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Aavaazon Ka Raushandaan

Kuldeep Kumar

Rs. 199 Rs. 159

About Book कुलदीप कुमार की ग़ज़लों एक उदासी की लहर दौड़ती है और शब्दों का चयन ऐसा होता है कि पाठक के अंदर भी दुख-दर्द की भावनाएँ पैदा हो जाती हैं। कुलदीप कुमार की शाइरी का केंद्र बिंदु इ'श्क़ है और इसी अनुभव को अपना काव्य संसार बनाते हैं। About... Read More

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About Book

कुलदीप कुमार की ग़ज़लों एक उदासी की लहर दौड़ती है और शब्दों का चयन ऐसा होता है कि पाठक के अंदर भी दुख-दर्द की भावनाएँ पैदा हो जाती हैं। कुलदीप कुमार की शाइरी का केंद्र बिंदु इ'श्क़ है और इसी अनुभव को अपना काव्य संसार बनाते हैं।

About Author

कुलदीप कुमार का जन्म 10 अगस्त, 1987 को गाँव बल्हौड़, तहसील मानपुर (बांधवगढ़), मध्यप्रदेश में हुआ। राजीव गांधी प्रौधोगिकी विश्वविद्यालय (RGTU) भोपाल से बी०ई० (इलेक्ट्रॉनिक्स एंड कम्युनिकेशन) तथा अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय रीवा से एम०ए० (हिंदी) की पढ़ाई करने के बाद वे वर्तमान में मध्यप्रदेश भू-अभिलेख एवं राजस्व विभाग में कार्यरत हैं। 

 

Read Sample Data

फ़ेह्‍‌रिस्त

 


1 मेरी शिकस्ता ज़ात का शहतीर गिर पड़े
2 आप ही फ़न का परस्तार समझते हैं मुझे
3 कुछ ऐसे रात उदासी के पर निकलते हैं
4 वक़्त की चाक पे तख़्लीक़ नई चाहती है
5 ऐसा नहीं कि वस्ल का लम्हा न आएगा
6 तुम्हारे होटों से बुझने को जलना पड़ता है
7 बस एक ख़ाली सा पैकर दिखाई देता है
8 मौसम-ए-याद! यूँ उ’जलत में न वारे जाएँ
9 तस्कीं न मुझको रहम न लफ़्ज़-ए-दुआ’ से थी
10 मिले बिना ही बिछड़ने के डर से लौट आए
11 इक दिन तमाम फ़र्ज़ अदा कर दिए गए
12 न सिर्फ़ तुझसे मुझे इन्तिक़ाम लेना है
13 हमने ख़ुद छेड़ा है, ज़ख्मों को हरा रखना था
14 नर्म फूलों से कभी ख़ार से लग जाते हैं
15 कूज़ागर! मैं तिरे किस ख़्वाब का चेहरा हो जाऊँ
16 ठहर गए हैं कई जुगनू जगमगाते हुए
17 उस से बिछडूँ भी तो इतनी तो ख़ुशी रहती है
18 साँस लेता हूँ तो सीने में जलन होती है
19 किस हाल-ए-बे-ख़ुदी में किनारे गए थे हम
20 नज़्रें मिलीं न अपनी कभी गुफ़्तुगू हुई
21 इक इिज़्तराब सा सीने में हर घड़ी है मुझे
22 ज़ियादा इससे वो बेवफ़ा क्या बुरा करेगा
23 हवा-ए-तेज़ में इतना जला बुझा हूँ मैं
24 वो इस तरह से मेरी अंजुमन में लौट आए
25 क्या इसी तौर ही ये सारा सफ़र जाना है
26 ख़मोश लहजे में मुझ से दलील करते हुए
27 मोहब्बत के शिकंजे में नहीं थे
28 क़ज़ा की ज़द से रह-ए-ज़िन्दगी में ले आओ
29 और तमाशा मुझसे यार नहीं होता
30 उधर फ़लक पे कोई दिन निकलने वाला था
31 दर से मैं उसके लौट के प्यासा न जाऊँगा
32 ये कैसा जुल्म मैं उ’म्र-ए-जवाँ पे कर आया
33 बहुत दिनों से गुज़ारा न दिन न शाम हुई
34 छोड़ कर दरिया ये जो तिश्ना-दहाँ जाते हैं
35 आँखों के आईने में दरख़्शानी चाहिए
36 हम और करते भी क्या दा’वा-ए-सुख़न के सिवा
37 राह-ए-इ’श्क़ में इतने तो बेदार थे हम
38 समझ रहे थे जिसे हम कि बेवफ़ा होगा
39 रोने लगे हैं लोग रूलाते हुए मुझे
40 रौशनी के साज़-ओ-सामाँ ढूँढ़ता फिरता था मैं
41 अपना हम-रंग चाहते थे हम
42 मुँह फेरता नहीं है किसी काम से बदन
43 दिल को रह-ए-हयात में उलझा रहा हूँ मैं
44 ये कैसी रौशनी है, किस का दर है, क्या ठिकाना है
45 एक वा’दा था सो कुछ पल को ठहर आया था
46 छोड़ दो दामन मिरा मुझसे जुदा हो जाओ तुम
47 पहले सारी बस्ती सुला दी जाती है
48 तुम्हारा क्या गया गर थोड़ा सा क़रार गया
49 कहा था मौत डराए तो थोड़ा डर जाना
50 तो क्या वो लम्हा-ए-तर उ’म्र भर न आएगा

