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Andekhe Anjaan Pul
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भूरे लोगों के इस भारतीय समाज में स्त्री को कई अपमानजनक परीक्षाओं से गुज़रना पड़ता है। विवाह की पहली शर्त है–उसका गोरा होना। लड़की यदि काली, कुरूप हुई तो अस्वीकार का कोड़ा लहराने लगता है। क्या काली लड़की को सपने देखने का हक़ नहीं है? इस उपन्यास की नायिका निन्नी कालापन और कुरूपता के बावजूद सपनों में निकट के सागर को देखती है, लेकिन निन्नी के छूते ही सपने में बनी बर्फ़ की मूर्ति गल जाती है। जबकि दूर का और लगभग अनजाने दर्शन द्वारा समानता और स्नेह से दिया गया चुम्बन एक पुल बन जाता है। प्रख्यात कथाकार का यह उपन्यास स्त्री-जीवन को समानता की गरिमा देने पर बल देता है। Bhure logon ke is bhartiy samaj mein stri ko kai apmanajnak parikshaon se guzarna padta hai. Vivah ki pahli shart hai–uska gora hona. Ladki yadi kali, kurup hui to asvikar ka koda lahrane lagta hai. Kya kali ladki ko sapne dekhne ka haq nahin hai? is upanyas ki nayika ninni kalapan aur kurupta ke bavjud sapnon mein nikat ke sagar ko dekhti hai, lekin ninni ke chhute hi sapne mein bani barf ki murti gal jati hai. Jabaki dur ka aur lagbhag anjane darshan dvara samanta aur sneh se diya gaya chumban ek pul ban jata hai. Prakhyat kathakar ka ye upanyas stri-jivan ko samanta ki garima dene par bal deta hai.

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अब फिर से वही नुमायश होगी ! भीतर एक भय है, जो उलटे पड़े तिलचट्टे
की तरह हाथ-पाँव मारता रहता है लेकिन नहीं, भीतर एक सपना है, जो
मकड़ी के तने जाले की तरह फैला है और हर हवा से लहराने लगता है, कि
मीलों फैली वही नुमायश है; रंग-बिरंगे स्टॉलों को घेरती, गोल-गोल घूमती
बच्चों के खिलौनों जैसी एक रेलगाड़ी है और उसमें हम बैठे हैं और वह
सर्पाकार सीढ़ियों की तरह घूमती हुई ऊपर उठती चली जाती है· · · और
ऊपर से देखने पर नीचे की अगणित-असंख्य बत्तियाँ घनी क्यारियों में खिल
आये फूलों जैसी लगती हैं।
दिल्ली के स्टेशन पर जब निन्नी उतरी तो वह तिलचट्टा सीधा था और
लम्बी-लम्बी सूँड़ें हिलाकर आने वाले खतरे को सूँघ रहा था मकड़ी ने उस
वक्त तक जाला नहीं बनाया था और सच पूछो, तो निन्नी को पता भी नहीं
था कि मकड़ी यहाँ जाला बनाने लगेगी। पीछे किले जैसा स्टेशन और सामने
मोटर - ताँगों-रिक्शों की भीड़, एक खद- बद- खद-बद करता हुआ सागर !
सब कुछ कितना नया, कितना अकल्पनीय ! निन्नी चकित- उच्छ्वसित भी थी और
उसे ऐसा भी लग रहा था कि इसमें तो कुछ भी नया और विशेष नहीं है
उसे इसलिए ऐसा नहीं लग रहा था कि वह दिल्ली के बारे में बहुत पढ़ या
सुन चुकी थी, बल्कि उसकी प्रकृति ही कुछ ऐसी हो गई थी कि उसे कुछ
भी अप्रत्याशित नहीं लगता था - कोई भी घटना, कोई भी व्यक्ति, कोई भी
बात या स्थान उसके भीतर के उस तिलचट्टे ने उसे इतना अधिक
आत्म-सजग और चौकन्ना बना दिया था कि वह हमेशा ही किसी अनहोनी,
अशोभन की प्रत्याशा ही करती रहती और कोई भी बात उसे मूलत:
आश्चर्यजनक नहीं लगती, क्योंकि वह हर शॉकिंग बात के लिए तैयार रहती

