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Awadh Ki Tharu Janjati : Sanskar Evam Kala

Deepa Singh Raghuvanshi

Rs. 1,495 Rs. 1,390

'आदिवासी थारू जनजाति' भारत-नेपाल सीमा के दोनों तरफ़ तराई क्षेत्र में घने जंगलों के बीच निवास करती है जो कि भारत की प्रमुख जनजातियों में से उत्तर भारत की एक प्रमुख जनजाति है। उत्तर प्रदेश के अवध क्षेत्र के तीन ज़िलों लखीमपुर खीरी, बहराइच व गोण्डा में थारू जनजाति निवास... Read More

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Description
'आदिवासी थारू जनजाति' भारत-नेपाल सीमा के दोनों तरफ़ तराई क्षेत्र में घने जंगलों के बीच निवास करती है जो कि भारत की प्रमुख जनजातियों में से उत्तर भारत की एक प्रमुख जनजाति है। उत्तर प्रदेश के अवध क्षेत्र के तीन ज़िलों लखीमपुर खीरी, बहराइच व गोण्डा में थारू जनजाति निवास करती है। जहाँ अवध क्षेत्र मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम जी का जन्म स्थान पावन धाम प्राचीन धार्मिक धर्म नगरी है और मेरा परम सौभाग्य है कि मेरा जन्म अवध के अयोध्या में हुआ है। वहीं अवध क्षेत्र की एक विशेषता रही है। थारू जनजाति का आवासित होना उनकी समृद्धि, संस्कृति व लोक परम्परा से युक्त उनका इतिहास गौरवशाली होना इनकी कला और संस्कृति का हमारी लोक संस्कृति के साथ घनिष्ठ सम्पर्क है। थारू जनजाति की सभ्यता, संस्कृति, संस्कार, लोक कला अपने आप में लालित्यपूर्ण विधा है। इसका प्राचीन इतिहास से लेकर आधुनिक इतिहास तक विस्तार है लेकिन कतिपय कारणों से यह अभी तक समृद्ध कला प्रकाश में नहीं आयी है। इनकी संस्कृति, सभ्यता अभी तक पूरे अवध और उसके बाहर भी प्रकाश में नहीं आयी है और ना ही प्रचार-प्रसार हुआ है। मेरा लक्ष्य है कि थारू जनजाति की लोक कला संस्कृति और लोक जीवन पद्धति जो कि हमारे अवध का एक गौरवशाली अंग है, इस पुस्तक के माध्यम से जन सामान्य में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। थारू जनजाति एक जनजाति ही नहीं एक लोक परम्परा है, इसको एक जाति के रूप में जब हम देखते हैं, तो पाते हैं कि इन्होंने हमारी एक विरासत को सँभाल कर रखा है जो अभी तक बची हुई और सुरक्षित है। इस संस्कृति, कला और परम्परा को नयी पीढ़ी तक पहुँचाने, सुरक्षित रखने के उद्देश्य से यह सर्वेक्षण का कार्य किया गया है। थारू जनजाति राणा, कठरिया, चौधरी तीन जनजातियों में बँटी है। थारू जनजाति के लोग अवध की संस्कृति को अपनाते हुए राजस्थान के राजपूत राजा महाराणा प्रताप सिंह का वंशज मानते हैं। थारू हिन्दू धर्म को मानते हैं व हिन्दू धर्म के सभी त्योहारों को परम्परागत ढंग से मनाते हैं। यह लोग रीति-रिवाज, पहनावा, लोक नृत्य, गायन, परम्परागत ढंग से करते हैं। ये अपने सभी त्योहार मिलकर गाँव के सभी लोग एकत्रित होकर समवेत नृत्य व गायन के साथ मनाते हैं। थारू जनजाति लोक कला व हस्तशिल्प में बहुत पारंगत है-यह लोग टोकरी बुनना, रस्सी बुनना, डलिया बुनना, चटाई बुनना, कम्बल, बैग, दरी, लहंगा, ओढ़नी आदि परम्परागत ढंग से बनाते हैं। थारू जनजाति के लोगों का प्रमुख व्यवसाय कृषि, पशुपालन, मछली मारना है। सर्वप्रथम मैं इस शोध सर्वेक्षण हेतु भगवान तुल्य, प्रत्यक्ष रूप से विद्यमान मेरे पिताजी श्री परमानन्द दास व माता श्रीमती उषा देवी जी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करती हूँ कि उन्होंने सदैव शुभ आशीष, साहस, प्रेरणा व दिशा प्रदान की। यह कार्य आपके मार्गदर्शन से ही सम्भव हो पाया है। आप सभी सहयोगी मित्रगण के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करती हूँ। आप सभी के निरन्तर सहयोग, प्रेरणा, उत्साह, सहृदयता का सम्बल मिलता रहा जो इस शोध सर्वेक्षण कार्य को पूरा करने का कारण बना। मैं आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ। मैं आशा करती हूँ 'अवध की थारू जनजाति : संस्कार एवं कला' अवध के सभी जन के साथ भारतीय संस्कृति के लिए उपयोगी सिद्ध होगी।

