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Book Review: Khidki To Main Ne Khol Hi Li

by Rekhtabooks on Mar 25, 2022
Book Review: Khidki To Main Ne Khol Hi Li
खुद भी आखिर-कार उन्हीं वादों से बहले 
जिन से सारी दुनिया को बहलाया हमने 
 
मौत ने सारी रात हमारी नब्ज़ टटोली 
ऐसा मरने का माहौल बनाया हमने 
 
घर से निकले चौक गए फिर पार्क में बैठे 
तन्हाई को जगह जगह बिखराया हमने 


मुशायरों के बारे में साहित्य अकादमी पुरूस्कार से सम्मानित आज के मशहूर शायर जनाब 'अमीर इमाम' ने अपने एक लेख में लिखा था कि "मुशायरे एक समारोह की तरह हैं जहां शायर अपनी शायरी लोगों तक पहुँचाता है। इस समारोह में शायरी वहां उपस्थित हर इक व्यक्ति के दिल पर अलग अलग तरीके से पहुँचती है। कुछ शायर अपनी शायरी को प्रत्येक के दिल तक पहुँचाने के प्रयास में अति नाटकीयता से काम लेते हैं तो कुछ अपने सुरीले गले से। ज्यादातर वो शायर जिनके पास कहने सुनने के लिए नया कुछ नहीं होता वो ही ऐसे हथकंडे अपनाते हैं, वो नाटकीयता और तरन्नुम से अपनी कमज़ोर शायरी को ढांपने का प्रयास करते हैं." अगर आप मुशायरों में जाते हैं तो अमीर की इस बात से सहमत जरूर होंगे।

तिरे ग़म से उभरना चाहता हूँ 
मैं अपनी मौत मरना चाहता हूँ 
 
ये फ़न इतना मगर आसाँ कहाँ है 
जरुरत भर बिखरना चाहता हूँ 
 
नहीं ढोना ये बूढ़ा जिस्म मुझको 
सवारी से उतरना चाहता हूँ 
 
तभी मैं मश्वरा करता हूँ सब से 
जब अपने दिल की करना चाहता हूँ


'अमीर' की ही बात को मुंबई के बड़े मशहूर शायर “शमीम अब्बास” साहब ने उर्दू स्टूडियो को दिए एक इंटरव्यू में यूँ कहा है कि " आजकल के मुशायरों से शायरी का भला नहीं होता हाँ उर्दू ज़बान जरूर बहुत से लोगों तक पहुँचती है , मुशायरा सुनने जो लोग आते हैं उनमें से ज्यादातर मनोरंजन के लिए आते हैं इसलिए जो शायर उनका चुटकुले सुना कर ,अदाएं दिखा कर या गा कर मनोरंजन करता है वो मुशायरा लूट लेता है। ऐसे मुशायरा लूटने वाले शायरों की शायरी सिर्फ उसी मुशायरे तक महदूद या सीमित रहती है और फिर भुला दी जाती है। अदब से जुड़ा हुआ तबका उनकी शायरी पर कभी गुफ़्तगू नहीं करता। लेकिन ऐसे शायरों की तादाद भी कम नहीं जिन्हें दुनिया भले न जाने ,अदब से, लिटरेचर से जुड़े लोग जानते हैं और उनके बारे में गुफ़्तगू करते हैं, उनकी शायरी की चर्चा करते हैं, एक दूसरे को सुनाते हैं जो बहुत बड़ी बात है। अच्छी या बुरी शायरी तो हमेशा से होती आयी है लेकिन पिछले कुछ सालों में मुशायरों का मयार इस क़दर गिरा है कि अब उन्हें मुशायरा कम तमाशा कहना ज्यादा मुनासिब होगा।"

