ये मैं हूंँ और ये मैं हूंँ ये एक मैं ही हूंँ
मगर ख़लीज सी इक दरमियान देखता हूंँ
ख़लीज: अंतर खाड़ी
कहांँ-कहाँ नई ता'मीर की ज़रूरत है
सो तेरी आंँखों से अपना जहान देखता हूंँ
ता'मीर :निर्माण
मेरा चराग़-ए-बदन नूर-बार होता है
तेरी हवा को अ'जब मेहरबान देखता हूंँ
नूर-बार: रोशनी बरसाने वाला
ये मैं यक़ीन की किस इंतहा पे आ पहुंँचा
कि अपने चारों तरफ़ बस गुमान देखता हूंँ
*
ये आस्ताना-ए-हसरत है हम भी जानते हैं
दिया जला दिया है और सलाम कर लिया है
आस्ताना-ए-हसरत :कामना की चौखट
*
जूते चटख़ाते हुए फिरते थे सड़कों गलियों
हमने कब शहर-ए-मोहब्बत में मशक़्क़त की थी
आयतें अब मिरी आंँखों को पढ़ा करती हैं
मैंने बरसों किसी चेहरे की तिलावत की थी
तिलावत: पढ़ना
*
था ही क्या अपना जिसे अपना बनाए रखते
जान सी चीज़ थी वो भी तो तुम्हारी निकली
*
बदन की प्यासी सदाओं ने ख़ुदकुशी कर ली
मैं जी रहा हूंँ किसी याद की रिफ़ाक़त में
रिफ़ाक़त :दोस्ती, साथ
ख़ुदा, नमाज़ें ,दुआएँ, ये चिल्ले नज़्र-ओ-नियाज़
मैं ए'तिबार गँवाता रहा मोहब्बत में
नज़्र-ओ-नियाज़ :चढ़ावा
मैं जयपुर शहर में रहता हूं जयपुर अपनी बहुत सी दूसरी विशेषताओं के अलावा विशालकाय किलों के लिए भी प्रसिद्ध है । ये किले जयपुर और उसके आप पास की पहाड़ियों पर बने हैं, शहर के बीचो-बीच सिटी पैलेस बना हुआ है । बचपन में मेरे पिता मुझे उंगली पकड़कर इन महलों में घुमाने ले जाते थे और मैं उनकी विशाल दीवारें, बड़े बड़े दालान, ढेरों कमरे, नक्काशी दार खंबो पे टिकी बारहदरी, संगमरमर के फर्श, मूर्तियां, फव्वारे, बेशुमार झरोखे, महराबें, गुंबद वगैरह देख हैरान हो जाता। थोड़ी ही देर के बाद मैं वहाँ से बाहर निकलने को छटपटाने लगता क्योंकि वहाँ की हर चीज मुझे लार्जर दैन लाइफ लगती लेकिन मैं वहाँ लाइफ मिस करता। कोई महल कितना भी बड़ा या खूबसूरत हो आप उसमें बहुत देर तक रह नहीं सकते जबकि एक या दो कमरे के किसी भी घर में रहने से जी नहीं भरता। महल को देखने वालों की कतार लगती है जबकि घर का दरवाजा हर किसी के लिए नहीं खुलता और अगर किसी के लिए खुलता है तो पूरे मन से खुलता है। महल पर हमेशा किसी बाहरी हमलावर का डर रहता है इसलिए उसकी हिफाज़त के लिए पूरी फ़ौज़ रखनी पड़ती है। घर को ऐसा कोई डर नहीं होता, इसीलिए घर में सुकून महसूस होता है ।
कुछ लोग महल की तरह होते हैं दिखने में लार्जर दैन लाइफ लेकिन भीतर से खोखले और ठंडे। हमेशा डरे डरे, हर किसी से आशंकित, चौकन्ने, सावधान, रूखे ,अधिकतर लोगों से दूरी बनाये हुए। अपनी छवि को बनाये रखने की ख़ातिर किसी भी हद तक गिरने को आमादा। चमचों की एक बड़ी सी फ़ौज़ हमेशा उनको अपने इर्द-गिर्द चाहिए जो उन्हें बड़े और महान होने का हमेशा अहसास दिलाती रहे। कुछ लोग घर की तरह होते हैं सरल, सहज, जिंदादिल, मोहब्बत और अपनेपन से लबरेज़ ,हर किसी को गले लगाने को तैयार, निडर। हमारे आज के शायर दूसरी श्रेणी के हैं। किसी भी आम घर की तरह।
