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Ajneya Ke Samajik-Sanskritik Sarokar
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सप्रसिद्ध आलोचक प्रो. कृष्णदत्त पालीवाल की नई पुस्तक के आलोचनात्मक निबंधों में अज्ञेय के रचनाकर्म को लेकर हिंदी आलोचना में हुई तमाम साहित्यिक, गैर-साहित्यिक बहसों और साहित्य की, राजनीति की चर्चा करते हुए उस पर तर्कसंगत प्रश्न उठाए गए हैं। अज्ञेय के साहित्यिक-सांस्कृतिक अवदान को उद्घाटित करते हुए स्थापित किया गया है कि अज्ञेय के सृजन-चिंतन से किस तरह हिंदी आलोचना में बहसों की शुरुआत हुई तथा समकालीन साहित्य-संवेदना और साहित्यिक परंपरा के अध्ययन-मूल्यांकन की नई आलोचना-संस्कृति का विकास हुआ।अज्ञेय के निबंधों, भूमिकाओं, स्मरण-लेखों, यात्रा-साहित्य तथा उनके द्वारा आयोजित व्याख्यानमालाओं और यात्रा शिविरों में लेखकों, विद्वानों, कला-मर्मज्ञों के व्याख्यानों का अंतर्पाठ करते हुए इस पुस्तक में दिखाया गया है कि किस प्रकार उन्होंने भारतीय समाज, हिंदी भाषा, साहित्य और संस्कृति को औपनिवेशिक आधुनिकता से मुक्त कराने और भारतीय आधुनिकता को दिशा प्रदान करने का प्रयास किया।अज्ञेय-साहित्य के अध्येताओं के लिए एक पठनीय पुस्तक।___________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________अनुक्रमइस पुस्तक के विषय में — Pgs. 51. साहित्य और साहित्यालोचन — Pgs. 132. विद्रोही बौद्धिक की आधुनिकता का संवाद — Pgs. 393. व्यतित्व-रंजक निबंध-चेतना — Pgs. 644. नए विचारों का काव्यशास्त्र — Pgs. 945. आलोचक अज्ञेय की उपस्थिति — Pgs. 1056. अज्ञेय की भूमिकाओं में साहित्य के प्रतिमान — Pgs. 1277. मित कथन के संयम से संपन्न सृजन-यात्रा — Pgs. 1598. अनुवाद और अज्ञेय — Pgs. 1789. भारतीय कला-चिंतन की परंपराओं का सच — Pgs. 19610. अज्ञेय : यात्रा-साहित्य — Pgs. 21311. अलीकी का आत्मदान — Pgs. 26212. स्वाधीन-चिंतन से जुड़े प्रश्न — Pgs. 28613. भागवत भूमि यात्रा — Pgs. 305

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