तेज़ आंधी में किसी जलते दिए की सूरत
मेरे होंठों पे लरज़ता है तिरा नाम अभी
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पहले कहाँ थे हम में उड़ानों के हौसले
ये तो कफ़स में आ के हमें बाल-ओ-पर लगे
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अश्क देखा है तिरि आँखों में
तब कहीं डूबना आया है मुझे
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मुतमइन मेरे बदन से कोई ऐसा तो न था
जैसे ये तीर हैं, आराम से निकले ही नहीं
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गुज़रे वक्त को याद करें अब वक़्त कहाँ
कुछ लम्हे तो एक ज़माना चाहते हैं
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मैंने देखा ही नहीं था तिरे दर से आगे
मैंने सोचा ही नहीं था कि किधर जाऊंगा
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नज़र भी तनफ़्फ़ुस का देती है काम
ज़रा देखिये तो किसी की तरफ
तनफ़्फ़ुस=साँस
क्या जरुरी है कि जो हमेशा करते आएं हैं वही किया जाय ? क्यों नहीं कुछ बदलाव किया जाय क्यूंकि बदलाव ही जीवन है। मज़ा ही लीक तोड़ने में है ,शायद आपको पता न हो "नीरज गोस्वामी " नाम के एक मामूली शायर का शेर है कि ' लुत्फ़ है जब राह अपनी हो अलग ,लीक पर चलना कहाँ दुश्वार है". तो आज लीक पर पूरी तरह से न चलते हुए उसके आसपास चलते हैं ,शायद इससे कुछ अलग सा लुत्फ़ आ जाये और नीरज जी की बात सच साबित हो जाय। शुरुआत तो हमने कर ही दी है, फुटकर शेर पहले दे दिए हैं जो अमूमन आखिरी में आते हैं। ऊपर दिए शेर पढ़ कर आप को ये अंदाज़ा तो हो ही गया होगा कि शायर का नाम जो हो उनका काम जरूर ख़ास है और इसी ख़ासियत की वजह ने ही मुझे उनका काम आप तक पहुँचाने पर मज़बूर किया है।
जाने क्या बातें करती हैं दिन भर आपस में दीवारें
दरवाज़े पर क़ुफ़्ल लगा कर, हम तो दफ्तर आ जाते हैं
क़ुफ़्ल=ताला
अपने दिल में गेंद छुपा कर उनमें शामिल हो जाता हूँ
ढूंढते ढूंढते सारे बच्चे मेरे अंदर आ जाते हैं
नाम किसी का रटते रटते एक गिरह सी पड़ जाती है
जिन का कोई नाम नहीं, वो लोग ज़बाँ पर आ जाते हैं
मैं तो अपने तजुर्बे से ही कह सकता हूँ कि पढ़ना बहुत अच्छी आदत है। पढ़ते रहने से आप बहुत अच्छे शायर भले न हो पाते हों लेकिन आपकी शायरी की समझ जरूर बेहतर हो जाती है। आप अच्छे-बुरे में थोड़ा बहुत फ़र्क करना सीख जाते हैं और जब कभी इत्तेफ़ाकन कोई अच्छी शायरी नज़रों से गुज़रती है तो आपके मन में फील-गुड फैक्टर आ ही जाता है। एक अच्छा शेर आपके पूरे दिन को महका सकता है। मेरी बात से आप इत्तेफ़ाक़ रखें ये बिलकुल जरूरी नहीं है। आप तो बस शायरी का लुत्फ़ लें, ये बातें तो यूँ ही होती रहेंगी।
इसे ये घर समझने लग गए हैं रफ़्ता रफ़्ता
परिंदों से क़फ़स आज़ाद करवाना पड़ेगा
क़फ़स=पिंजरा
उदासी वज़्न रखती है जगह भी घेरती है
हमें कमरे को ख़ाली छोड़ कर जाना पड़ेगा
कहीं संदूक ही ताबूत बन जाय न इक दिन
हिफाज़त से रखी चीज़ों को फैलाना पड़ेगा