जब मैंने आज के शायर से पूछा कि आप अपनी ज़िन्दगी का कोई ऐसा अहम वाक़या बताएं जिसने आपके जीने का ढंग बदल दिया हो तो उन्होंने जो जवाब दिया वो कुछ यूँ था ' ज़िन्दगी का हर लम्हा आपको तब्दील करता रहता है, हर लम्हा जो है आपको सिखाता रहता है, एक दार्शनिक ने कहा भी था कि आप एक दरिया में दुबारा क़दम नहीं रख सकते , दरिया भी तब्दील हो जाता है आप भी तब्दील हो जाते हैं। तब्दीली का जो एक मुसलसल प्रोसेस है वो जारी रहता है ये होता है कि फौरी तौर पर आप उसे महसूस नहीं कर पाते कि इस लम्हे में आप कितना तब्दील हुए किस हद तक तब्दील हुए इसलिए कि ठहराव जैसी कोई चीज तो होती नहीं है। ठहराव भी जो होता है एक मुसलसल रवानी होता है। हम एक खास तरह की सिचुएशन में रहते हैं और ये जो सिचुएशन भी बहुत ही पैराडाक्सिकल (विरोधाभासी ) किस्म की होती है। छोटा छोटा वाक़या भी आपके ऊपर कैसा गहरा असर डाल देता है बाज़-औकात आपको पता ही नहीं चलता आप सीखते हैं आपके जीने का ढंग बदलता है आपके सोचने समझने का अंदाज़ बदलता है। हाँ ये जरूर होता है कि कोई अचानक एक वाकया हो जाता है जो आपको बदल देता है आप उस बदलाव को महसूस करने लगते हैं। जैसे आपका कोई बहुत अज़ीज़ जिससे आपको बेपनाह मुहब्बत हो अचानक आप को हमेशा के लिए तन्हा छोड़ कर चल दे तो उसकी कमी आपको बहुत डिस्टर्ब कर देगी। ज़िन्दगी के म'आनी वो बिलकुल तब्दील हो जाते हैं। हमारे अंदर जो एक ज़िंदा रहने की जो ख्वाइश है वो कैसे कैसे शक्लें बदलती है कौन कौन से रंगों में आती है कौन कौन से पैकर में आती है ,सोचने लग जाता हूँ। इन बातों से मैं परेशान भी होता हूँ कोशिश करता हूँ इन्हें अपनी शायरी में ढालूँ , पता नहीं मैं इसमें कितना कामयाब हो पाता हूँ।
लगता यही है नूर के रथ पर सवार हूँ
आंखों ने तेरी मुझको वो रसते सुझाए हैं
*
जिस्म का बर्तन सर्द पड़ा है तन्हाई के चूल्हे पर
अफ़्सुर्दा है जान-ओ-दिल का तुम बिन घर संसार बहुत
अफ़्सुर्दा: दुखी
*
तेरे जमाल के जौहर को ताब देता था
मेरा नशेब तुझे आबशार करता हुआ
नशेब : ढलान, आबशार: झरना
*
अ'जीब भेद है खुलकर भी कुछ नहीं खुलता
सो आस्माँ को तेरा इस्तिआ'रा करता हूं
गस्तिआरा: रूपक
*
याद दिल में भँवर सा बनाती रही
दर्द सहरा था आंखों में जलता रहा
*
जमने देता ही नहीं मुझको सुकूत-ए-शब में
बहता रहता है तेरी याद का झरना साईं
सुकूत ए शब: रात की स्तब्धता
*
हांँ मुझे है फ़राग़ जख़्मों से
हांँ मुझे आपकी जरूरत है
फ़राग़: छुटकारा
*
नोच रही है रूह के रेशे रेशे को
एक ख्वाहिश थी रफ़्ता रफ़्ता चील हुई
*
ये किस ज़मीन पर मेरे क़दम पड़े
वो क्या ग़ुबार था कि मैं निखर गया
लिपट के रो रही हैं मुझसे हैरतें
मलाल था कि रायगाँ सफ़र गया
रायगाँ: बेकार, व्यर्थ
हमारे आज के शायर का नाम जानने से पहले आईये पढ़ते हैं कि उसके बारे में अपनी तरह के अकेले, अलबेले, फक्कड़ और बेहद मशहूर शायर जनाब 'शमीम अब्बास' साहब क्या कहते हैं।