ग़ज़लें


 

1

मेरी शिकस्ता1 ज़ात का शहतीर2 गिर पड़े

तू जा कि इस से पहले ये तामीर गिर पड़े

1 टूटा हुआ 2 बड़ा और लम्बा लट्ठ

 

इतनी भी बे-क़रारी1 मुनासिब नहीं है दोस्त

ऐसे भी ख़त न खोल कि तहरीर2 गिर पड़े

1 बेचैनी 2 लेख, लेखन

 

आता हूँ यूँ बहाने से मैं उस के सामने

जैसे किसी किताब से तस्वीर गिर पड़े

 

क़ातिल की सुर्ख़ आँखों में बस देखते रहो

मुमकिन है उसके हाथ से शमशीर2 गिर पड़े

1 लाल 2 तल्वार

 

इक रोज़ ना-उमीदी1 ही मुझ को करे रिहा

थक कर ख़ुद अपने पाँवों से ज़ंजीर गिर पड़े

1 निराश

 


 

2

आप ही फ़न1 का परस्तार2 समझते हैं मुझे

वर्ना ये लोग तो फ़नकार3 समझते हैं मुझे

1 कला 2 उपासक 3 कलाकार

 

उलझनें ले के चले आते हैं बस्ती के मकीं

कितने नादाँ1 है समझदार समझते हैं मुझे

1 नासमझ

 

सर पटकते हैं मिरे सीने पे सब रोते हुए

रोने वाले कोई दीवार समझते हैं मुझे

 

मेरे चुप रहने पे पत्थर मुझे कहने वाले

मेरे रोने पे अदाकार समझते हैं मुझे

 

धूप निकलेगी तो इन सब के भरम टूटेंगे

ये जो सब साया--दीवार1 समझते हैं मुझे

1 दीवार का साया

 

हाँ मैं बीमार हूँ पर ग़म मुझे इस बात का है

घर के सब लोग भी बीमार समझते हैं मुझे

 

म्र भर मुझको उसी शह्र में रहना है जहाँ,

सब मुहब्बत का गुनहगार समझते हैं मुझे

 

 


 

3

कुछ ऐसे रात उदासी के पर निकलते हैं

कि जैसे टूटती क़ब्रों से सर निकलते हैं

 

कभी भी आओ इन आँखों में कोई ख़तरा नही

निकलने वाले यहाँ रात भर निकलते हैं

 

परे है सोच से इन बे-घरों की दर-बदरी1

इन्हें खँगालो तो अन्दर से घर निकलते हैं

1 भटकना

 

तमाम रास्ते करते नहीं हैं घर का ज़िक्1

ये लोग ऐसा भी क्या सोच कर निकलते हैं

1 चर्चा

 

दरख़्त करते नहीं इस लिए उमीद--वफ़ा1

वो जानते हैं परिन्दों के पर निकलते हैं

1 वफ़ा की उम्मीद

 

 


 

4

वक़्त के चाक1 पे तख़्लीक़2 नई चाहती है

ज़िन्दगी और ज़रा कूज़ा-गरी3 चाहती है

1 धुरी 2 उत्पत्ति करना 3 कुम्हार का पेशा

 

एक दहलीज़1 है जो पाँव पकड़ लेती है

एक लड़की है कि जो अपनी ख़ुशी चाहती है

1 चौखट

 

श्क परवान पे है आओ बिछड़ जाएँ हम

ये तक़ाज़ा1 भी है दुनिया भी यही चाहती है

1 आवश्यकता

 

प्यास का खेल दिखाने में कोई हर्ज नहीं

मसअला ये है कि इस बार नदी चाहती है

 

आओ रो लें कि इन आँखों से ज़रा धूप छटे

शाम का वक़्त है ये मिट्टी नमी चाहती है

 

इक नज़र  फ़ाक़े1 पे बैठी है कई हफ़्तों से

जाने किस यार--सितमगर2 की गली चाहती है

1 उपवास 2 अत्याचार करने वाला माशूक़

 

 


 

5

ऐसा नहीं कि वस्ल1 का लम्हा2 न आएगा

लेकिन इस इन्तिज़ार के जैसा न आएगा

1 मिलन 2 पल

 

ये लब1 ही क्या ये आँखें ही अब पूछने लगीं

इस रास्ते में क्या कोई दरिया न आएगा

1 होंट 

 

बैठे रहो उदास यूँ ज़ुल्फ़ों1 को खोल कर

इस रुत2 में तो हवाओं का झोंका न आएगा

1 बाल 2 मौसम

 