परिंदे से कफ़स आज़ाद करने वाली बात ने तो कसम से मेरा दिल तो लूट ही लिया, आप पर क्या असर किया ये अब मुझे तो कैसे मालूम पड़ेगा ? खैर!! कहने का सीधा सा मतलब ये कि आज जिस किताब का जिक्र हो रहा है उसे मैंने पिछले एक महीने में बहुत आराम से पढ़ा एक एक पेज पर ठिठक कर लुत्फ़ लेते हुए। ये किताब है ही ऐसी कि इसे सरसरी तौर पर नहीं पढ़ा जा सकता। पता ही नहीं चलता कि अचानक कोई ऐसा शेर आपके सामने आ जाता है जो रास्ता रोक के अपने पास बैठा लेता है -कभी एक दोस्त की तरह, कभी किसी अज़ीज़ की तरह तो कभी उसकी तरह जिसका जिक्र दिल में घंटियां बजाने लगता है।
ये मेज़ ये किताब, ये दीवार और मैं
खिड़की में ज़र्द फूलों का अंबार और मैं
इक उम्र अपनी अपनी जगह पर खड़े रहे
इक दूसरे के ख़ौफ़ से, दीवार और मैं
ख़ुश्बू है इक फ़ज़ाओं में फैली हुई,जिसे
पहचानते हैं सिर्फ सग-ए-यार, और मैं
सग-ए-यार=महबूब का कुत्ता
एक बात बताऊँ, ज्यादा तो नहीं लेकिन मैंने करीब 300 ग़ज़लों की किताबें तो अब तक पढ़ ही डाली होंगी पर कहीं किसी किताब में मैंने महबूब के कुत्ते का ज़िक्र इस तरह से किया हुआ नहीं पढ़ा और तो और 'सग-ए -यार' लफ्ज़ भी मेरी नज़रों से नहीं गुज़रा , हो सकता है इसकी वजह मेरा उर्दू में हाथ तंग होना हो। अब आप पूछेंगे कि ऐसा अनूठा शायर है कौन और किस किताब का जिक्र किया जा रहा है ? तो जवाब है कि शायर हैं ज़नाब "ज़ुल्फ़िकार आ'दिल" और किताब है "मौसम इतना सर्द नहीं था ". एक और बात भी बताये देता हूँ कि इस किताब को पढ़ने से पहले मैंने न तो जनाब "ज़ुल्फ़िकार आ'दिल " का नाम सुना था और न ही उनका लिखा कहीं पढ़ा था। इसका अगर कारण पूछेंगे तो मासूम सा चेहरा बना कर जवाब दूंगा कि इनका लिखा हिंदी में शायद आसानी से कहीं पढ़ने को उपलब्ब्ध नहीं है। ये बात सरासर गलत भी हो सकती है लेकिन मेरे लिए सही है।
इक तस्वीर मुकम्मल कर के उन आंखों से डरता हूँ
फस्लें पक जाने पर जैसे दहशत इक चिंगारी की
हम इन्साफ नहीं कर पाए, दुनिया से भी, दिल से भी
तेरी जानिब मुड़ कर देखा ,या'नी जानिबदारी की
जानिबदारी=पक्षपात
अपने आप को गाली दे कर घूर रहा हूँ ताले को
अल्मारी में भूल गया हूँ, फिर चाबी अल्मारी की
कोई ज़माना था जब ग़ज़लों की कोई नयी किताब साल भर में नज़र आया करती थी तब लोग ग़ज़लें पढ़ते और सुनते ज्यादा थे अब आलम ये है कि ग़ज़ल की किताबें थोक में छप रही हैं, लोग पढ़ते सुनते कम हैं और लिखते ज्यादा हैं। ये जो सोशल मिडिया पे तुरंत लाइक और वाहवाही का दौर चला हुआ है उसकी बदौलत सामइन से ज्यादा शायर हो गए हैं मारकाट मची हुई है और इस से सबसे ज्यादा नुक़सान शायरी को ही हो रहा है. वो ही घिसे पिटे भाव वो ही हज़ारों बार बरते लफ्ज़ और उपमाएं अब तो उबकाई पैदा करने लगे हैं , ऐसे में किसी जुल्फ़िक़ार आ'दिल की शायरी बाज़ार में मिलने वाले रंग बिरंगे पानियों (कोल्ड ड्रिंक ) के बीच मख्खन की डली पड़ी हुई लस्सी की तरह है।
अश्क इस दश्त में, इस आँख की वीरानी में
इक मोहब्बत को बचाने के लिए आता है
यूँ तिरा ख़्वाब हटा देता है सारे पर्दे
जिस तरह कोई जगाने के लिए आता है
एक किर्दार की उम्मीद में बैठे हैं ये लोग
जो कहानी में हँसाने के लिए आता है
