बड़े वसूक़ से दुनिया फ़रेब देती रही
बड़े ख़ुलूस से हम ऐ'तबार करते रहे
*
रविश रविश पे चमन के बुझे बुझे मंजर
ये कह रहे हैं यहाँ से बहार गुज़री है
*
मज़हब का सिर्फ़ नाम है वरना समाज पर
अब तक है मुहर सब्द वही जात पात की
सब्त: लिखना/खुदी हुई
*
ये वो ही परिंदा है कि साधे हुए चुप था
इस तरह जो अब हो के रिहा बोल रहा है
*
साए के वास्ते ता'मीर करेंगे फिर लोग
धूप के वास्ते दीवार गिराने वाले
*
दुश्मन है आदमी का अज़ल से खुद आदमी
यानी मुक़ाबला ये बला का बला से है
*
बढ़ूँ अगर तो किसी तक मिरी रसाई न हो
रुकूँ तो यूंँ लगे वो मेरी दस्तरस में है
*
हैरत है कि हासिल जिसे आराम बहुत है
इतना ही ज़ियादा वो परेशाँ नज़र आए
*
जिस कदर बढ़ती गई है उम्र, कम होती गई
जिस कदर घटती गई है, और नादानी बढ़ी
*
'शौकत' हमारे साथ बड़ा हादसा हुआ
हम रह गए हमारा ज़माना चला गया
ये शेर जो अभी आपने ऊपर पढ़ें हैं, उस शायर के नहीं हैं जिनकी किताब की बात हम किताबों की दुनिया की इस कड़ी में करेंगे। ऐसा पहली बार हुआ है, इससे पहले इस श्रृंखला में हमने जिस किसी शायर की किताब की बात की है तो उसके साथ किसी दूसरे शायर के शेर कभी नहीं पोस्ट किये । तो फिर ये अपवाद अबकी बार क्यों ? वो इसलिए कि ये हमें जरूरी लगा। यूँ समझिये ये ऐसा ही है जैसे कोई गंगा की बात करने से पहले हिमालय की बात करे। गंगा का उद्गम हिमालय ही है न। ये शेर जनाब शौक़त वास्ती साहब मरहूम के हैं । शौकत साहब के वालिद सय्यद नेमत अली शाह यूँ तो अम्बाला के पास के एक गाँव के निवासी थे लेकिन वो अपनी सरकारी नौकरी के चलते पेशावर आ गये और वहीँ बस गए। उनका इरादा था कि रिटायरमेंट के बाद वो वापस अपने गाँव चले जायेंगे और अपने बड़े-छोटे भाइयों और बाकि परिवार जन के साथ पुश्तैनी घर में इकठ्ठा रहेंगे
जनाब नेमत अली शाह साहब का अम्बाला के पास अपने गाँव शाहाबाद वापस लौटने का सपना उस वक़्त चूर चूर हो गया जब विभाजन के बाद बलवाइयों ने उनके घर को जला कर ख़ाक कर दिया और उनके सगे भाइयों का बेरहमी से क़त्ल कर दिया। हर इंसान में शैतान रहता है जिसे हम बड़ी मुश्किल से अपने अंदर दबाये रखते हैं ये शैतान मौका मिलते ही इंसान के बाहर निकल आता है। भीड़ में इस शैतान को बाहर निकलने में आसानी होती है। विभाजन के समय हुई मारकाट इसी शैतान के बाहर निकलने के कारण हुई।
जनाब नेमत अली शाह साहब के यहाँ एक अक्टूबर 1922 को शौकत साहब का जन्म हुआ। शौकत साहब को पढ़ने का शौक बचपन से ही था। उन्होंने हिंदी, अंग्रज़ी ,उर्दू, संस्कृत, फ़ारसी और अरबी भाषा में महारत हासिल की। शायरी का शौक़ भी छोटी उम्र में ही उन्हें लगा जो बाद में मशहूर उस्ताद शायर अब्दुल हमीद 'अदम' साहब की रहनुमाई में परवान चढ़ा। मिनिस्ट्री ऑफ एजुकेशन में 30 साल मुलाज़मत करने के बाद शौक़त साहब ने सरकारी नौकरी छोड़ दी और स्वतंत्र लेखन करने लगे। शायरी के अलावा उन्होंने