 मैं भी क़तरा हूँ तिरि बात समझ सकता हूँ 
ये कि मिट जाने के डर से कोई दरिया हो जाय 
 
सब को होना है बड़ा और बड़ा और बड़ा 
कौन है इतना समझदार कि बच्चा हो जाय 
 
जिस्म की सतह पे मिलते ही नहीं हम वर्ना 
दो मुलाकातों में ये इश्क पुराना हो जाय 


आज हम जिस शायर की बात करने वाले हैं उन्हें अदब या लिटरेचर से जुड़े लोग तो सम्मान देते ही हैं साथ ही आम लोग जिनमें आज की युवा पीढ़ी भी शामिल है उनके अशआर की दीवानी है। तन्हाई को जगह जगह बिखराने वाले ,अपने दिल की सुनने वाले और रूहानी इश्क की बातें करने वाले इस अद्भुत शायर को मुशायरों में न आप अदाकारी करते देखेंगे ,न तरुन्नम में पढ़ते और न ही सामईन से अपने शेरों पर दाद देने की भीख मांगते। चौड़े माथे पर चश्मा लगाए,ज़बान से होंठ तर करते हुए जब वो माइक पर आ कर निहायत सादगी से अपना कलाम पढ़ते हैं तो सुनने वालों को लगता है जैसे जून-जुलाई की उमस में किसी ठन्डे झरने के नीचे आ बैठे हों। अशआर की फुहारों से सामईन भीग भीग जाते हैं.वो सुनाते जाते हैं और श्रोता झूमते जाते हैं। मैं बात कर रहा हूँ जनाब " शारिक़ कैफ़ी" साहब की जिनकी किताब "खिड़की तो मैंने खोल ही ली " मेरे सामने है। चलिए अब इस किताब के सफ्हे पलटते हैं :

 हासिल करके तुझ को अब शर्मिंदा सा हूँ
 था इक वक़्त कि सचमुच तेरे क़ाबिल था मैं 
 
कौन था वो जिसने ये हाल किया है मेरा 
किस को इतनी आसानी से हासिल था मैं 
 
सारी तवज्जो दुश्मन पे मर्कूज़ थी मेरी 
अपनी तरफ़ से तो बिल्कुल ग़ाफ़िल था मैं 
मर्कूज़ = केंद्रित 


कभी किसी हसीना का बाजार में झुमका खोने के कारण मश्हूर हुए 'बरेली' के उस्ताद शायर जनाब कैफ़ी वजदानी ( सैय्यद रिफ़ाक़त हुसैन ) के यहाँ पहली जून 1961 को जो बेटा पैदा हुआ उसका नाम सय्यद शारिक़ हुसैन रखा गया। विरासत में हासिल हुई शायरी के चलते शारिक़ छुटपन से ही शेर कहने लगे। पिता के साये में शायरी करते तो रहे लेकिन मन में रिवायत से हट कर कुछ अलग सा कहने की ठान ली। रिवायती शायरी को बिलकुल नए रंग और जाविये से संवारने की मशक्कत के साथ साथ वो बरेली कॉलेज से बी.एस.सी की पढाई भी करते रहे और शारिक़ कैफ़ी के नाम से शायरी भी करने लगे । बी एस सी करने के बाद उर्दू में एम् ऐ की डिग्री भी हासिल कर ली।

कांच की चूड़ी ले कर जब तक लौटा था 
उस के हाथों में सोने का कंगन था 
 
रो-धो कर सो जाता लेकिन दर्द तिरा 
इक-इक बूँद निचोड़ने वाला सावन था 
 
तुझ से बिछड़ कर और तिरि याद आएगी 
शायद ऐसा सोचना मेरा बचपन था 


 उर्दू, शारिक़ साहब ने नौकरी के लिए नहीं ,अपनी शायरी को माँजने के लिए सीखी थी तभी उनकी शायरी में न सिर्फ विचार ,कला का अनूठा सामंजस्य और एक जज़्बाती ज़िंदगी फैली हुई है बल्कि उर्दू ज़बान की मिठास भी घुली हुई है। नौकरी के लिए उन्होंने अपनी बी एस सी की डिग्री का सराहा लिया और बरेली की एक कैमिकल फैक्ट्री में बतौर चीफ केमिस्ट काम करने लगे शायद इसी कारण से उनके शेरों के मिसरा-ए-ऊला और सानी में इतनी जबरदस्त केमिस्ट्री है। अपने खास दोस्तों 'खालिद जावेद' जो जामिया मिलिया में पढ़ाते हैं और 'सोहेल आज़ाद' साहब की सोहबत और पड़ौस में रहने वाले 1956 में जन्में कद्दावर शायर जनाब "आशुफ़्ता चंगेज़ी" जो 1996 में अचानक ग़ायब हो गए, की रहनुमाई में शारिक़ कैफ़ी साहब ने ग़ज़ल की बारीकियों को तराशा।