पहले से हम बता दें कि आएगा सारा जिस्म

दिल तुम पे आएगा तो अकेला न आएगा

 

बस्ती के सारे बच्चों को कैसे बताऊँ मैं

अब वो खिलौने बेचने वाला न आएगा

 

सो जाओ ऐ दरख़्तो! कि ढलने लगी है रात

छोड़ो उमीद अब वो परिंदा न आएगा

 

 


 

6

तुम्हारे होटों से बुझने को जलना पड़ता है

इस आरज़ू में तो अक्सर मचलना पड़ता है

 

वो बन्दिशें1 हैं कि मिलता है ख़ुशबुएँ बन कर,

मिरे लिए उसे पैकर2 बदलना पड़ता है

1 रुकावटें 2 आकृति, आकार

 

हमीं बुझाते हैं लौ पहले सब चराग़ों1 की

फिर उन चराग़ों के हिस्से का जलना पड़ता है

1 दिया

 

फिर इन्तिज़ार भी तो करना होता है तेरा

हमें तो वक़्त से पहले निकलना पड़ता है

 

मैं हार जाता हूँ उन दो उदास आँखों से

मुझे सफ़र का इरादा बदलना पड़ता है

 

 


 

7

बस एक ख़ाली सा पैकर1 दिखाई देता है

ये कौन ख़्वाब2 में अक्सर दिखाई देता है

1 जिस्म, प्रतिमा 2 सपना

 

बस उस के होने का एहसास भर नहीं होता

कभी कभी वो बराबर दिखाई देता है

 

चलो कि उस पे भी चढ़ने लगा है हिज्र1 का रंग

वो अब के पहले से बेहतर दिखाई देता है

1 विरह

 

बिछड़ के जाता कहाँ है वो आँख खुलते ही

जो मुझको ख़्वाब में शब1 भर दिखाई देता है

1 रात

 

येकौन लोग हैं जो दश्त1 के नहीं लगते

सभी की आँखों में इक घर दिखाई देता है

1 वीराना

 

वो रक़्स--मौज1 मैं सहरा2 में देख आया हूँ

कि अब तो दरिया भी कमतर दिखाई देता है

1 लह्र का नाच 2 रेगिस्तान, वीराना

 

 


 

8

मौसम--याद1! यूँ उजलत2 में न वारे जाएँ

हम वो लम्हे3 हैं जो फ़ुर्सत से गुज़ारे जाएँ

1 याद का मौसम 2 जल्दी 3 पल

 

हो के रुसवा1 वो हुआ जिस की कभी हसरत2 थी

हम तिरे नाम से महफ़िल3 में पुकारे जाएँ

1 अपमानित 2 कामनाएँ जो पूरी न हों 3 सभा

 

आपका हुस्न1 है जितनी भी नुमाइश2 कीजे

हाँ बस इतना है कि मासूम3 न मारे जाएँ

1 ख़ूबसूरती 2 दिखावा 3 निष्पाप, पाक-साफ़

 

ख़ामुशी तोड़ के सर ले ली ये कैसी वहशत1

ऐसा लगता है कि बस तुझको पुकारे जाएँ

1 डर

 

हो चुका तंग मैं ज़िन्दान--ख़मोशी1 से बहुत

कुछ परिन्दे ही मिरी छत पे उतारे जाएँ

1 ख़ामोशी का क़ैद-ख़ाना

 

ज़िन्दगी भी तो कभी मौजों1 से लड़ कर देखे

सिर्फ़ क्या हम को ग़रज़2 है कि किनारे जाएँ

1 लहरों 2 उद्देश्य

 

आज की रात हैं दरकार1 अँधेरे मुझ को

आज की रातमिरी छत से सितारे जाएँ

Description

About Book

कुलदीप कुमार की ग़ज़लों एक उदासी की लहर दौड़ती है और शब्दों का चयन ऐसा होता है कि पाठक के अंदर भी दुख-दर्द की भावनाएँ पैदा हो जाती हैं। कुलदीप कुमार की शाइरी का केंद्र बिंदु इ'श्क़ है और इसी अनुभव को अपना काव्य संसार बनाते हैं।

About Author

कुलदीप कुमार का जन्म 10 अगस्त, 1987 को गाँव बल्हौड़, तहसील मानपुर (बांधवगढ़), मध्यप्रदेश में हुआ। राजीव गांधी प्रौधोगिकी विश्वविद्यालय (RGTU) भोपाल से बी०ई० (इलेक्ट्रॉनिक्स एंड कम्युनिकेशन) तथा अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय रीवा से एम०ए० (हिंदी) की पढ़ाई करने के बाद वे वर्तमान में मध्यप्रदेश भू-अभिलेख एवं राजस्व विभाग में कार्यरत हैं। 

 

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फ़ेह्‍‌रिस्त

 