फिर अचानक निन्नी ने अपने को एक ऐसी प्रतिद्वन्द्विता में खड़े पाया, जिसमें
वह अपने विरोधी की शक्ल-सूरत, व्यक्तित्व किसी से भी परिचित नहीं
थी-बस, यह जानती थी कि जैसे भी हो यह लड़ाई जीतनी है ..
लौटते ही उसने दर्शन को कृतज्ञता से भरा एक छोटा-सा ख़त लिखा,
सचमुच, दिल्ली के वे दिन मुझे हमेशा याद रहेंगे। जवाब में दर्शन का
पत्र आया। उसमें उलटी कृतज्ञता प्रकट की गई थी, आप लोग मेरे यहाँ
आकर ठहरे, यहाँ सुख-सुविधाएँ तो खैर क्या थीं परेशानियाँ ही परेशानियाँ
तो थीं· · · फिर अन्त में लिखा था, तुम मेरी पोर्ट्रेट वाली बात को इतना
ग़लत समझोगी, इसकी मुझे तुमसे उम्मीद नहीं थी। सारे दिन हम लोगों के
बीच जो मैत्री और आत्मीयतापूर्ण निकटता गई थी, उसी के आधार पर
मैंने ऐसी इच्छा प्रकट की थी- उसके पीछे क़तई कोई और मतलब नहीं था
मुझे सपने में भी ख़याल नहीं था कि बात तुम्हें इस हद तक दुखी कर देगी।
मैं माफी माँगता हूँ· · · माफ़ कर दोगी ?
निन्नी ने जवाब दिया, माफी मुझे माँगनी चाहिए। सचमुच उस दिन
बड़ी बदतमीजी हो गई पता नहीं, मुझे कभी-कभी क्या हो जाता है !
कभी-कभी भान ही नहीं रहता, किससे क्या कह रही हूँ और अपने बहुत
निकट व्यक्तियों को अकारण नाराज़ कर लेती हूँ ! लेकिन इससे खुद मुझे
दुःख कम होता हो, ऐसा नहीं है। उस दिन बहुत घूमने या उलटा-सीधा
खाने-पीने से ऐसा हो गया था। उस समय तो आपके साथ बातों में, नुमायश
में पता नहीं चला, लेकिन रात ठीक से नींद नहीं आई सच पूछो तो
आपके साथ के वे दिन ही पता नहीं चले।"
दर्शन ने लिखा, यह बात तो मुझे कहनी चाहिए थी उस अनजान
लोगों के शहर में, जहाँ बातचीत, आचार-व्यवहार, हर चीज़ से आदमी पराया

और अब निन्नी को फिर लगने लगा कि वह सब एक मधुर झूठ
था उसे कोई ऐसा तालाब नहीं मिलेगा, जो धोकर निर्मल कर दे - निष्पाप
कर दे पाप उसका प्रारब्ध है और पाप ही उसकी नियति है''' निश्चय ही
ये सारे पूर्वजन्म के कर्म हैं कि उसे कोई सुख नहीं मिल पाता और उसके
भीतर जन्म लेने वाला आलोक भीतर ही भीतर मर जाता है-मूलत: वह अभागी,
अनाथ और मनहूस है और भगवान जिसे जो सज़ा देता है, वह भुगतनी ही
पड़ती है - वह किसी चीज़ के बदले में कुछ नहीं देता - वह कहीं क्षति-पूर्ति
नहीं करता ! क्यों नहीं वह उस तथ्य को स्वीकार कर लेती और क्यों बार-बार
अपने को ग़लतफहमी में रखकर बाद में दुःख पाती है ? देखने में कुरूप, मन
से पापिन, बुद्धि से अस्थिर - उसका आखिर उपयोग और आवश्यकता क्या
है ?
इन प्रश्नों के उत्तर से अपने मन को शान्त रखने के लिए धीरे-धीरे
उसकी प्रवृत्ति पूजा-पाठ की ओर बढ़ने लगी। अक्सर वह आँखें बन्द करके
मन्दिर और भगवान का ध्यान करती, तो आँखों में आँसू भर आते, बाद में
मन में हलकापन महसूस होता। पहले वह परियों से, दैवी शक्तियों से,
शिव-पार्वती से 'रूप' माँगने जाती थी, दया माँगने जाती थी; अब किसी से
कुछ भी नहींकुछ भी नहीं माँगती। अब तो वह साँवरी थी, मीरा;
शबरी थी, अहिल्या; बस दुखी, हताश, थकी-माँदी, टूटी-फूटी आत्मा थी,
जो शान्ति' माँगती थी भक्तों की शब्दावली में भगवान के चरणों में शरण
चाहती थी मन-ही-मन कहती, 'तुम्हारे संसार को बहुत देखा बहुत जिया-
यह सब माया है, दिखावा और धोखा है मेरा जी भर गया है। यहाँ मुझ
अभागी के लिए कोई जगह भी नहीं है। मुझे उठा लो भगवान !
अपनी पात्रता से अधिक चाहा और तुमने उसका मुझे भरपूर दंड दिया '

 


 

 

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