वो जुर्म इतना जो संगीन उसको लगता है 
किया था मैं ने कोई पल गुज़ारने के लिए 
 
उसी पे वुसअतें खुलती हैं दश्त-ओ-सहरा की
जिसे कोई भी न आये पुकारने के लिए 
वुसअत=फैलाव , दश्त-ओ-सहरा =जंगल और रेगिस्तान 
 
इक और बाज़ी मुझे उसके साथ खेलना है 
उसी की तरह सलीक़े से हारने के लिए 


आखिर वो लम्हा 1989 में आया जो किसी भी शायर की ज़िन्दगी में बहुत अहम मुकाम रखता है याने उनकी पहली किताब का प्रकाशित होना । "आम सा रद्द-ऐ-अमल" मंज़र-ऐ-आम पर क्या आई खलबली सी मच गयी. लोग चौंक उठे। एक बिलकुल नए शायर का रिवायत को अपने ढंग से संवारने का अनूठा अंदाज़ पाठकों को बहुत भाया। किताब की हर किसी ने भूरी भूरी प्रशंशा की ,पाठकों ने उसे हाथों हाथ उठा लिया। उर्दू के नामवर शायर जनाब 'शहरयार' साहब ने चिठ्ठी लिख कर उनकी हौसला अफ़ज़ाही की। किसी भी नए शायर के लिए ये बात बायसे फ़क्र हो सकती है ,ये भी मुमकिन है की इतनी तारीफ बटोरने के बाद शायर के पाँव जमीन पर न पड़ें लेकिन साहब शारिक़ कैफ़ी कोई यूँ ही शारिक़ कैफ़ी नहीं बनता क्यूंकि हुआ इसके बिलकुल ठीक उल्टा। पहली ही किताब के इतने मकबूल होने के बाद शारिक़ साहब जो शेर कहें वो उन्हें अपनी पहली किताब में शाया हुए शेरों से उन्नीस ही लगें, उनका मुकाबला अब किसी और से नहीं खुद अपने आप से था. लिहाज़ा बहुत कोशिशों के बाद भी जब उन्हें अपनी शायरी, जितना वो चाहते थे उस, स्तर की नहीं लगी तो उन्होंने तंग आ कर शेर कहना ही छोड़ दिया। आप यकीन करें न करें लेकिन हक़ीक़त ये है कि उन्होंने फिर 17 सालों तक एक भी शेर नहीं कहा।

पढाई चल रही है ज़िन्दगी की 
अभी उतरा नहीं बस्ता हमारा 
 
किसी को फिर भी मंहगे लग रहे थे 
फ़क़त साँसों का ख़र्चा था हमारा 
 
तरफ़दारी नहीं कर पाए दिल की 
अकेला पड़ गया बंदा हमारा 
 
हमें भी चाहिए तन्हाई 'शारिक़' 
समझता ही नहीं साया हमारा 


ऐसा नहीं है कि एकांत वास के इस लम्बे सत्रह सालीय दौर में वो चुप बैठे रहे, उन्होंने लिखा और अपने लिखे को तब तक तराशते रहे जब तक कि उन्हें पूरी तसल्ली नहीं हो गयी। खुद के लिखे को बड़ी बेरहमी से ख़ारिज करते रहे ,घिसते रहे और आखिर हिना की तरह घिस घिस कर कहे शेर जब मंज़र-ए -आम पर आये तो पढ़ने वालों को ऐसी खुशबू और रंग से सराबोर कर गए जो आसानी से छूटता नहीं। मैं कोई नक्काद या आलोचक तो हूँ नहीं एक साधारण सा पाठक हूँ और उसी हैसियत से अपनी बात आपके सामने रखता हूँ। मुझे ये कहने में कोई हिचक नहीं है कि आज के दौर में जो शायर मेरे सामने आये हैं उनमें शारिक़ साहब की शायरी मुझे बिलकुल अलग और दिलकश लगी।इस शायरी के तिलस्म से बाहर आने को दिल ही नहीं करता।