हॉमेर, मिल्टन और रबिन्द्र नाथ टैगोर के काम को उर्दू में अनुवादित भी किया। शौक़त साहब के घर देश विदेश के शायरों और विद्वानों का आना जाना लगा रहता था। शौकत साहब, जिनका पूरा नाम 'सलाहुद्दीन शौकत वास्ती' था, को आधुनिक उर्दू शायरी के महान शायरों में शुमार किया जाता है। आप 3 सितम्बर 2009 को इस दुनिया ऐ फ़ानी से रुख्सत हुए लेकिन अपने काम की वज़ह से वो हमेशा हमारे बीच मौजूद रहेंगे। जनाब शौक़त वास्ती के यहाँ उनके बेटे हमारे आज के शायर जनाब सबाहत आसिम वास्ती का 5 नवम्बर 1957 को जन्म हुआ। उनकी ग़ज़लों की देवनागरी में रेख़्ता बुक्स द्वारा प्रकाशित किताब 'लफ़्ज़ महफूज़ कर लिए जाएँ ' हमारे सामने है जिसे उन्होंने अपने बहुत अज़ीज़ जनाब सय्यद सरोश आसिफ़ और संजीव सराफ़ की नज़र किया है। जनाब सय्यद सरोश साहब आसिम साहब के शागिर्द हैं और उनसे पिछले पाँच सालों से शायरी के गुर सीख रहे हैं। मेरी नज़र से अब तक जो पाँच छै सौ ग़ज़ल की किताबें गुज़री हैं उनमें से ये अकेली किताब है जिसे एक उस्ताद ने अपने अपने शागिर्द को नज़र किया है। ये बात पढ़ने में जितनी आसान लगती है उतनी है नहीं, इस छोटी सी लेकिन बेहद अहम बात से एक उस्ताद का अपने शागिर्द के लिए जो प्यार झलकता है वो बेमिसाल है। इससे ये भी पता लगता है कि उस्ताद जी शायर ही बेहतर नहीं हैं इंसान भी कमाल के हैं। ये किताब आप अमेज़न से ऑन लाइन या रेख़्ता दिल्ली से मँगवा सकते हैं।
'
वक्त इज़हार का नहीं है अभी
लफ्ज़ महफ़ूज़ कर लिए जाएं
*
टपकेगा लहू लफ़्ज़ कोई चीर के देखो
तुम लोग समझते हो कि बे-जान ग़ज़ल है
*
वो इत्तेफ़ाक़ से मिल जाए रास्ते में कहीं
मुझे ये शौक़ मुसलसल सफ़र में रखता है
*
मिरी ज़बान के मौसम बदलते रहते हैं
मैं आदमी हूं मेरा ऐ'तबार मत करना
*
जो जख़्म दिए आपने महफ़ूज़ हैं अब तक
आदत है अमानत में ख़यानत नहीं करते
*
उ'रूज पर है चमन में बहार का मौसम
सफ़र शुरू ख़िज़ाँ का यहाँ से होता है
*
इस क़दर ताजगी रखी है नज़र में हमने
कोई मंज़र हो पुराना तो नया देखते हैं
*
ख़ुश्क़ रूत में इस जगह हमने बनाया था मकान
ये नहीं मालूम था ये रास्ता पानी का है
*
हर बाग में ऐसे भी तो होते हैं कई फूल
कोई भी जिन्हें देखने वाला नहीं होता
*
मैं तेरे वास्ते बदला तो बहुत हूँ लेकिन
कुछ कमी रह गई होगी तेरे क़ाबिल न हुआ
ये कहना कि जनाब आसिम वास्ती साहब को शायरी घुट्टी में मिली, ग़लत नहीं होगा। जिस बच्चे की शायरी की जड़ें अपने वालिद जनाब शौक़त वास्ती से होती हुई जनाब अब्दुल हमीद 'अदम' साहब और फिर 'अदम' साहब से होती हुई उस्तादों के उस्ताद जनाब 'दाग़' साहब तक पहुँचती हों उसमें पुख़्तगी होना लाज़मी है। सिर्फ़ ग्यारह साल की उम्र से आसिम साहब शायरी करने लगे थे। उनका घर पेशावर में था जहाँ उनके वालिद से मिलने को पाकिस्तान और दूसरे देशों के उस्ताद शायरों की आवाज़ाही रहती ही थी. लिहाज़ा उनकी आपस की गुफ़्तगू