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रेख़्ता रौज़न लगभग दो सौ पन्नों में ऊर्दू अदब के नए-पुराने रंगों से सज-धज कर आपके सामने पेश है। इन अदबी लेखों का अस्ल मक़सद उस अदब को आम लोगों के बीच लाना है, जो वक़्त के साथ पुरानी रिसालों के पीले पड़ चुके पन्नों और महीन लिखाई में क़ैद हो कर रह गया है जिनमें से अधिकतर अब दस्तयाब भी नहीं है। ‘रेख़्ता रौज़न’ के ज़रिए हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के नए पुराने क़लमकारों को आम पाठकों के बीच लाना हमारा अस्ल मक़सद है।
उर्दू अदब के नए और पुराने रुज्हान और ज़बान के बदलते रुख़ हमारी सियासी और तहरीकी ज़िंदगी की विरासत हैं, जिनके टकराव और समानताओं के ज़रिए आने वाली दुनिया की सम्त और रफ़्तार का पता मिलता है।
हुमा ख़लील साहिबा ने उर्दू से अंग्रेज़ी में कई तर्जुमे किए हैं, जिनमें उनके पिता उर्दू के मशहूर नक़्क़ाद और शाइर ख़लील-उर-रहमान आज़मी की किताब ‘उर्दू में तरक़्क़ी-पसंद अदबी तहरीक’ भी शामिल है, जो अंग्रेज़ी में ‘Many Summers apart’ के उन्वान से शाया हुई। उनकी दूसरी किताब ‘The Allure of Aligarh’ अलीगढ़ शहर की शायराना ज़िन्दगी पर मबनी है। हुमा ख़लील ने ख़लील-उल-रहमान आज़मी की कुल्लियात ‘उरूज-ए-फ़न’ भी यकजा की और वो ख़्वातीन के रिसाले ‘बज़्म-ए-अदब’ की संपादक भी हैं।
शारिब रुदौलवी एक अहम-तरीन नक़्क़ाद और शायर की हैसियत से मारूफ़ हैं। उनकी पैदाइश रुदौली के एक ज़मीन्दार और पढ़े लिखे घराने में हुई। उनके वालिद और दादा का शुमार फ़ारसी और अरबी के बड़े आलिमों में होता था। शारिब रुदौलवी ने लखनऊ यूनीवर्सिटी से उर्दू अदबियात की आला तालीम हासिल की। प्रोफ़ेसर सय्यद एहतिशाम हुसैन की निगरानी में अपना तहक़ीक़ी मक़ाला ‘जदीद उर्दू अदबी तन्क़ीद के उसूल’ के मौज़ू पर लिखा। शारिब रुदौलवी के इस मक़ाले का शुमार अहम-तरीन तन्क़ीदी किताबों में किया जाता है।
शारिब रुदौलवी ने दिल्ली यूनीवर्सिटी के दयाल सिंह कॉलेज में उर्दू के उस्ताद की हैसियत से अपनी अमली ज़िन्दगी का आग़ाज़ किया। 1990 में जवाहर लाल नहरू यूनीवर्सिटी के शोबा-ए-उर्दू में ब-हैसियत रीडर उनका तक़र्रुर हुआ और 2000 में यहीं से सुबुक-दोश हुए।
शारिब रुदौलवी के अदबी सफ़र का आग़ाज़ शेर-गोई से हुआ था, उन्होंने बहुत सी अच्छी ग़ज़लें कहीं लेकिन धीरे-धीरे तन्क़ीद निगारी ने उनकी तख़लीक़ी कार-गुज़ारियों को कम से कम कर दिया। शारिब रुदौलवी की किताबों के नाम दर्ज ज़ेल हैं:
“मरासी-ए-अनीस में ड्रामाई अनासिर”, “गुल-ए-सद-रंग”, “जिगर, फ़न और शख़्सियत”, “अफ़्क़ार-ए-सौदा”, “मुताला वली”, “तन्क़ीदी मुताले”, “इन्तिख़ाब ग़ज़लियात-ए-सौदा”, “उर्दू मर्सिया”, “मआसिर उर्दू तन्क़ीद, मसाइल-ओ-मेलानात”, “तन्क़ीदी मुबाहिस” वग़ैरह।
जदीद-तरीन अफ़्साना-निगारों में ज़किया मशहदी का नाम बहुत अहमियत का हामिल है। उनकी कहानियाँ उर्दू, हिन्दी और अंग्रेज़ी तीनों ज़बानों में शाय हो चुकी हैं। ज़किया मशहदी की कहानियाँ किसी नज़रियाती कमिटमेंट के बग़ैर इन्सानी हमदर्दी का ऐलानिया हैं। ज़िन्दगी और आज की दुनिया में फैले हुए इन्सानी महसूसात को मौज़ू बनाते हुए इन्होंने कई शाहकार अफ़्साने ख़ल्क़ किए हैं। उनके मुतअद्दिद अफ़्सानवी मजमूए शाय हो चुके हैं, जिनमें “पराए चेहरे”, “तारीक राहों के मुसाफ़िर” और “सदा-ए-बाज़गश्त” ख़ास अहमियत के हामिल हैं।
फॉर्मर वाइस चांसलर, जामिआ मिल्लिया इस्लामिया और सीनियर ब्यूरोक्रेट जिन्होंने उम्र का तवील हिस्सा अलग-अलग देशों में गुज़ारने के बावजूद उर्दू अदब से अपनी मोहब्बत और अक़ीदत को क़ायम रखा।
बात करने के अपने दिलचस्प तरीक़े के लिए मश्हूर शाहिद मेह्दी ने अपने बाकमाल इन्तिज़ामी सलाहियत के साथ लगातार उर्दू की ख़िदमत में हमेशा पूरी तवज्जो और इंहिमाक से काम लिया है।