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Awadh Ki Tharu Janjati : Sanskar Evam Kala

'आदिवासी थारू जनजाति' भारत-नेपाल सीमा के दोनों तरफ़ तराई क्षेत्र में घने जंगलों के बीच निवास करती है जो कि भारत की प्रमुख जनजातियों में से उत्तर भारत की एक प्रमुख जनजाति है। उत्तर प्रदेश के अवध क्षेत्र के तीन ज़िलों लखीमपुर खीरी, बहराइच व गोण्डा में थारू जनजाति निवास करती है। जहाँ अवध क्षेत्र मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम जी का जन्म स्थान पावन धाम प्राचीन धार्मिक धर्म नगरी है और मेरा परम सौभाग्य है कि मेरा जन्म अवध के अयोध्या में हुआ है। वहीं अवध क्षेत्र की एक विशेषता रही है। थारू जनजाति का आवासित होना उनकी समृद्धि, संस्कृति व लोक परम्परा से युक्त उनका इतिहास गौरवशाली होना इनकी कला और संस्कृति का हमारी लोक संस्कृति के साथ घनिष्ठ सम्पर्क है। थारू जनजाति की सभ्यता, संस्कृति, संस्कार, लोक कला अपने आप में लालित्यपूर्ण विधा है। इसका प्राचीन इतिहास से लेकर आधुनिक इतिहास तक विस्तार है लेकिन कतिपय कारणों से यह अभी तक समृद्ध कला प्रकाश में नहीं आयी है। इनकी संस्कृति, सभ्यता अभी तक पूरे अवध और उसके बाहर भी प्रकाश में नहीं आयी है और ना ही प्रचार-प्रसार हुआ है। मेरा लक्ष्य है कि थारू जनजाति की लोक कला संस्कृति और लोक जीवन पद्धति जो कि हमारे अवध का एक गौरवशाली अंग है, इस पुस्तक के माध्यम से जन सामान्य में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। थारू जनजाति एक जनजाति ही नहीं एक लोक परम्परा है, इसको एक जाति के रूप में जब हम देखते हैं, तो पाते हैं कि इन्होंने हमारी एक विरासत को सँभाल कर रखा है जो अभी तक बची हुई और सुरक्षित है। इस संस्कृति, कला और परम्परा को नयी पीढ़ी तक पहुँचाने, सुरक्षित रखने के उद्देश्य से यह सर्वेक्षण का कार्य किया गया है। थारू जनजाति राणा, कठरिया, चौधरी तीन जनजातियों में बँटी है। थारू जनजाति के लोग अवध की संस्कृति को अपनाते हुए राजस्थान के राजपूत राजा महाराणा प्रताप सिंह का वंशज मानते हैं। थारू हिन्दू धर्म को मानते हैं व हिन्दू धर्म के सभी त्योहारों को परम्परागत ढंग से मनाते हैं। यह लोग रीति-रिवाज, पहनावा, लोक नृत्य, गायन, परम्परागत ढंग से करते हैं। ये अपने सभी त्योहार मिलकर गाँव के सभी लोग एकत्रित होकर समवेत नृत्य व गायन के साथ मनाते हैं। थारू जनजाति लोक कला व हस्तशिल्प में बहुत पारंगत है-यह लोग टोकरी बुनना, रस्सी बुनना, डलिया बुनना, चटाई बुनना, कम्बल, बैग, दरी, लहंगा, ओढ़नी आदि परम्परागत ढंग से बनाते हैं। थारू जनजाति के लोगों का प्रमुख व्यवसाय कृषि, पशुपालन, मछली मारना है। सर्वप्रथम मैं इस शोध सर्वेक्षण हेतु भगवान तुल्य, प्रत्यक्ष रूप से विद्यमान मेरे पिताजी श्री परमानन्द दास व माता श्रीमती उषा देवी जी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करती हूँ कि उन्होंने सदैव शुभ आशीष, साहस, प्रेरणा व दिशा प्रदान की। यह कार्य आपके मार्गदर्शन से ही सम्भव हो पाया है। आप सभी सहयोगी मित्रगण के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करती हूँ। आप सभी के निरन्तर सहयोग, प्रेरणा, उत्साह, सहृदयता का सम्बल मिलता रहा जो इस शोध सर्वेक्षण कार्य को पूरा करने का कारण बना। मैं आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ। मैं आशा करती हूँ 'अवध की थारू जनजाति : संस्कार एवं कला' अवध के सभी जन के साथ भारतीय संस्कृति के लिए उपयोगी सिद्ध होगी।