सुन सुन कर ही उन्होंने बहुत कुछ सीखा। जनाब अहमद फ़राज़ और मोहसिन एहसान साहब तो लगभग रोज़ यहाँ आते। इनके अलावा गुलाम मुहम्मद क़ासिर ,फ़ारिग बुख़ारी ,परवीन शाकिर साहिबा ,इफ़्तिख़ार आरिफ़ और इब्ने इंशा जैसे नामवर शायर भी इनके यहाँ आये। शौक़त वास्ती साहब के उस्ताद जनाब अब्दुल हमीद 'अदम' साहब ने तो पूरा एक महीना उनके यहाँ क़याम किया। इस पूरे महीने आसिम साहब ने ही उनकी सुबह की चाय से लेकर खाने तक पूरी खिदमत की। आसिम साहब को इन सब बड़े शायरों को क़रीब से देखने और जानने का मौका मिला। ऊपर वाले ने भी शौक़त साहब के बेटों में से सिर्फ़ आसिम साहब को ही शायरी का हुनर अता किया।
बचपन में आसिम साहब अपनी तुकबंदियाँ अपने वालिद साहब को दिखाया करते और वो हमेशा उनकी हौसला अफजाही करते। जहाँ जरुरत होती उन्हें मशवरा देते। आसिम साहब की ज़बान को सुधारने में शौक़त साहब का बहुत बड़ा हाथ है। इसके अलावा अहमद फ़राज़ भी उन्हें ग़ज़ल की बारीकियाँ सिखाते थे। अहमद फ़राज़ साहब से उनका रिश्ता बड़ा दोस्ताना था। एक बार तो जब अहमद फ़राज़ साहब को आसिम साहब कार से उनके घर छोड़ने जा रहे थे तो रास्ते में एक तेज़ रफ़्तार से आ रहे ट्रक से टक्कर होते होते बची। सेकण्ड की देरी से दोनों ख़ुदा को प्यारे हो गए होते। आज भी उस वाक़ये को याद कर आसिम साहब को ठंडा पसीना आ जाता है।
आसिम साहब ने अपने स्कूल के दिनों में बल्कि आठवीं जमात में ही मीर और ग़ालिब को पढ़ लिया था। उस वक़्त उन्हें वो शायरी तो पूरी तरह समझ नहीं आयी लेकिन शेर कहने का हुनर और ज़बान बरतने का सलीक़ा थोड़ा बहुत समझ आया। बड़े होने के बाद भी उनका इश्क़ ग़ालिब, इक़बाल और मीर की शायरी जरा भी कम नहीं हुआ है। बचपन में वो वालिद साहब के साथ मुशायरों, रेडिओ और टीवी के प्रोग्रामों में जाया करते। बाद में उन्होंने कई बार अपने वालिद साहब के साथ मुशायरे पढ़े भी हैं।
बांँधा हर इक ख्याल बड़ी सादगी के साथ
लेकिन कोई ख्याल भी सादा नहीं कहा
*
इक जंग सी होती है मुसलसल मेरे अंदर
लेकिन कोई नेज़ा है न तलवार है मुझ में
क्या उसके लिए भी है कहीं कोई जहन्नम
मुझसे भी बड़ा एक गुनाहगार है मुझ में
*
गैरों के मोहल्लों को बड़े रश्क से देखा
ख़ुद हमने मगर फूल न लगवाए गली में
*
बर्फीले पहाड़ों के सफर पर तो चले हो
क्या तुमने फिसलने का हुनर सीख लिया है
*
कोशिश में इक अ'जीब सी उज्लत का दख़्ल है
मैं बीज बोल रहा कि ख़्वाहिश समर बनी
उज्लत: जल्द बाजी, समर : फल
बैठे थे एक बेंच पे कुछ देर पार्क में
इतना सा वाक़िया था मगर क्या ख़बर बनी
*
तोड़ना हाथ बढ़ाकर ही नहीं है लाज़िम
पक चुका हो तो हवा से भी समर टूटता है
समर: फल
*
मैं इन्हिमाक में ये किस मक़ाम तक पहुंँचा
तुझे ही भूल गया तुझको याद करते हुए
इन्हिमाक: तल्लीनता
*
दरख़्त काटने का फ़ैसला हुआ 'आसिम'
समर को छू न सके लोग जब उछल कर भी