इस बेजोड़ शायर की पहली ग़ज़ल मैंने लफ़्ज़ पत्रिका के एक तरही मुशायरे में पढ़ी थी। ग़ज़ल ग़ज़ब थी और शायर अनजान। तब किसने सोचा था कि कभी इनकी किताब पे लिखने का मौका मिलेगा। ज़ुल्फ़िकार आ'दिल साहब के बारे में जानने की मेरी सभी तरकीबें नाकामयाब रहीं ,गूगल महाशय खामोश ही रहे यार दोस्तों ने अजीब सी शक्ल बना के कहा कौन ज़ुल्फ़िकार ? पाकिस्तान में अपना कोई परिचित है नहीं जिसके यहाँ गुहार लगाते। कहाँ कहाँ किसे किसे नहीं कहा लेकिन नतीज़ा -ठन-ठन गोपाल। ले दे के जितनी जानकारी मुझे इस किताब से हासिल हुई वो ही साझा कर रहा हूँ।पहली बात तो ये कि जनाब 15 फ़रवरी 1972 को पंजाब के शहर शुजाआ'बाद (मुल्तान) में पैदा हुए। ये बताने की जरुरत तो नहीं है न कि मुल्तान पकिस्तान में है। पेशे से हुज़ूर मेकैनिकल इंजिनियर हैं तभी तो इनकी शायरी में इतना परफेक्शन है , सब कुछ एक दम सही अनुपात में ,नपा-तुला। मेरे कहने पे शक हो तो आप उसी तरह ग़ज़ल के ये शेर पढ़ें जो मैंने लफ़्ज़ में पढ़ी थी :
अपने आग़ाज़ की तलाश में हूँ
अपने अन्जाम का पता है मुझे
बैठे-बैठे इसी ग़ुबार के साथ
अब तो उड़ना भी आ गया है मुझे
रात जो ख़्वाब देखता हूँ मैं
सुब्ह वो ख़्वाब देखता है मुझे
कोई इतने क़रीब से गुज़रा
दूर तक देखना पड़ा है मुझे
मुझे ये मानने में कतई गुरेज़ नहीं है कि ज़ुल्फ़िकार साहब की शायरी मीर-ओ-ग़ालिब या फिर फ़िराक़-ओ-जोश जैसी नहीं है और हो भी क्यों ? जब ओरिजिनल मौजूद हैं तो डुप्लीकेट की जरूरत क्यों हो ? उनकी शायरी ज़ुल्फ़िकार जैसी है और ये कोई छोटी मोटी बात नहीं। उर्दू शायरी के इस अथाह सागर में अपनी पहचान बनाना बहुत बड़ी बात है। अनुसरण वो करते हैं जिनके पास अपना खुद का कुछ नहीं होता। मज़ा तब है जब भीड़ आपके पीछे चले, आप किसी के पीछे भीड़ का हिस्सा बन के चलें इसमें क्या मज़ा है ? मैं पाकिस्तान के मशहूर शायर जनाब "ज़फ़र इक़बाल" साहब की इस बात से इत्तेफ़ाक़ रखता हूँ कि "शे'र तो वो होता है जिसे पढ़ कर दूसरों के साथ भी शेयर करने को जी चाहे। उम्दा शेर तो हमेशा रहने वाले दान की तरह होता है। शेर का दूसरों से मुख़्तलिफ़ होना ही इसकी अस्ल खूबी है "
तुम मुझे कुछ भी समझ सकते हो
कुछ नहीं हूँ तो ग़नीमत समझो
ये जो दरिया की ख़मोशी है इसे
डूब जाने की इज़ाज़त समझो
मैं न होते हुए हो सकता हूँ
तुम अगर मेरी ज़रूरत समझो
ज़ुल्फ़िकार सिर्फ शायर होते तो बात अलग थी लेकिन ये पूरा पैकेज हैं याने ये पूछिए कि क्या नहीं हैं। इंजिनियर हैं ये तो मैं बता ही चुका हूँ ,बिलकुल अलग किस्म के शायर हैं ये आपको अब तक अंदाज़ा हो ही गया होगा इसके अलावा हज़रत ने स्टेज के लिए न सिर्फ ड्रामे लिखे बल्कि उनका निर्देशन और उनमें अभिनय भी किया है। टी.वी ड्रामे भी लिखे और उनके लिए गीत भी। कहानियां तो खैर ढेरों लिखी ही हैं एक उपन्यास भी मुकम्मल करने में लगे हुए हैं। इन सब से जब फुर्सत मिलती है तो मुशायरों बाकायदा हाज़री बजाते हैं , मुशायरा चाहे पाकिस्तान में हो हिंदुस्तान में या किसी भी और मुल्क में।
कुछ बताते हुए, कुछ छुपाते हुए
मैं हंसा, मा'ज़रत, रो दिया मा'ज़रत
मा'ज़रत=क्षमा
जो हुआ, जाने कैसे हुआ, क्या खबर
जो किया, वो नहीं हो सका, मा'ज़रत
हमसे गिर्या मुकम्मल नहीं हो सका
हमने दीवार पर लिख दिया मा'ज़रत
गिर्या =विलाप
मैं कि खुद को बचाने की कोशिश में था
एक दिन मैंने खुद से कहा, मा'ज़रत