1 मेरी शिकस्ता ज़ात का शहतीर गिर पड़े
2 आप ही फ़न का परस्तार समझते हैं मुझे
3 कुछ ऐसे रात उदासी के पर निकलते हैं
4 वक़्त की चाक पे तख़्लीक़ नई चाहती है
5 ऐसा नहीं कि वस्ल का लम्हा न आएगा
6 तुम्हारे होटों से बुझने को जलना पड़ता है
7 बस एक ख़ाली सा पैकर दिखाई देता है
8 मौसम-ए-याद! यूँ उ’जलत में न वारे जाएँ
9 तस्कीं न मुझको रहम न लफ़्ज़-ए-दुआ’ से थी
10 मिले बिना ही बिछड़ने के डर से लौट आए
11 इक दिन तमाम फ़र्ज़ अदा कर दिए गए
12 न सिर्फ़ तुझसे मुझे इन्तिक़ाम लेना है
13 हमने ख़ुद छेड़ा है, ज़ख्मों को हरा रखना था
14 नर्म फूलों से कभी ख़ार से लग जाते हैं
15 कूज़ागर! मैं तिरे किस ख़्वाब का चेहरा हो जाऊँ
16 ठहर गए हैं कई जुगनू जगमगाते हुए
17 उस से बिछडूँ भी तो इतनी तो ख़ुशी रहती है
18 साँस लेता हूँ तो सीने में जलन होती है
19 किस हाल-ए-बे-ख़ुदी में किनारे गए थे हम
20 नज़्रें मिलीं न अपनी कभी गुफ़्तुगू हुई
21 इक इिज़्तराब सा सीने में हर घड़ी है मुझे
22 ज़ियादा इससे वो बेवफ़ा क्या बुरा करेगा
23 हवा-ए-तेज़ में इतना जला बुझा हूँ मैं
24 वो इस तरह से मेरी अंजुमन में लौट आए
25 क्या इसी तौर ही ये सारा सफ़र जाना है
26 ख़मोश लहजे में मुझ से दलील करते हुए
27 मोहब्बत के शिकंजे में नहीं थे
28 क़ज़ा की ज़द से रह-ए-ज़िन्दगी में ले आओ
29 और तमाशा मुझसे यार नहीं होता
30 उधर फ़लक पे कोई दिन निकलने वाला था
31 दर से मैं उसके लौट के प्यासा न जाऊँगा
32 ये कैसा जुल्म मैं उ’म्र-ए-जवाँ पे कर आया
33 बहुत दिनों से गुज़ारा न दिन न शाम हुई
34 छोड़ कर दरिया ये जो तिश्ना-दहाँ जाते हैं
35 आँखों के आईने में दरख़्शानी चाहिए
36 हम और करते भी क्या दा’वा-ए-सुख़न के सिवा
37 राह-ए-इ’श्क़ में इतने तो बेदार थे हम
38 समझ रहे थे जिसे हम कि बेवफ़ा होगा
39 रोने लगे हैं लोग रूलाते हुए मुझे
40 रौशनी के साज़-ओ-सामाँ ढूँढ़ता फिरता था मैं
41 अपना हम-रंग चाहते थे हम
42 मुँह फेरता नहीं है किसी काम से बदन
43 दिल को रह-ए-हयात में उलझा रहा हूँ मैं
44 ये कैसी रौशनी है, किस का दर है, क्या ठिकाना है
45 एक वा’दा था सो कुछ पल को ठहर आया था
46 छोड़ दो दामन मिरा मुझसे जुदा हो जाओ तुम
47 पहले सारी बस्ती सुला दी जाती है
48 तुम्हारा क्या गया गर थोड़ा सा क़रार गया
49 कहा था मौत डराए तो थोड़ा डर जाना
50 तो क्या वो लम्हा-ए-तर उ’म्र भर न आएगा

ग़ज़लें


 

1

मेरी शिकस्ता1 ज़ात का शहतीर2 गिर पड़े

तू जा कि इस से पहले ये तामीर गिर पड़े

1 टूटा हुआ 2 बड़ा और लम्बा लट्ठ

 

इतनी भी बे-क़रारी1 मुनासिब नहीं है दोस्त

ऐसे भी ख़त न खोल कि तहरीर2 गिर पड़े

1 बेचैनी 2 लेख, लेखन

 

आता हूँ यूँ बहाने से मैं उस के सामने

जैसे किसी किताब से तस्वीर गिर पड़े

 

क़ातिल की सुर्ख़ आँखों में बस देखते रहो

मुमकिन है उसके हाथ से शमशीर2 गिर पड़े

1 लाल 2 तल्वार

 

इक रोज़ ना-उमीदी1 ही मुझ को करे रिहा

थक कर ख़ुद अपने पाँवों से ज़ंजीर गिर पड़े

1 निराश

 


 

2

आप ही फ़न1 का परस्तार2 समझते हैं मुझे

वर्ना ये लोग तो फ़नकार3 समझते हैं मुझे

1 कला 2 उपासक 3 कलाकार

 

उलझनें ले के चले आते हैं बस्ती के मकीं

कितने नादाँ1 है समझदार समझते हैं मुझे

1 नासमझ

 

सर पटकते हैं मिरे सीने पे सब रोते हुए

रोने वाले कोई दीवार समझते हैं मुझे

 