पढ़ाई में तेज़ होने की वज़ह से उन्होंने मेडिकल प्रोफेशन चुना और ख़ैबर मेडिकल कॉलेज पेशावर से डाक्टरी की पढाई पूरी की। मुशायरों में शिरक़त की वजह से अब लोग इन्हें शायर के रूप में पहचानने लगे थे।
इनकी शायरी में अक्सर कम्युनिज़्म के प्रति झुकाव नज़र आता था। एक बार ये पाकिस्तान के क्रन्तिकारी शायर जनाब 'हबीब जालिब' साहब की सदारत में मुशायरा पढ़ रहे थे। हबीब जालिब से जिया उल हक़ साहब की सरकार ख़ासी नाराज़ थी। जालिब' साहब से पाकिस्तान की सभी सरकारें नाराज़ रहीं उन्होंने जितना वक़्त जेल की दीवारों के पीछे गुज़ारा उतना शायद ही किसी और शायर ने कभी गुज़ारा हो। मुशायरे के बाद बुज़ुर्ग हबीब जालिब साहब ने उन्हें पाकिस्तान में कम्युनिज़्म की मशाल थामने का मशवरा दिया। हबीब साहब और उनके बहुत से चाहने वालों की तरफ़ से बार बार जोर दिए जाने पर आसिम साहब इन्क़लाबी शायरी करने लगे। शायर के साथ साथ बतौर डॉक्टर भी इनका नाम तेजी से पाकिस्तान में फैलने लगा था। जब हुक़ूमत को इनकी इंक़लाबी शायरी की भनक लगी तो इन्हें भी हबीब जालिब साहब की तरह घेरने की योजना बनाई जाने लगी। इससे पहले की जिया उल हक़ की सरकार इन्हें सीखचों के पीछे बंद करती ये मेडिकल की एडवांस पढाई करने यू.के.आ गए। यहाँ आ कर उन्होंने मेडिसिन की पोस्ट ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल की और फिर यू. के. में वहीँ की नागरिकता लेकर बस गए। जिया उल हक़ और उन जैसे बहुत से दूसरे तानाशाहों के ज़ुल्मों से तंग आकर पाकिस्तान को अदब के बेहतरीन ख़िदमदगारों और दूसरे प्रोफेशन के कामयाब लोगों को जब अपना मुल्क़ छोड़ना पड़ा तो इससे मुल्क़ को कितना बड़ा नुक़सान हुआ इसका अंदाज़ा शायद ही कभी ये तानाशाह लगा पायें।
बाइस तो मिरे क़त्ल का हालात हैं मेरे
क़ातिल मेरा दुश्मन है कि दुनिया है कि मैं हूंँ
*
दूर उफ़ुक़ पर सूरज उभरा है लेकिन
कौन हटाएगा खिड़की से पर्दों को
करते हैं जो लोग तिजारत शीशों की
खुद ही नहीं पहचानते अपने चेहरों को
*
देने लगा हूं जन्नत-ओ-दोजख़ के हुक्म भी
परवरदिगार रोक ख़ुदा हो रहा हूंँ मैं
*
न था मुम्किन वहाँ हालात को तब्दील करना
जहांँ तारीख़ को यक्सर भुलाया जा चुका था
यक्सर: पूरी तरह
*
हमने तिनके से तो साहिल पे उतर जाना है
इससे आगे नहीं मालूम किधर जाना है
जो गया महफ़िल-ए-याराँ से गया ये कह कर
दिल तो करता नहीं जाने को मगर जाना है
ये कि लगता ही गया बज़्म की रानाई में
और मैं दिल से यह कहता रहा घर जाना है
*
ये कह रही हैं वो आंँखें जो ख़ुद नहीं खुलतीं
शदीद आँधियों में आज़माए जाएंँ चराग़
शदीद: तेज
अगर नज़र को अंधेरे में तेज रखना है
तो फिर यह अम्र है लाज़िम बुझाए जाएंँ चराग़
अम्र: काम
*
कैसे उस आंँगन को 'आसिम' कमरे में तब्दील करूं
जिसमें चिड़िया और तितली से मेरी बेटी खेली है
