हिंदी दिवस—पढ़िए ये 5 शानदार हिंदी किताबें
हरिशंकर परसाई ने कभी व्यंग्य करते हुए कहा था कि दिवस दुर्बल का मनाया जाता है, जैसे महिला दिवस, अध्यापक दिवस, मज़दूर दिवस। कभी थानेदार दिवस नहीं मनाया जाता।
शायद उस वक्त यह बात सही भी रही हो, कुछ जगहों पर अब भी हो। पर हिंदी दिवस या हिंदी के संदर्भ में शायद ये बात अब उतनी मुनासिब नहीं होगी। देश के क़रीब 44 प्रतिशत और विश्व में 80 करोड़ लोगों की यह भाषा दुर्बल कहाँ से हो गई? रूसी साहित्यकार लेथन ग्रॉस ने कहा था कि भाषाएँ कमज़ोर नहीं होतीं, उसे बरतने का तरीक़ा उसे दुर्बल करता है। रूसी साहित्यकार की यह बात हिंदी के लिए भी लागू है। शुद्धता की बेवजह बहस किए बग़ैर हम देखें तो यह पाएँगे कि बीतते वक़्त के साथ हिंदी—भाषा के तौर पर, संवाद के माध्यम के तौर पर बढ़ी है, चमकी है। देश के पहले राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि हिंदी पुराने समय से ही ऐसी भाषा रही है जिसने मात्र विदेशी होने के कारण किसी शब्द का बहिष्कार नहीं किया और शायद यही हिंदी की तरक़्क़ी का राज़ भी है। शुद्धता की फ़ुज़ूल बहस से अलग अगर हम किसी भी भाषा में आ रहे शब्दों को अभिव्यक्ति में आसानी के लिए लें तो इससे ना ही किसी भाषा की गरिमा घटती है और ना ही भाषा अशुद्ध होती है। हाँ अति की बात अलग है। कुल जमा बात यह है जो उर्दू के लेखक और कवि पीर मोहम्मद मुनिस ने लिखा है—“वही भाषा जीवित और जाग्रत रह सकती है जो लोगों का ठीक-ठीक प्रतिनिधित्व कर सके।”
बाक़ी बात यहीं आकर समाप्त भी हो जाती है कि लोगों के लिए भाषा आसान है या नहीं—अगर कठिन है, क्लिष्ट है और थोपी गई शुद्धता का दबाव है तो आम लोग उसका चयन क्यों करें।
जैसा की सब जानते हैं 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है। कुछ ही दिन पहले गीतांजलि श्री ने हिंदी साहित्य के लिए एक नई उपलब्धि हासिल की, जिसे सम्मिलित करते हुए हम इस बार का हिंदी दिवस मनाएँगे। गीतांजलि श्री के हिंदी उपन्यास को अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार मिला है। ‘रेत-समाधि’ हिंदी की पहली किताब है जो विभिन्न भाषाओं के बीच अपने आप को पुरस्कृत करा सकी।
इस बात को यहीं छोड़ते हुए अब हम आपको कुछ किताबों के बारे में बताएँगे जो इस हिंदी दिवस पर आपको अवश्य पढ़नी चाहिए क्योंकि किसी भी भाषा के लिए इससे बेहतरीन उपहार कुछ नहीं कि उसे लोग और ज़्यादा पढ़ें, समझें और जानें।
1. पहली किताब ‘रागदरबारी’ है। इसके रचयिता श्रीलाल शुक्ल हिंदी के वरिष्ठ और विशिष्ट कथाकार हैं। उनकी क़लम जिस निस्संग व्यंग्यात्मकता से समकालीन सामाजिक यथार्थ को परत-दर-परत उघाड़ती रही है, पहला पड़ाव उसे और अधिक ऊँचाई सौंपता है। श्रीलाल शुक्ल ने अपने इस उपन्यास को राज-मज़दूरों, मिस्त्रियों, ठेकेदारों, इंजीनियरों और शिक्षित बेरोज़गारों के जीवन पर केंद्रित किया है और उन्हें एक सूत्र में पिरोए रखने के लिए एक दिलचस्प कथाफ़लक की रचना की है।
श्रीलाल शुक्ल की यह कथाकृति बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में ईंट-पत्थर होते जा रहे आदमी की त्रासदी को अत्यंत मानवीय और यथार्थवादी फ़लक पर उकेरती है।
“जो ख़ुद कम खाता है, दूसरों को ज़्यादा खिलाता है; ख़ुद कम बोलता है, दूसरों को ज़्यादा बोलने देता है; वही ख़ुद कम बेवक़ूफ़ बनता है, दूसरे को ज़्यादा बेवक़ूफ़ बनाता है।”
जिस प्रकार समाज बढ़ रहा है हमारे लिए इस तरह की किताब पढ़ना बहुत ज़रूरी है।
तो चलिए इस किताब के पन्नो से होकर गुज़रा जाए :
किताब से एक वाक्य इस प्रकार है—“द्वेष का मायाजाल बड़ी-बड़ी मछलियों को ही फँसाता है। छोटी मछलियाँ या तो उसमें फँसती ही नहीं या तुरंत निकल जाती हैं। उनके लिए वह घातक जाल क्रीड़ा की वस्तु है, भय की नहीं।”
आज हम ऊँची इमारतों में रहकर वो परिस्थितियाँ देख तो नहीं सकते लेकिन इस किताब के माध्यम से उस परिवार की मुश्किलों को महसूस अवश्य कर सकते हैं!