मेरे चुप रहने पे पत्थर मुझे कहने वाले

मेरे रोने पे अदाकार समझते हैं मुझे

 

धूप निकलेगी तो इन सब के भरम टूटेंगे

ये जो सब साया--दीवार1 समझते हैं मुझे

1 दीवार का साया

 

हाँ मैं बीमार हूँ पर ग़म मुझे इस बात का है

घर के सब लोग भी बीमार समझते हैं मुझे

 

म्र भर मुझको उसी शह्र में रहना है जहाँ,

सब मुहब्बत का गुनहगार समझते हैं मुझे

 

 


 

3

कुछ ऐसे रात उदासी के पर निकलते हैं

कि जैसे टूटती क़ब्रों से सर निकलते हैं

 

कभी भी आओ इन आँखों में कोई ख़तरा नही

निकलने वाले यहाँ रात भर निकलते हैं

 

परे है सोच से इन बे-घरों की दर-बदरी1

इन्हें खँगालो तो अन्दर से घर निकलते हैं

1 भटकना

 

तमाम रास्ते करते नहीं हैं घर का ज़िक्1

ये लोग ऐसा भी क्या सोच कर निकलते हैं

1 चर्चा

 

दरख़्त करते नहीं इस लिए उमीद--वफ़ा1

वो जानते हैं परिन्दों के पर निकलते हैं

1 वफ़ा की उम्मीद

 

 


 

4

वक़्त के चाक1 पे तख़्लीक़2 नई चाहती है

ज़िन्दगी और ज़रा कूज़ा-गरी3 चाहती है

1 धुरी 2 उत्पत्ति करना 3 कुम्हार का पेशा

 

एक दहलीज़1 है जो पाँव पकड़ लेती है

एक लड़की है कि जो अपनी ख़ुशी चाहती है

1 चौखट

 

श्क परवान पे है आओ बिछड़ जाएँ हम

ये तक़ाज़ा1 भी है दुनिया भी यही चाहती है

1 आवश्यकता

 

प्यास का खेल दिखाने में कोई हर्ज नहीं

मसअला ये है कि इस बार नदी चाहती है

 

आओ रो लें कि इन आँखों से ज़रा धूप छटे

शाम का वक़्त है ये मिट्टी नमी चाहती है

 

इक नज़र  फ़ाक़े1 पे बैठी है कई हफ़्तों से

जाने किस यार--सितमगर2 की गली चाहती है

1 उपवास 2 अत्याचार करने वाला माशूक़

 

 


 

5

ऐसा नहीं कि वस्ल1 का लम्हा2 न आएगा

लेकिन इस इन्तिज़ार के जैसा न आएगा

1 मिलन 2 पल

 

ये लब1 ही क्या ये आँखें ही अब पूछने लगीं

इस रास्ते में क्या कोई दरिया न आएगा

1 होंट 

 

बैठे रहो उदास यूँ ज़ुल्फ़ों1 को खोल कर

इस रुत2 में तो हवाओं का झोंका न आएगा

1 बाल 2 मौसम

 

पहले से हम बता दें कि आएगा सारा जिस्म

दिल तुम पे आएगा तो अकेला न आएगा

 

बस्ती के सारे बच्चों को कैसे बताऊँ मैं

अब वो खिलौने बेचने वाला न आएगा

 

सो जाओ ऐ दरख़्तो! कि ढलने लगी है रात

छोड़ो उमीद अब वो परिंदा न आएगा

 

 


 

6

तुम्हारे होटों से बुझने को जलना पड़ता है

इस आरज़ू में तो अक्सर मचलना पड़ता है

 

वो बन्दिशें1 हैं कि मिलता है ख़ुशबुएँ बन कर,

मिरे लिए उसे पैकर2 बदलना पड़ता है

1 रुकावटें 2 आकृति, आकार

 

हमीं बुझाते हैं लौ पहले सब चराग़ों1 की

फिर उन चराग़ों के हिस्से का जलना पड़ता है

1 दिया

 

फिर इन्तिज़ार भी तो करना होता है तेरा

हमें तो वक़्त से पहले निकलना पड़ता है

 

मैं हार जाता हूँ उन दो उदास आँखों से

मुझे सफ़र का इरादा बदलना पड़ता है

 

 


 

7

बस एक ख़ाली सा पैकर1 दिखाई देता है

ये कौन ख़्वाब2 में अक्सर दिखाई देता है

1 जिस्म, प्रतिमा 2 सपना

 

बस उस के होने का एहसास भर नहीं होता

कभी कभी वो बराबर दिखाई देता है

 

चलो कि उस पे भी चढ़ने लगा है हिज्र1 का रंग

वो अब के पहले से बेहतर दिखाई देता है

1 विरह

 

बिछड़ के जाता कहाँ है वो आँख खुलते ही

जो मुझको ख़्वाब में शब1 भर दिखाई देता है

1 रात

 

येकौन लोग हैं जो दश्त1 के नहीं लगते

सभी की आँखों में इक घर दिखाई देता है

1 वीराना

 

