाना अंदाज है, उतना ही गुरूर भी तसव्वुर करें, तो शहरों की भीड़ में ये शाही तख्त
पर बैठी हुईएक रोबदार औरत है। ये वही दिल्ली है, जिस ने जाने कितने शहंशाहों का गुरूर तोड़ा और
जहाँ से बहादुर शाह जफर जैसे अवाम के चहीते

बहादुर शाह ज़फ़र और फूल वालों की सैर
मिर्ज़ा फ़रहतुल्लाह बेग
शेख सादी ने खूब कहा है
 रईयत चू बीख़स्त--सुल्ताँ दरख़्त
दरख्त पिसर बाशद अज बीख़ सख़्त
 (अवाम एक जड़ की तरह है और बादशाह दरख़्त की मानिन्द 
बेटे! हमेशा याद रखना कि दरख्त बीज से सख़्त होता है।
 ये जड़ों ही की मजबूती थी कि दिल्ली का सर सब्ज  शादाब चमन, अगरचे
हवादिस--जमाना के हाथों पामाल हो चुका था और हलाकत की बिजलियों
बाद--मुखालिफ के झोंकों से सल्तनत--मुगलिया की शौकत इक्तिदार के
बड़े बड़े टहने टूट-टूट कर गिर रहे थे। फिर भी किसी बड़ी से बड़ी ताक़त की
हिम्मत होती थी कि उस बरा--नाम बादशाह को तख़्त से उतार कर दिल्ली को
अपनी सल्तनत में शरीक कर ले। मरहट्टों का जोर हुआ, पठानों का जोर हुआ। जाटों
का जोर हुआ, अंग्रेजों का जोर हुआ, मगर दिल्ली का बादशाह दिल्ली का बादशाह ही
रहा और जब तक दिल्ली बिलकुल तबाह हुई, उस वक़्त तक कोई कोई तख्त पर बैठने
वाला निकलता ही रहा।


 


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