आसिम साहब का यू. के. आने और वहां की नागरिकता लेने का फ़ैसला उनकी ज़िन्दगी में बहुत अहम तब्दीली लाया। मेडिकल में पोस्ट ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल करने के अलावा उन्हें रॉयल कॉलेज ऑफ आयरलैंड की मेम्बरशिप हासिल हुई , लीडस टीचिंग हॉस्पिटल में रिहेब्लिटेशन मेडिसिन की ट्रेनिंग लेने का मौक़ा मिला बाद में वो शेफील्ड टीचिंग हॉस्पिटल में रिहेब्लिटेशन मेडिसिन के कंसलटेंट नियुक्त हुए जहाँ वो लगभग नौ साल तक काम करते रहे। प्रोफेशनल ज़िन्दगी में तरक़्क़ी के साथ साथ उनकी ज़िन्दगी में रोज़ी साहिबा जो ब्रिटिश नागरिक हैं बतौर शरीके हयात शामिल हुईं। अब उनके परिवार में दो बेहद समझदार और कामयाब बेटियाँ भी हैं जिन पर फ़क्र किया जा सकता है।
रोज़ी साहिबा के अलावा एक और शख़्स ने आसिम साहब की ज़िन्दगी को गुलज़ार किया और वो हैं मशहूर शायर नासिर काज़मी साहब के बेटे जनाब 'बासीर सुल्तान काज़मी' साहब। बासीर साहब ने मैनचेस्टर यूनिवर्सिटी से एम्ए एड और एम्ए फिल की डिग्रियाँ हासिल की हैं। उनकी शायरी यू.के. के मैकेंज़ी स्केवर की एक शिला पर उकेरी गयी है। 1953 में जन्में बासीर साहब जो 1990 में यू.के. आ कर बस गए, आसिम वास्ती साहब के गहरे दोस्त हैं। आसिम साहब के दोस्तों में शायर जनाब 'अब्बास ताबिश' साहब का नाम भी आता है जिनकी पहली किताब जनाब शौक़त वास्ती साहब की रहनुमाई में मंज़र-ए-आम पर आयी थी।
मेरा दिल है मेरी पनाह में तेरा दिल है तेरी पनाह में
मगर इख़्तियार का मस्अला तिरा और है मिरा और है
*
ये बात सच है कि मस् रुफ़ हूँ बहुत फिर भी
सताए जब तुझे तन्हाई तो बुला लिया कर
समझना ठीक नहीं बेवफ़ाई गफ़्लत को
जब आए दिल में कोई शक तो आज़मा लिया कर
*
पूछा था दरवेश से मैंने प्यार है क्या और उसने
काग़ज़ पर इक फूल बनाया साथ बनाई तितली
*
अगर लहू नहीं करता मैं अपने पाँव यहाँ
तिरी ज़मीं पे कहीं रास्ते नहीं होते
यह लोग इज्ज़ की तासीर से नहीं वाक़िफ़
इसीलिए तो यहां मोजज़े नहीं होते
इज्ज़: विनम्रता , मोजज़े: चमत्कार
*
रहते हैं जिस गली में बहुत मालदार लोग
हैरत है उस गली में गदागर नहीं गया
गदागर :भिखारी
*
शहर का हाल अब ऐसा है ज़रा देर अगर
नींद आए भी तो ग़ाफ़िल नहीं हो सकता मैं
*
जो मिरा रिज्क़ है सारा है मेरी क़िस्मत का
ये तो सोचा ही नहीं छीनने वाले तूने
रिज्क़: जीविका, रोज़ी
*
अभी ये लम्स मुकम्मल नहीं हुआ मेरी जान
अभी ये ख़ून के दौरान तक नहीं पहुंचा
लम्स: स्पर्श
यू.के. में ज़िन्दगी ख़ुशगवार तरीके से बसर हो रही थी कि सन 2007 में डाक्टर आसिम को यू ऐ ई के विश्व प्रसिद्ध 'शेख़ ख़लीफ़ा मेडिकल सिटी' से फ़िजिकल मेडिसिन और रिहेब्लिटेशन के सीनियर कंसल्टेंट पद का ऑफर आया। पचास वर्ष की उम्र में जब इंसान किसी एक जगह ठिकाना बना कर रहने की सोचता है अचानक यू.के. से जमा जमाया सब कुछ छोड़कर किसी दूसरी जगह जा कर फिर से आशियाँ बनाने का निर्णय लेना बनाना आसान नहीं होता लेकिन डॉक्टर आसिम ने इस चेलेंज को स्वीकारा और अबुधाबी आ गए। अबुधाबी में आसिम साहब ने बहुत से प्राइवेट और पब्लिक सेक्टर के रिहेब्लिटेशन सेंटर्स के विकास में अभूतपूर्व काम किया। आजकल वो अबुधाबी के विश्वप्रसिद्ध क्लीवलैंड क्लिनिक में स्टॉफ फिजीशियन के पद पर काम कर रहे हैं। रिहेब्लिटेशन के क्षेत्र में डा.आसिम का नाम विश्व के सर्वश्रेष्ठ डॉक्टर्स में शुमार होता है।