वो रक़्स--मौज1 मैं सहरा2 में देख आया हूँ

कि अब तो दरिया भी कमतर दिखाई देता है

1 लह्र का नाच 2 रेगिस्तान, वीराना

 

 


 

8

मौसम--याद1! यूँ उजलत2 में न वारे जाएँ

हम वो लम्हे3 हैं जो फ़ुर्सत से गुज़ारे जाएँ

1 याद का मौसम 2 जल्दी 3 पल

 

हो के रुसवा1 वो हुआ जिस की कभी हसरत2 थी

हम तिरे नाम से महफ़िल3 में पुकारे जाएँ

1 अपमानित 2 कामनाएँ जो पूरी न हों 3 सभा

 

आपका हुस्न1 है जितनी भी नुमाइश2 कीजे

हाँ बस इतना है कि मासूम3 न मारे जाएँ

1 ख़ूबसूरती 2 दिखावा 3 निष्पाप, पाक-साफ़

 

ख़ामुशी तोड़ के सर ले ली ये कैसी वहशत1

ऐसा लगता है कि बस तुझको पुकारे जाएँ

1 डर

 

हो चुका तंग मैं ज़िन्दान--ख़मोशी1 से बहुत

कुछ परिन्दे ही मिरी छत पे उतारे जाएँ

1 ख़ामोशी का क़ैद-ख़ाना

 

ज़िन्दगी भी तो कभी मौजों1 से लड़ कर देखे

सिर्फ़ क्या हम को ग़रज़2 है कि किनारे जाएँ

1 लहरों 2 उद्देश्य

 

आज की रात हैं दरकार1 अँधेरे मुझ को

आज की रातमिरी छत से सितारे जाएँ

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Additional Information
Book Type

Paperback

Language

Hindi

Publisher Rekhta Publications
Language Hindi
ISBN 978-9391080808
Pages 136
Publishing Year 2021

Aavaazon Ka Raushandaan

About Book

कुलदीप कुमार की ग़ज़लों एक उदासी की लहर दौड़ती है और शब्दों का चयन ऐसा होता है कि पाठक के अंदर भी दुख-दर्द की भावनाएँ पैदा हो जाती हैं। कुलदीप कुमार की शाइरी का केंद्र बिंदु इ'श्क़ है और इसी अनुभव को अपना काव्य संसार बनाते हैं।

About Author

कुलदीप कुमार का जन्म 10 अगस्त, 1987 को गाँव बल्हौड़, तहसील मानपुर (बांधवगढ़), मध्यप्रदेश में हुआ। राजीव गांधी प्रौधोगिकी विश्वविद्यालय (RGTU) भोपाल से बी०ई० (इलेक्ट्रॉनिक्स एंड कम्युनिकेशन) तथा अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय रीवा से एम०ए० (हिंदी) की पढ़ाई करने के बाद वे वर्तमान में मध्यप्रदेश भू-अभिलेख एवं राजस्व विभाग में कार्यरत हैं। 

 

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फ़ेह्‍‌रिस्त

 


1 मेरी शिकस्ता ज़ात का शहतीर गिर पड़े
2 आप ही फ़न का परस्तार समझते हैं मुझे
3 कुछ ऐसे रात उदासी के पर निकलते हैं
4 वक़्त की चाक पे तख़्लीक़ नई चाहती है
5 ऐसा नहीं कि वस्ल का लम्हा न आएगा
6 तुम्हारे होटों से बुझने को जलना पड़ता है
7 बस एक ख़ाली सा पैकर दिखाई देता है
8 मौसम-ए-याद! यूँ उ’जलत में न वारे जाएँ
9 तस्कीं न मुझको रहम न लफ़्ज़-ए-दुआ’ से थी
10 मिले बिना ही बिछड़ने के डर से लौट आए
11 इक दिन तमाम फ़र्ज़ अदा कर दिए गए
12 न सिर्फ़ तुझसे मुझे इन्तिक़ाम लेना है
13 हमने ख़ुद छेड़ा है, ज़ख्मों को हरा रखना था
14 नर्म फूलों से कभी ख़ार से लग जाते हैं
15 कूज़ागर! मैं तिरे किस ख़्वाब का चेहरा हो जाऊँ
16 ठहर गए हैं कई जुगनू जगमगाते हुए
17 उस से बिछडूँ भी तो इतनी तो ख़ुशी रहती है
18 साँस लेता हूँ तो सीने में जलन होती है
19 किस हाल-ए-बे-ख़ुदी में किनारे गए थे हम
20 नज़्रें मिलीं न अपनी कभी गुफ़्तुगू हुई
21 इक इिज़्तराब सा सीने में हर घड़ी है मुझे
22 ज़ियादा इससे वो बेवफ़ा क्या बुरा करेगा
23 हवा-ए-तेज़ में इतना जला बुझा हूँ मैं
24 वो इस तरह से मेरी अंजुमन में लौट आए
25 क्या इसी तौर ही ये सारा सफ़र जाना है
26 ख़मोश लहजे में मुझ से दलील करते हुए
27 मोहब्बत के शिकंजे में नहीं थे
28 क़ज़ा की ज़द से रह-ए-ज़िन्दगी में ले आओ
29 और तमाशा मुझसे यार नहीं होता
30 उधर फ़लक पे कोई दिन निकलने वाला था
31 दर से मैं उसके लौट के प्यासा न जाऊँगा
32 ये कैसा जुल्म मैं उ’म्र-ए-जवाँ पे कर आया
33 बहुत दिनों से गुज़ारा न दिन न शाम हुई
34 छोड़ कर दरिया ये जो तिश्ना-दहाँ जाते हैं
35 आँखों के आईने में दरख़्शानी चाहिए
36 हम और करते भी क्या दा’वा-ए-सुख़न के सिवा
37 राह-ए-इ’श्क़ में इतने तो बेदार थे हम
38 समझ रहे थे जिसे हम कि बेवफ़ा होगा
39 रोने लगे हैं लोग रूलाते हुए मुझे
40 रौशनी के साज़-ओ-सामाँ ढूँढ़ता फिरता था मैं
41 अपना हम-रंग चाहते थे हम
42 मुँह फेरता नहीं है किसी काम से बदन
43 दिल को रह-ए-हयात में उलझा रहा हूँ मैं
44 ये कैसी रौशनी है, किस का दर है, क्या ठिकाना है
45 एक वा’दा था सो कुछ पल को ठहर आया था
46 छोड़ दो दामन मिरा मुझसे जुदा हो जाओ तुम
47 पहले सारी बस्ती सुला दी जाती है
48 तुम्हारा क्या गया गर थोड़ा सा क़रार गया
49 कहा था मौत डराए तो थोड़ा डर जाना
50 तो क्या वो लम्हा-ए-तर उ’म्र भर न आएगा