3. अगर बात करें तीसरी किताब यानी हरिवंशराय ‘बच्चन’ की अमर काव्य-रचना ‘मधुशाला’ की तो यह किताब 1935 से लगातार प्रकाशित होती आ रही है। सूफ़ियाना रंगत की 135 रुबाइयों से गूँथी गई इस किताब की हर रुबाई का अंत ‘मधुशाला’ शब्द से होता है। पिछले आठ दशकों से कई-कई पीढ़ियों के लोग इसे गाते-गुनगुनाते रहे हैं। यह एक ऐसी कविता है, जिसमें हमारे आस-पास का जीवन-संगीत भरपूर आध्यात्मिक ऊँचाइयों से गूँजता प्रतीत होता है। मधुशाला का रसपान लाखों लोग अब तक कर चुके हैं और भविष्य में भी करते रहेंगे, यह ‘कविता का प्याला’ कभी खाली होने वाला नहीं है, जैसा बच्चन जी ने स्वयं लिखा है—भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला, कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला; कभी न कण भर खाली होगा, लाख पिएँ, दो लाख पिएँ! पाठक गण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला।
तो आइए बिना देरी किए चलते हैं उस मधुशाला की तरफ़ और रसपान करते हैं कविता के प्याले से :
4. बढ़ते हैं अगली किताब ‘निर्मला’ की तरफ़, निर्मला मुंशी प्रेमचंद की जानी-मानी रचना है जिसमें उन्होंने भारत में महिलाओं के प्रति होने वाले सामाजिक अन्याय पर रोशनी डाली है। निर्मला पंद्रह साल की कमसिन लड़की है जो दहेज प्रथा के कारण, एक बूढ़े व्यक्ति से ब्याही जाती है। विवाह के बाद निर्मला को किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है और इन सबसे उसके दिल पर क्या असर पड़ता है, इस सबका उपन्यास में मार्मिक वर्णन है।
हिंदी साहित्य जगत में मुंशी प्रेमचंद का अग्रणी स्थान है और 1928 में पहली बार प्रकाशित हुई ‘निर्मला’ आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी तब थी।
दहेज प्रथा कहीं न कहीं आज भी ज़िंदा है और हमारे समाज को झिंझोड़ रही है, आइए जानते थोड़ा और विस्तार में इस किताब के माध्यम से :
5. अब हम आख़िरकार बात करते हैं उस किताब की जो इस साल चर्चाओं में छाई रही और अब तक चर्चा में है। किताब है लेखिका गीतांजलि श्री का उपन्यास ‘रेत-समाधि’। पहली बार हिंदी को बुकर पुरस्कार दिलाने वाली यह किताब एक बूढ़ी दादी की कहानी है जो आपको पढ़कर देखनी चाहिए कि इसमें ख़ास क्या है? क्यों यह किताब विश्वभर के साहित्य के बीच पुरस्कार जीत कर ले आई।तो चलिए पढ़ते हैं एक और दिलचस्प किताब ‘रेत-समाधि’ :
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