डॉक्टर साहब के पास यूँ तो सब कुछ है सिवा वक़्त के। मसरूफ़ियत के चलते वो सोशल मिडिया पर एक्टिव नहीं है इसलिए उनसे इन प्लेटफॉर्म्स के मार्फ़त राबता बनाये रखना बहुत मुश्किल है। इतनी मसरूफ़ियत के बावज़ूद वो अपने प्रोफेशन में से पैशन के लिए वक़्त निकाल ही लेते हैं। शायरी ही उनका पैशन है। वो तकरीबन रोज़ ही शेर कहते हैं उनके लिए शेर कहना शायद सांस लेने जैसा ही अहम् काम है। उन लोगों को जो वक्त की कमी का रोना रो कर अपने पैशन को पूरा नहीं कर पाते डॉक्टर साहब से सीखना चाहिए कि कैसे अपने शौक़ के लिए वक्त निकाला जाय। प्रोफेशन और पैशन के बीच तालमेल बिठाना एक बहुत बड़ी कला है जो डॉक्टर साहब को बखूबी आती है।
पत्थरों में तुझे हीरा नहीं आता है नज़र
तू मेरे दिल का ख़रीदार नहीं हो सकता
हाल जैसा भी हो माहौल बना लेता है
दिल क़लंदर हो तो बेज़ार नहीं हो सकता
क़लंदर : फ़क़ीर
*
देखता रहता है क्यों बैठा परिंदों की तरफ़
तू अगर पर्वाज़ करना चाहता है पर निकाल
लौटने या रुख बदलने के तो हम क़ाइल नहीं
रास्ता रोके अगर दीवार 'आसिम' दर निकाल
*
तअल्लुक़ात में लाज़िम है ताज़गी रखना
ग़लत नहीं जो इबादत में तजर्बा किया जाए
मैं कह रहा हूं दरिंदा है फ़ितरतन हर शख़्स
मिरे बयान पे बेलाग तब्सिरा किया जाए
अगर लगाव है तो बारहा भी जायज़ है
अगर है इश्क़ तो बस एक मर्तबा किया जाए
बारहा: बार बार
*
एक जंगल ही उजाड़ा हमने
शहर जब भी कोई आबाद किया
*
संभलता ही नहीं है वक्त हमसे
बहुत करते हैं ख़ुद अपना जियाँ हम
जियाँ :नुकसान
*
ये बताओ मुझे तुमसे कोई एहसान मेरा
जब उठाया नहीं जाता तो उठाते क्यों हो
यू.ऐ.ई.के ही नहीं भारत और पाकिस्तान के युवा शायर डॉक्टर आसिम की शायरी के क़ायल हैं और कहीं न कहीं उनकी शैली अपनाते भी दिखाई देते हैं। उनकी शायरी के बारे में सय्यद सरोश साहब फरमाते हैं कभी हमें किसी शेर को पढ़ सुन कर हैरत होती है और कुछ वक़्त बाद हो के ख़तम हो जाती है लेकिन आसिम साहब के शेर की जो हैरत है उसे सुन कर आप घर पे आएंगे आप सोचते रहेंगे आप दूसरे दिन सो के उठेंगे तब भी ख़तम नहीं होगी। उनका शेर आपको देर तक बांधे रखता है। आसिम साहब के यहाँ शायरी बहुत लिबरल है याने वो सख़्त मिज़ाज़ी नहीं है कि शायरी में ऐसा हो ही नहीं सकता या आप ऐसा कर ही नहीं सकते। उनके यहाँ शायरी में फ्रीडम है और उन्हें नए-नए तजुर्बे करने से परहेज़ नहीं है। वो अपने शागिर्दों को बंधी बंधाई लीक को छोड़ कर अलग रास्ता बनाने को कहते हैं लेकिन इसके साथ ही लफ्ज़ को सलीके से बरतने, जम के पहलु से परहेज़ करने और उरूज़ की बंदिशों को मानने पर भी जोर देते हैं। शायरी में वो ज़बान को बहुत अहमियत देते हैं उनके यहाँ आपको बहुत सजे सजाये मिसरे मिलेंगे जैसे किसी से कोई बात कही जा रही हो। उनका ये भी कहना है कि जब भी किसी का शेर आपकी नज़र से गुज़रे तो पहले उसे चार ज़ानिब से देखें और फिर देखें कि क्या इसमें पांचवी जानिब कोई रास्ता निकल सकता है। बातें तो शायरी में लगभग सब कही जा चुकी हैं ऐसे में आप उन्हीं बातों को नए जाविये से पेश कर सकते हैं या नए लफ़्ज़ों के माध्यम से कह सकते हैं ताकि वही बात जो कई मर्तबा सुनी जा चुकी है सुनने वाले को एक दम नई सी लगे।
आसिम वास्ती साहब की ग़ज़लों की तीन किताबें 'किरण किरण अँधेरा' सं 1989 में , 'आग की सलीब' सन 1995 में 'तेरा एहसान ग़ज़ल है' सन 2009 में और नज़्मों की एक किताब 'तवस्सुल' सन 2017 में मंज़र ए आम पर आ चुकी हैं और उर्दू शायरी के दीवानों में काफ़ी मक़बूलियत हासिल कर चुकी हैं। हिंदी में उनकी एकमात्र किताब 'लफ़्ज़ मेहफ़ूज़ कर लिए जायँ' सन 2018 में रेख़्ता ने प्रकाशित की। अगर आप अच्छी शायरी पढ़ने के शौक़ीन हैं कुछ नया सा पढ़ना चाहते हैं तो आसिम वास्ती साहब की देवनागरी में छपी ये किताब आपके पास होनी ही चाहिए। इस किताब में उनकी लगभग 150 बेहतरीन ग़ज़लें शामिल हैं जिनका हर शेर आपको बेहद मुत्तासिर करेगा और आप उसके तिलस्म से आसानी से नहीं निकल पाएंगे।
डॉक्टर साहब क्यूंकि बेहद मसरूफ़ शख़्सियत हैं इसलिए हो सकता है वो आपका फोन न ले पाएं इसलिए अगर आप उन्हें इस किताब के लिए मुबारक़बाद देना चाहें तो जनाब सय्यद सरोश आसिफ़ साहब को +971 50 305 3146 पर व्हाट्सएप कर देंगे। आपका सन्देश डॉक्टर साहब तक शर्तिया पहुँच जायेगा।
आखिर में मैं जनाब सय्यद सरोश आसिफ़ साहब और रेख़्ता के जनाब सालिम सलीम साहब का बेहद शुक्रगुज़ार हूँ जिनकी मदद के बिना ये पोस्ट लिखनी मुमकिन नहीं होती।
पेश हैं डॉक्टर सबाहत आसिम वास्ती साहब की ग़ज़लों के कुछ और शेर :
ख़ुदाई के भरोसे आ गए हैं
खुले सेहरा में ज़ेर-ए-आसमाँ हम
ज़ेर ए आसमाँ: आसमाँ के नीचे
कहानी में नुमायाँ हो रहे हैं
परिंदे पेड़ आंधी आशियांँ हम
*
बूंद में देखती है बेचैनी
आंख ठहरी हुई रवानी की
बेगुनाहों को पहले क़त्ल किया
फिर जनाजों पे गुल-फ़िशानी की
*
मुसलसल गुफ्तगू करता रहा वाइज़ बदन की
हमें उम्मीद ये थी बात रूहानी करेगा
*
घर के अंदर है बहुत खूब तेरा बाग़ीचा
घर की दहलीज़ से बाहर भी तो फुलवारी रख
*
महाज़ ए जंग पे लाया हूं साथ चंद गुलाब
दुआ करो कि ये हथियार कारगर हो जाए
महाज़ ए जंग: रणभूमि
*
घर के मुआमलात पे हर रात देर तक
करते हैं गुफ़्तगू दर-ओ-दीवार और मैं
*
बताएंँ किस तरह तन्क़ीद में इंसाफ़ बरतेंगे
अगर हम आपके मेयार से बेहतर निकल आए
तन्क़ीद: आलोचना, मेयार :कसौटी
*
तमाम वक्त़ गुजरता है अपने साथ तिरा
तू अपने आप से उकता गया तो क्या होगा
- नीरज गोस्वामी