ग़ज़लें


 

1

मेरी शिकस्ता1 ज़ात का शहतीर2 गिर पड़े

तू जा कि इस से पहले ये तामीर गिर पड़े

1 टूटा हुआ 2 बड़ा और लम्बा लट्ठ

 

इतनी भी बे-क़रारी1 मुनासिब नहीं है दोस्त

ऐसे भी ख़त न खोल कि तहरीर2 गिर पड़े

1 बेचैनी 2 लेख, लेखन

 

आता हूँ यूँ बहाने से मैं उस के सामने

जैसे किसी किताब से तस्वीर गिर पड़े

 

क़ातिल की सुर्ख़ आँखों में बस देखते रहो

मुमकिन है उसके हाथ से शमशीर2 गिर पड़े

1 लाल 2 तल्वार

 

इक रोज़ ना-उमीदी1 ही मुझ को करे रिहा

थक कर ख़ुद अपने पाँवों से ज़ंजीर गिर पड़े

1 निराश

 


 

2

आप ही फ़न1 का परस्तार2 समझते हैं मुझे

वर्ना ये लोग तो फ़नकार3 समझते हैं मुझे

1 कला 2 उपासक 3 कलाकार

 

उलझनें ले के चले आते हैं बस्ती के मकीं

कितने नादाँ1 है समझदार समझते हैं मुझे

1 नासमझ

 

सर पटकते हैं मिरे सीने पे सब रोते हुए

रोने वाले कोई दीवार समझते हैं मुझे

 

मेरे चुप रहने पे पत्थर मुझे कहने वाले

मेरे रोने पे अदाकार समझते हैं मुझे

 

धूप निकलेगी तो इन सब के भरम टूटेंगे

ये जो सब साया--दीवार1 समझते हैं मुझे

1 दीवार का साया

 

हाँ मैं बीमार हूँ पर ग़म मुझे इस बात का है

घर के सब लोग भी बीमार समझते हैं मुझे

 

म्र भर मुझको उसी शह्र में रहना है जहाँ,

सब मुहब्बत का गुनहगार समझते हैं मुझे

 

 


 

3

कुछ ऐसे रात उदासी के पर निकलते हैं

कि जैसे टूटती क़ब्रों से सर निकलते हैं

 

कभी भी आओ इन आँखों में कोई ख़तरा नही

निकलने वाले यहाँ रात भर निकलते हैं

 

परे है सोच से इन बे-घरों की दर-बदरी1

इन्हें खँगालो तो अन्दर से घर निकलते हैं

1 भटकना

 

तमाम रास्ते करते नहीं हैं घर का ज़िक्1

ये लोग ऐसा भी क्या सोच कर निकलते हैं

1 चर्चा

 

दरख़्त करते नहीं इस लिए उमीद--वफ़ा1

वो जानते हैं परिन्दों के पर निकलते हैं

1 वफ़ा की उम्मीद

 

 


 

4

वक़्त के चाक1 पे तख़्लीक़2 नई चाहती है

ज़िन्दगी और ज़रा कूज़ा-गरी3 चाहती है

1 धुरी 2 उत्पत्ति करना 3 कुम्हार का पेशा

 