उम्र भर जिसके मश्वरों पे चले 
वो परेशान है तो हैरत है 
 
अब संवरने का वक्त उसको नहीं 
जब हमें देखने की फुर्सत है 
 
क़हक़हा मारने में कुछ भी नहीं 
मुस्कुराने में जितनी मेहनत है 


शारिक़ साहब की चुप्पी आखिर 2008 में आये उनके दूसरे शेरी मज़्मुए "यहाँ तक रौशनी आती कहाँ थी " के मंज़र-ऐ-आम पर आने से टूटी। लोगों ने उसे दिलचस्पी से पढ़ा और देखा कि इन 17 सालों के अज्ञातवास के दौरान उनकी शायरी के तेवर जरा भी नहीं बदले बल्कि उन्होंने उसमें बेहतरीन इज़ाफ़ा ही किया है। ज़िन्दगी को उन्होंने सतही तौर पर नहीं बल्कि गहरे उतर कर देखा है। उसकी तल्खियों और खुशियों का बारीकी से ज़ायज़ा लिया है। मोहब्बत को एक नए जाविये से बयान किया है। दूसरी किताब के आने के साथ ही शारिक़ साहब की शोहरत को पंख लग गए।अदबी हलकों में उनकी चर्चा होने लगी , इतना सब होते हुए भी शारिक़ दिखावे से दूर अपनी ज़िन्दगी सुकून से बसर करते रहे। बेहपनाह शोहरत का उनकी जाति ज़िन्दगी पर कोई असर दिखाई नहीं दिया।

 
भीड़ छट जाएगी पल में ये ख़बर उड़ते ही 
अब कोई और तमाशा नहीं होना है यहाँ 
 
क्या मिला दश्त में आ कर तिरे दीवाने को 
घर के जैसा ही अगर जागना सोना है यहाँ 
 
कुछ भी हो जाये न मानूंगा मगर जिस्म की बात 
आज मुज़रिम तो किसी और को होना है यहाँ 


फिर आया सन 2010 जिसमें शारिक़ साहब का तीसरा मज़्मुआ "अपने तमाशे का टिकट" शाया हुआ इसमें उनकी नज़्में संग्रहित थीं। नज़्म कहना शेर कहने से ज्यादा मुश्किल काम है, इसी मुश्किल काम को इस ख़ूबसूरती से शारिक़ साहब ने अंजाम दिया कि उर्दू के नामी नक्काद याने आलोचक जनाब "शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी" साहब ने हैरत और ख़ुशी में मिले जुले तास्सुरात एक मजमून की सूरत में कलम बंद किये थे। जहाँ उनके दो ग़ज़ल संग्रहों पर किसी आलोचक का एक हर्फ़ भी पढ़ने को नहीं मिलता वहीँ उनकी नज़्मों के बारे में बड़े बड़े नक्कादों का ढेर सारा लिखा पढ़ने को मिलता है। इस तीसरी किताब के बाद उनकी पहचान एक ग़ज़लकार के रूप में कम और लाजवाब नज़्म निगार के रूप में ज्यादा हुई. नज़्मों ने जो पहचान दी वो किसी भी बड़े शायर के लिए इर्षा का विषय हो सकता है।

खूब तर्कीब निकाली न पीने की मगर 
जाम टूटा ही नहीं जाम से टकराने में 
 
भूलने में तो उसे देर ज़ियादा न लगी 
ग़म-गुसारों ने बहुत वक़्त लिया जाने में 
ग़म-गुसारों =हमदर्द 
 
हैं तो नादान मगर इतने भी नादान नहीं 
बात बनती हो तो आ जाते हैं बहकाने में 


मुशायरों के मंचों से शारिक़ साहब का नाता बहुत पुराना नहीं है। इंटरनेट पर सन 2012 के पहले का शायद ही कोई वीडियो आपको देखने को मिले। पब्लिक में बेहद संजीदा और खामोश रहने वाले शारिक़ पूरे मोहल्ला बाज़ हैं और ज़िन्दगी के हर लम्हे का लुत्फ़ लेते हुए जीते हैं। उनका कहना है कि शायरी उनके लिए बहुत जरूरी काम नहीं है बल्कि जब वो हर तरफ से पूरे सुकून में होते हैं तभी शायरी करते हैं। जब मूड और फुर्सत में होते हैं तभी शायरी करते हैं और उनपर एक तरह से शायरी के दौरे पड़ते हैं जिसके चलते वो लगातार इतना लिखते हैं कि एक किताब का मसौदा तैयार हो जाता है और फिर वो एक लम्बी चुप्पी ओढ़ लेते हैं।सन 2010 से उनके लेखन में रवानी आयी है और मंचों पर वो दिखाई भी देने लगे हैं। हिंदुस्तान के अलावा पाकिस्तान और दूसरे उन देशों में जहाँ उर्दू बोली या समझी जाती है ,शारिक़ साहब का नाम बहुत इज़्ज़त से लिया जाता है।