भला हो रेख़्ता फाउंडेशन का जिसने रेख़्ता बुक्स की स्थापना की है। रेख़्ता बुक्स का उद्देश्य बुनियादी तौर पर उर्दू शायरी और उसके प्रेमियों के दरमियान किताब का पुल बनाने का प्रकाशन-प्रोजेक्ट है। इसी प्रोजेक्ट का हिस्सा है 'रेख़्ता हर्फ़-ए-ताज़ा सीरीज' जिसके अंतर्गत इस किताब का प्रकाशन हुआ है। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप रखता बुक्स को उनके पते "बी-37, सेक्टर-1, नोएडा -201301 पर पत्र लिखें या contact@rekhta.org पर मेल करें। ये किताब अमेज़न से भी ऑन लाइन मंगवा सकते हैं। ये किताब पढ़ने लायक है इसमें कोई शक नहीं। पढ़िए और आनंद लीजिये। चलते चलते एक ग़ज़ल के ये शेर भी पढ़िए :
सोचा ये था वक़्त मिला तो टूटी चीज़ें जोड़ेंगे
अब कोने में ढेर लगा है, बाकी कमरा खाली है
बैठे-बैठे फेंक दिया है आतिश-दान में क्या क्या कुछ
मौसम इतना सर्द नहीं था जितनी आग जला ली है
अपनी मर्ज़ी से सब चीज़ें घूमती फिरती रहती हैं
बे तरतीबी ने इस घर में इतनी जगह बना ली है
ऊपर सब कुछ जल जायेगा कौन मदद को आएगा
जिस मंज़िल पर आग लगी है सब से नीचे वाली है
यूँ तो मैं चला ही गया था लेकिन लौट के सिर्फ ये बताने आया हूँ कि अगर आप ये सोच रहे हैं कि जैसा मैंने शुरू में लिखा था कि इस बार थोड़ा लीक से हटते हैं तो हटा क्यों नहीं ?या कहाँ हटा ? सब कुछ वैसा ही तो है जैसा पुरानी पोस्ट्स में होता था इसमें नया है क्या ? तो जवाब दूंगा कि कुछ भी नया नहीं है जी ये तो आपको नए की खोज में पूरी पोस्ट पढ़वा ले जाने का एक घिसा-घिसाया, पिटा-पिटाया नुस्खा था जिसे मैं ही नहीं, सभी जब मौका मिले दोहराते रहते हैं। मैंने कहा और आपने मान लिया - हाय कितने भोले हैं आप !! ज़माना ख़राब है जी यूँ आँख बंद कर के लोगों पर भरोसा करना छोड़िये। बोनस के तौर पर ये शेर पेशे खिदमत हैं :
जितना उड़ा दिया गया
उतना गुबार था नहीं
पानी में अक्स है मिरा
पानी मगर मिरा नहीं
सोचा कि रात ढल गयी
सोचा मगर कहा नहीं
कश्ती तो बन गयी मगर
कश्ती से कुछ बना नहीं
इस किताब में ढेरों शेर हैं जिसे आप तक पहुंचा कर मुझे ख़ुशी मिलती ,लेकिन ये संभव नहीं है। संभव ये है की आप इस किताब को मंगवाएं और फिर धीरे धीरे आराम से पढ़ें और ज़ुल्फ़िकार आ'दिल को दिल से दुआ दें।आदत से बाज़ न आते हुए कुछ फुटकर शेर और पढ़वाता चलता हूँ :
डर मिरे दिल से नहीं निकला तो अब क्या कीजिये
जितना मर सकता था मैं, उस से ज़ियादा मर गया
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खर्च कर देता हूँ सब मौजूद अपने हाथ से
और नामौजूद की धुन में लगा रहता हूँ मैं
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दरिया, दलदल,परबत, जंगल अंदर तक आ पहुंचे थे
इस बस्ती के रहने वाले तन्हाई से ख़त्म हुए
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दीवारों को दरवाज़े को आँगन को
घर आने की आदत ज़िंदा रखती है
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क्या देखा और क्या न देखा याद नहीं कुछ याद नहीं
नैनो के कहने में आ कर हम ने नीर बहाये नी
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जाने किस वक़्त नींद आयी हमें
जाने किस वक़्त हम तुम्हारे हुए
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पलकें झपक झपक के उड़ाते हैं नींद को
सोए हुओं का क़र्ज़ अदा कर रहे हैं हम
- नीरज गोस्वामी