एक दहलीज़1 है जो पाँव पकड़ लेती है

एक लड़की है कि जो अपनी ख़ुशी चाहती है

1 चौखट

 

श्क परवान पे है आओ बिछड़ जाएँ हम

ये तक़ाज़ा1 भी है दुनिया भी यही चाहती है

1 आवश्यकता

 

प्यास का खेल दिखाने में कोई हर्ज नहीं

मसअला ये है कि इस बार नदी चाहती है

 

आओ रो लें कि इन आँखों से ज़रा धूप छटे

शाम का वक़्त है ये मिट्टी नमी चाहती है

 

इक नज़र  फ़ाक़े1 पे बैठी है कई हफ़्तों से

जाने किस यार--सितमगर2 की गली चाहती है

1 उपवास 2 अत्याचार करने वाला माशूक़

 

 


 

5

ऐसा नहीं कि वस्ल1 का लम्हा2 न आएगा

लेकिन इस इन्तिज़ार के जैसा न आएगा

1 मिलन 2 पल

 

ये लब1 ही क्या ये आँखें ही अब पूछने लगीं

इस रास्ते में क्या कोई दरिया न आएगा

1 होंट 

 

बैठे रहो उदास यूँ ज़ुल्फ़ों1 को खोल कर

इस रुत2 में तो हवाओं का झोंका न आएगा

1 बाल 2 मौसम

 

पहले से हम बता दें कि आएगा सारा जिस्म

दिल तुम पे आएगा तो अकेला न आएगा

 

बस्ती के सारे बच्चों को कैसे बताऊँ मैं

अब वो खिलौने बेचने वाला न आएगा

 

सो जाओ ऐ दरख़्तो! कि ढलने लगी है रात

छोड़ो उमीद अब वो परिंदा न आएगा

 

 


 

6

तुम्हारे होटों से बुझने को जलना पड़ता है

इस आरज़ू में तो अक्सर मचलना पड़ता है

 

वो बन्दिशें1 हैं कि मिलता है ख़ुशबुएँ बन कर,

मिरे लिए उसे पैकर2 बदलना पड़ता है

1 रुकावटें 2 आकृति, आकार

 

हमीं बुझाते हैं लौ पहले सब चराग़ों1 की

फिर उन चराग़ों के हिस्से का जलना पड़ता है

1 दिया

 

फिर इन्तिज़ार भी तो करना होता है तेरा

हमें तो वक़्त से पहले निकलना पड़ता है

 

मैं हार जाता हूँ उन दो उदास आँखों से

मुझे सफ़र का इरादा बदलना पड़ता है

 

 


 

7

बस एक ख़ाली सा पैकर1 दिखाई देता है

ये कौन ख़्वाब2 में अक्सर दिखाई देता है

1 जिस्म, प्रतिमा 2 सपना

 

बस उस के होने का एहसास भर नहीं होता

कभी कभी वो बराबर दिखाई देता है

 

चलो कि उस पे भी चढ़ने लगा है हिज्र1 का रंग

वो अब के पहले से बेहतर दिखाई देता है

1 विरह

 

बिछड़ के जाता कहाँ है वो आँख खुलते ही

जो मुझको ख़्वाब में शब1 भर दिखाई देता है

1 रात

 

येकौन लोग हैं जो दश्त1 के नहीं लगते

सभी की आँखों में इक घर दिखाई देता है

1 वीराना

 

वो रक़्स--मौज1 मैं सहरा2 में देख आया हूँ

कि अब तो दरिया भी कमतर दिखाई देता है

1 लह्र का नाच 2 रेगिस्तान, वीराना

 

 


 

8

मौसम--याद1! यूँ उजलत2 में न वारे जाएँ

हम वो लम्हे3 हैं जो फ़ुर्सत से गुज़ारे जाएँ

1 याद का मौसम 2 जल्दी 3 पल

 

हो के रुसवा1 वो हुआ जिस की कभी हसरत2 थी

हम तिरे नाम से महफ़िल3 में पुकारे जाएँ

1 अपमानित 2 कामनाएँ जो पूरी न हों 3 सभा

 

आपका हुस्न1 है जितनी भी नुमाइश2 कीजे

हाँ बस इतना है कि मासूम3 न मारे जाएँ

1 ख़ूबसूरती 2 दिखावा 3 निष्पाप, पाक-साफ़

 

ख़ामुशी तोड़ के सर ले ली ये कैसी वहशत1

ऐसा लगता है कि बस तुझको पुकारे जाएँ

1 डर

 

हो चुका तंग मैं ज़िन्दान--ख़मोशी1 से बहुत

कुछ परिन्दे ही मिरी छत पे उतारे जाएँ

1 ख़ामोशी का क़ैद-ख़ाना

 

ज़िन्दगी भी तो कभी मौजों1 से लड़ कर देखे

सिर्फ़ क्या हम को ग़रज़2 है कि किनारे जाएँ

1 लहरों 2 उद्देश्य

 

आज की रात हैं दरकार1 अँधेरे मुझ को

आज की रातमिरी छत से सितारे जाएँ