Antravanshi
Item Weight | 400GM |
ISBN | 978-8170557050 |
Author | Usha Priyamvada |
Language | Hindi |
Publisher | Vani Prakashan |
Pages | 252 |
Book Type | Hardbound |
Dimensions | 5.30"x8.50" |
Publishing year | 2018 |
Edition | 3rd |

Antravanshi
उषा प्रियंवदा का यह उपन्यास उन तमाम भारतीय परिवारों की जीवन-शैली का विश्लेषण करता है जो बेहतर अवसरों की तलाश और आशा में प्रवासी हो जाते हैं। विदेश में बसे युवकों से मध्यवर्गीय परिवारों की कन्याओं का विवाह सौभाग्य समझा जाता है और फिर शुरू होता है संघर्ष और मोहभंग का अटूट सिलसिला ।
ऐसी ही है अन्तर्वंशी की नायिका बनारस की 'वनश्री' या 'बाँसुरी' जो अमरीका पहुँचकर 'वाना' हो जाती है- एक ऐसे समाज के बीच जहाँ सभी लोग “एक होड़ में, एक पागल दौड़ में रत हैं।" औरों की उपलब्धियों और लाचारियों के बीच कशमकश में पड़ी जैसे-तैसे गृहस्थी की गाड़ी खींचती 'वाना'। पति की असमर्थताओं का दमघोंट एहसास उसे क्रमशः उसके प्रति संवेदनहीन बना देता है, जिसकी परिणति होती है सम्बन्धों के ठण्डेपन में । पर उसके चारों ओर एक दुनिया और भी है जिसमें 'अंजी' है, 'राहुल' है, 'सुबोध' है । सब एक-दूसरे से भिन्न, अपने-अपने रास्तों को तलाशते हुए। सभी 'राहुल' की तरह सफलता की सीढ़ियाँ नहीं चढ़ पाते और न ही 'शिवेश' की तरह टकराकर लहूलुहान होते हुए कारुणिक अन्त को प्राप्त होते हैं-सवाल है अपनी-अपनी क्षमता और अपनी-अपनी नियति का ।
अमेरिकावासी इन पात्रों और परिवारों की ज़िन्दगी को, उनके आपसी सम्बन्धों और संघर्षों के गहरी अन्तर्दृष्टि और पर्यवेक्षण-सामर्थ्य से उद्घाटित करता है यह उपन्यास । अनुभव की प्रामाणिकता और गहन संवेदनीयता से युक्त रचनाओं की शृंखला में एक और महत्त्वपूर्ण कड़ी।
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