यह कहानी कुछ महीने पहले की है, जब दिल्ली में डी.सी.एम. ने लंबे समय बाद अपनी वार्षिक महफ़िल-ए-शेर-ओ-सुख़न का आयोजन किया था। मैं हमेशा की तरह इस मुशाइरे में शामिल हुआ, लेकिन जब मैंने स्टेज पर मुनव्वर राना को देखा, तो मैं चौंक गया। वह कौन सा जादू था, जो इस हालत में उन्हें मुशाइरे के मंच तक ले आया था? वह कई दिनों से बीमार थे, और उनका मुशाइरों से रिश्ता टूट चुका था। एक के बाद एक बीमारियाँ उन्हें घेर चुकी थीं, और उनके घुटने की तकलीफ़ पुरानी हो गई थी। लेकिन इस बार एक और गंभीर बीमारी ने उनकी जान ले ली। मुशाइरे के मंच पर मुनव्वर राना की मौजूदगी ने एक अलग ही माहौल बना दिया था। यह दृश्य वही लोग समझ सकते हैं, जो मुशाइरे के माहौल से प्यार करते हैं और शाइरी की गहराई में खो जाते हैं।
मुनव्वर राना व्हील-चेयर पर बैठे थे, और लोग उन्हें सुनने के लिए बेताब थे। मुशाइरे के आयोजक, इक़बाल अशहर ने उनका नाम पुकारा, तो मुझे थोड़ा अजीब लगा क्योंकि यह उनकी वरिष्ठता के अनुरूप नहीं था। लेकिन उनकी तबीअत और शारीरिक स्थिति को देखते हुए रिवायत को तोड़ा गया, और उन्हें पहले ही बुलाया गया। मुनव्वर राना माइक के पास खड़े हुए और अपनी शाइरी की शुरूआत की। उनकी शाइरी ने लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया। हर तरफ़ वाह-वाह की आवाजें गूँजने लगीं। जब लोग और शेर सुनने की फ़रमाइश करने लगे, तो उन्होंने कह दिया कि अब खड़े रहने की ताक़त नहीं है और वे मंच से नीचे उतरने लगे। इस दौरान उनका साथ देने के लिए उनके चाहने वालों की भीड़ उनके साथ चल पड़ी।
मुनव्वर राना की रुख़सती के बाद हालांकी आधे ऑडिटोरियम में सन्नाटा था, लेकिन बाक़ी शाइरों को भी अपना कलाम सुनाना था, और मुशाइरा जारी रहा। लेकिन जो गर्मी और जोश मुनव्वर राना की मौजूदगी में था, वह अब बाक़ी शाइरों के साथ नहीं था। मुनव्वर राना की तबीअत और मजबूरी को देख कर एक धक्का सा लगा।
मुनव्वर राना की मृत्यु, जो हाल ही में लखनऊ के पी.जी.आई. अस्पताल में कैंसर के कारण हुई, उर्दू शाइरी के लिए एक बड़ी क्षति है। वह न सिर्फ़ उर्दू शाइरी के बड़े नाम थे, बल्कि उनकी शाइरी में समाज, राजनीति, और जीवन के विभिन्न पहलुओं की गहरी समझ थी। उनका हर शेर दिल को छू जाता था। उनका लहजा कभी गंभीर था, तो कभी मर्मस्पर्शी। वह कभी भी किसी की नक़्ल नहीं करते थे, बल्कि अपनी शाइरी में ख़ुद की एक अलग पहचान बना चुके थे।
उनकी शाइरी में विशेष तौर पर माँ और गाँव के जीवन का चित्रण था। वह हमेशा अपनी माँ के बारे में लिखते थे, और उनके शेर सुनते समय लोग अपनी भावनाओं को रोक नहीं पाते थे। उनके शेर ने जीवन के सच्चे और सरल पहलुओं को सामने रखा। उनका एक मशहूर शेर है:
जब भी कश्ती मिरी सैलाब में आ जाती है
माँ दुआ करती हुई ख़्वाब आ जाती है
………
इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत ग़ुस्से में होती है तो रो देती है
मुनव्वर राना की शाइरी में गहरे सामाजिक मुद्दों का चित्रण भी था, जैसे ग़रीबी, मेहनत, और मज़दूरों का दर्द। उनका एक शेर बहुत प्रसिद्ध हुआ:
सो जाते हैं फ़ुटपाथ पे अख़बार बिछा कर
मज़दूर कभी नींद की गोली नहीं खाते
उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि उनकी महाकाव्यात्मक नज़्म "मुहाजिर-नामा" थी, जो उर्दू शाइरी में पहली बार एक रज़्मियात्मक नज़्म के रूप में प्रस्तुत की गई। इस नज़्म में उन मुहाजिरों का दर्द था, जो बंटवारे के समय अपने घर छोड़ कर गए थे। उनके शेरों ने मुहाजिरों के संघर्ष और उनकी तड़प को बयाँ किया।
मुनव्वर राना की शाइरी में न सिर्फ़ उर्दू के अद्भुत अल्फ़ाज़ थे, बल्कि उन्होंने समाज के हर तबक़े की स्थिति को भी अपनी शाइरी में समेट लिया था। उनके शेरों की गूँज आज भी लोगों के दिलों में रहेगी। उनके निधन से शाइरी की दुनिया में एक ख़ालीपन आ गया है, जिसे भर पाना मुश्किल है। लेकिन उनके शब्द और उनकी शाइरी हमेशा हमारे साथ रहेगी, जो हमें जीवन की सच्चाइयों से अवगत कराती रहेगी।
मुनव्वर राना की शाइरी का आलम यह था कि उनके चाहने वाले हमेशा उनके शेरों की गूँज में खोए रहते थे। वह उर्दू शाइरी के एक अनमोल सितारे थे, जिन्होंने अपनी शाइरी से दुनिया को एक नई दिशा दी। उनका सफ़र भले ही ख़त्म हो गया हो, लेकिन उनकी शाइरी और उनका नाम हमेशा अमर रहेगा।