Ab Tak Sab
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Item Weight | 550 Grams |
ISBN | 978-9393768247 |
Author | Rajesh Joshi |
Language | Hindi |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Pages | 384p |
Book Type | Hardbound |
Dimensions | 13.44*20.85*3.17 |
Publishing year | 2022 |
Edition | 1st |

Ab Tak Sab
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यह किताब क्यों खरीदें?
• ‘अब तक सब’ साहित्य अकादेमी पुरस्कार से पुरस्कृत कवि राजेश जोशी के सभी नाटकों का संकलन है।
• ‘अब तक सब’ में एक नुक्कड़ नाटक और संगीत रूपक सहित कुल नौ नाटक संकलित हैं। इनके अलावा इस संकलन में अन्य नाटककारों के लिखे नाटकों के लिए राजेश जोशी द्वारा लिखे गए गीत और कविताएँ भी शामिल हैं।
• ‘अब तक सब’ में संकलित नाटक पौराणिक, मिथकीय, लोक कथात्मक और ऐतिहासिक से लेकर समसामयिक तक विविध कथाओं, विषयों और प्रसंगों पर आधारित हैं।
• मंच और पाठ, दोनों लिहाज से ये नाटक उल्लेखनीय हैं। इनकी अनेक प्रस्तुतियाँ हो चुकी हैं जिनकी काफी चर्चा रही है।
• ‘अब तक सब’ को पढ़ना एक महत्त्वपूर्ण कवि के नए रचनात्मक आयाम से परिचित होना है, और यह संकलन हिन्दी में एक मौलिक नाटकों के अभाव को पूरा करने की दिशा में एक उल्लेखनीय कदम है।
किताब के बारे में
यह सुखद है कि राजेश जोशी के लगभग सभी नाटक, लिखने के साथ ही मंचित हुए और मंचीय प्रदर्शनों की सफलता के बाद प्रकाशित हुए। निश्चित रूप से इनकी रचना प्रदर्शन की अपेक्षाओं के अनुरूप हुई है इसलिए इनका पहना प्रभाव तो मंचीयता का ही पड़ता है। नाटक पढ़ते समय पाठक, दर्शक की भूमिका में चला जाता है और भले ही वह सिर्फ पाठ से गुजरता हो, प्रस्तुति का अन्तर्भूत प्रभाव उसे बाँधे रहता है। नाटक की आलोचना की भाषा में कहें तो यह विशेषता ‘चाक्षुषता के साथ-साथ दृश्यात्मकता’ की है। राजेश जोशी के लगभग सभी नाटकों में 'भाषा की पूरी शक्ति, उसकी पूरी अर्थवत्ता काव्यात्मकता' तक पहुँचने में है जिसे विख्यात नाट्य चिन्तक नेमिचन्द्र जैन एक सफल नाट्यालेख का सबसे बड़ा गुण या उसकी बड़ी चुनौती स्वीकार करते हैं। कहना न होगा कि नेमि जी नाटक को मूलतः काव्य का एक प्रकार ही मानते थे और एक नाट्यालेख में वे ‘सार्थक और महत्वपूर्ण अनुभूति की सूक्ष्म, संवेदनशील और गहन अभिव्यक्ति' का होना आवश्यक मानते थे।
इस दृष्टि से देखें तो राजेश जोशी के अधिकांश नाटक नाट्यालेख की अनिवार्य अर्हताएँ पूरी करते हैं और सम्बद्ध विषय की सूक्ष्मतम अनुभूति तथा संवेदनशील और गहन अभिव्यक्ति संभव करते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में उनका जोर ‘संवाद’ और ‘दृश्यात्मकता’ को उभारने में रहा है जो पाठ को तो अर्थगर्भी बनाते ही हैं, मंचन को उसके पूरे वितान में खुलने का अवसर देते हैं।
—ज्योतिष जोशी
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