झूट पर उस के भरोसा कर लिया 
धूप इतनी थी कि साया कर लिया 
 
बोलने से लोग थकते ही नहीं 
हम ने इक चुप में गुज़ारा कर लिया 
 
सारी दुनिया से लड़े जिसके लिए 
एक दिन उस से भी झगड़ा कर लिया 


शारिक़ साहब के प्रशंसकों में हिंदी और उर्दू पढ़ने वाले दोनों तरह के लोग हैं। उनकी तीनों किताबें उर्दू में हैं इसलिए रेख़्ता फाउंडेशन की और से चलाई गयी "रेख़्ता हर्फ़-ऐ-ताज़ा सीरीज " के अंतर्गत छपी शारिक़ साहब की शायरी की किताब "खिड़की तो मैंने खोल ही ली " का देवनागरी लिपि में प्रकाशन एक प्रशंसनीय कदम है। इस किताब में आप उनकी 82 ग़ज़लें ,कुछ फुटकर शेर और 21 चुनिंदा नज़्में पढ़ सकते हैं। किताब की प्राप्ति के लिए या तो आप रेख़्ता से उनके ई-मेल contact@rekhta.org पर लिखें या सीधे अमेज़न से ऑन लाइन मंगवा लें। ये मान के चलें कि अगर आपकी लाइब्रेरी के ख़ज़ाने में ये कोहिनूर हीरा नहीं है तो फिर क्या है। इस किताब पर लिखने के लिए इतना कुछ है की मैं लिखते-लिखते थक जाऊंगा और आप पढ़ते-पढ़ते फिर भी बहुत कुछ छूट जायेगा।

याद आती है तिरि सन्जीदगी
और फिर हँसता चला जाता हूँ मैं 
 
बिन कहे आऊंगा जब भी आऊंगा 
मन्तज़िर आँखों से घबराता हूँ मैं 
 
अपनी सारी शान खो देता है ज़ख्म 
जब दवा करता नज़र आता हूँ मैं 


अपने चार भाइयों के साथ बरेली में सयुंक्त परिवार की तरह रहने वाले शारिक़ कैफ़ी साहब यारों के यार हैं। मेरी आपसे दरख़्वास्त है कि आप उन्हें उनके मोबाईल न. 9997162395 पर बात कर बधाई दें क्यूंकि किसी भी शायर का सबसे बड़ा तोहफा उसके पाठकों का प्यार ही होता है।चाहता तो था कि उनकी कुछ लाजवाब नज़्में भी आपतक पहुंचाता लेकिन उनकी नज़्मों के लिए तो एक अलहदा पोस्ट चाहिए जो फिर कभी सही, फ़िलहाल आपके कीमती वक़्त का लिहाज़ करते हुए मैं खुद को यहीं रोक रहा हूँ और अगली किताब तलाशने के पहले आईये आपको उनके कुछ बहुत मशहूर शेर पढ़वाता हूँ :

 तुम तो पहचानना ही भूल गए 
 लम्स को मेरे रौशनी के बग़ैर
*** 
ये तिरे शहर में खुला मुझ पर 
मुस्कुराना भी एक आदत है 
*** 
एक दिन हम अचानक बड़े हो गए 
खेल में दौड़ कर उस को छूते हुए 
*** 
होश खोए नहीं मोहब्बत में 
बंद कमरे में मुस्कुराता हूँ 
*** 
बुरा लगा तो बहुत ज़ख्म को छुपाते हुए 
मगर गिरे थे सो उठना था मुस्कुराते हुए 
*** 
अधूरी लग रही है जीत उस को 
उसे हारे हुए लगते नहीं हम
 *** 
रात थी जब तुम्हारा शहर आया 
फिर भी खिड़की तो मैंने खोल ही ली
- नीरज गोस्वामी
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