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आज़ादी के बाद हिन्दी कविता को जिन कवियों ने अपनी राह चलते एक ख़ास शैली में समृद्ध करने का काम किया, उनमें एक नाम विनोद कुमार शुक्ल का है। अपने कथ्य लिए जैसी भाषा, शिल्प और दृष्टि ईजाद की है इस कवि ने, वह अन्यत्र दुर्लभ है।

अतिरिक्त नहीं विनोद कुमार शुक्ल का इस जगत् से जो कुछ भी सम्बद्ध, उसकी कविताओं का संग्रह है, उसके अतिरिक्त नहीं। इसलिए इसमें जो लोक है, वह इस तरह जिया हुआ कि व्यक्त में अव्यक्त कुछ नहीं रह जाता, कुछ अगर रह भी जाता है तो वह वेदना के तल पर हमारे भीतर बहुत देर तक ठहरा रहता है- 'हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था / व्यक्ति को मैं नहीं जानता था / हताशा को जानता था'; या इस तरह कि 'तन्दूर में बनती हुई रोटी / सबके हिस्से की बनती हुई रोटी नहीं है।'

विनोद कुमार शुक्ल शब्दों से खेलने वाले नहीं, उससे आगाह करने वाले कवि हैं, और ऐसा वे इसलिए कर पाते हैं कि घटनाओं को दूर से नहीं, बहुत क़रीब से देखते गुज़रते हैं, तभी कह भी पाते हैं - 'किसी को काम नहीं मिला के आखिर में हत्या करने का उनको काम मिला।' और यह कैसी विडम्बना है कि जो कवि कहता है- 'कभी धर्म और जाति के / राजनैतिक, अराजनैतिक जुलूस से दबकर / धर्मविहीन, जातिविहीन चीख चीखता हूँ', वही जब भविष्य- सी मरी हुई एक छोटी-सी लड़की को पीछे के दरवाज़े से घर से बचाकर बाहर निकालते हुए देखता है तो कहता है कि ऐसे में 'मेरी चीख़ अवाक् होती है' । छीजते काल का यह भार एक कवि का निजी नहीं, बल्कि एक पूरे युग का है जो उसे बेध रहा। लेकिन कवि इस युग में जो भी उथल-पुथल, उसे गहरे जान रहा है और जब गहरे जान रहा तो तमाम आशंकाओं के बीच बहुत देर तक अवाक् नहीं रह सकता, क्योंकि अगर ऐसा करता है तो उसकी मनुष्यता चुक जायेगी। इसलिए वह जिस व्यवस्था में सुदूर जंगल को उजड़ते और आदिवासियों को छाया और भूख के घेरे में बेहोश पड़े देखता है, तब जब बहुतेरे आधुनिकता की तेज़ गति में शामिल, पूछता है ‘कौन डॉक्टर को बुलायेगा / .... प्राथमिक उपचार क्या होगा/ बेहोशी में लगेगा कि अभी सोया हुआ है और उसे सोने दिया जाये बेहोशी में मर जाये तो / कैसे पता चलेगा कि मर गया।' यह सिर्फ़ एक बेचैनी नहीं, तीक्ष्ण मारकता भी है, जो विचलित कर देती है।

विनोद कुमार शुक्ल के पास जो उम्मीद है, वह जीवन और उसके विस्थापित होने को लेकर अपनी गहन सोच में एक अलग ही दृश्य रचती है- 'कि सब जगह हो सब जगह के पास / और अकाल, आतंक, दुकाल में अबकी साल / गाँव से एक भी विस्थापित न हो।' और मुक्ति की जब बानगी रचते हैं तो कैनवस पर क्या रंग बिखरते हैं- 'शब्दहीनता में किसी भी कविता के पहले मैं मुक्ति को /मुक्तियों में दुहराता हूँ ध्वनिशः / जो झुण्ड में उड़ जाता है।' और यही कारण है कि कवि यह मानता है- 'सबके हिस्से का आकाश/पूरा आकाश है।' इसलिए- 'कितना बहुत है/ परन्तु अतिरिक्त एक भी नहीं।'

कुल मिलाकर अगर इस संग्रह की वनलाइन को डिफाइन करें तो विनोद कुमार शुक्ल का यह संग्रह अतिरिक्त नहीं एक ऐसे कालयात्री का संग्रह है जिसकी कविताएँ अपने यथार्थ से निरन्तर इस बोध के साथ टकराती रहती हैं कि हम कम-से-कम मनुष्य बने रह सकें, न केवल मनुष्यों के लिए बल्कि इस पूरे जगत् के लिए जिसकी सम्बद्धता से परे कुछ नहीं-न शेष न अवशेष !

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