शमीम साहब फरमाते हैं कि "ना बहुत मोटे तगड़े, ना बहुत लंबे चौड़े,ना बहुत गोरे चिट्टे, ना बहुत दुबले-पतले, ना बहुत साँवले हर मामले में दरमियाना, दरमियाना क़द, दरमियाना रंग, दरमियाना काठी, इक हल्की सी मुस्कान लिए चेहरा, सजे सँवरे बाल, बहुत कायदे से और नफासत के साथ ज़ेबतन किये हुए कपड़े, खुश गुफ़्तार, खुश इख़लाख़ हद ये है कि गर्मागर्म बहस के दौरान भी एक हल्की सी मुस्कुराहट उसके चेहरे पर घर किये रहती है, मुसलसल तारी रहती है । शायर तो अच्छा है ही बाकी आदमी बहुत अच्छा है, मुझे बहुत अच्छा लगता है। सिर्फ एक मामले में मुझे उससे जलन है, हसद है वो ये कि वो लड़कियों के कॉलेज में प्रोफेसर है बाकी सब ठीक है। मैं ये सब इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि वो मेरा बहुत अच्छा दोस्त है वो मेरे ख्याल से 99 फीसद लोगों का अच्छा दोस्त है ये उसकी शख़्शियत की खूबी है कि जिससे मिलता है वो शख़्स उससे मुत्तासिर होता है, उसे चाहने लगता है।"
हमारे आज के शायर हैं जनाब 'अमीर हमज़ा साक़िब' जिनकी जनाब 'शमीम अब्बास' साहब से मुलाक़ात बरसों पहले मुम्ब्रा के एक मुशायरे में हुई थी। मुशायरे में सुनाये 'अमीर' के क़लाम को उन्होंने भरपूर दाद से नवाज़ा और मुशायरा ख़त्म होने पर 'अमीर' को एक कोने में ले जाकर उनसे मुशायरे में पढ़े उनके एक ख़ास शेर को फिर से सुनाने को कहा। 'अमीर' के शेर को गौर से सुनकर उन्होंने अमीर से कहा की अगर मुनासिब समझें तो इस शेर को कुछ अलग ढंग से कह कर देखें। 'अमीर' ने शमीम साहब की बात मानते हुए वही शेर जब कुछ अलग ढंग से कह कर उन्हें फोन पर सुनाया तो वो बहुत खुश हुए और ढेरों दुआएं दीं। तब से लेकर उन दोनों के बीच पनपा अपनापा आज तक क़ायम है। शमीम साहब के 'अमीर' के बारे में ऊपर जो आपने जुमले पढ़ें हैं, उसके बाद हमारे पास 'अमीर हमज़ा साक़िब' की शख़्शियत के बारे में कहने को और कुछ खास नहीं बचता।
उनकी ग़ज़लों की देवनागरी में रेख़्ता बुक्स,नोयडा, उत्तरप्रदेश द्वारा छपी किताब 'जिस्म का बर्तन सर्द पड़ा है', हमारे सामने है। ये किताब आप अमेजन से ऑन लाइन भी मंगवा सकते हैं।
इक आग इश्क़ की लिए फिरये तमाम उम्र
किसने कहा था हाथ शरारों में डालिए
ये कौन फूल फूल खिला शाख़-शाख़ पर
मैं ख़ाक छानता रहा किस की हवा लिए
*
यूं तो सब जल जाएगा
दिल की लौ कम करते हैं
अंदर से जो ख़ाली हैं
'साक़िब' हम हम करते हैं
*
मेरा पता ठिकाना कहांँ जुज़ मेरे सिवा
मेरी तलाश क्या कि अभी गुम-शुदा हूंँ मैं
*
तिरे ख्य़ाल के जब शामियाने लगते हैं
सुख़न के पांँव मिरे लड़खड़ाने लगते हैं
मैं दश्त-ए-हू की तरफ़ जब उड़ान भरता हूंँ
तेरी सदा के शजर फिर बुलाने लगते हैं
दश्ते हू: वीराना
ये गर्द है मिरी आंखों में किन ज़मानों की
नए लिबास भी अब तो पुराने लगते हैं
*
जब उसका अक्स नहीं हम तो क्या जरूरी है
कि जो भी उसने किया हू-ब-हू किया जाए
*
मैं भी तो उस पे जांँ छिड़कता हूंँ
ग़म अगर एहतिराम करता है
आगे बढ़ने से पहले थोड़ा पीछे चलते हैं, पीछे याने आज से यही कोई 34-35 साल पहले। मुंबई के पास भिवंडी की अंबेडकर लाइब्रेरी में बैठा लाइब्रेरियन देखता था कि एक लड़का अक्सर लाइब्रेरी में आता है, अलमारी से कोई किताब निकालता है और करीब चार-पांच घंटे उस किताब में सर दिए चुपचाप पढ़ता रहता है और लिखता रहता है ।लाइब्रेरियन के लिए, एक 15-16 साल के लड़के की इस क़दर किताबों से मोहब्बत देख कर, हैरान होना लाज़मी था क्योंकि उसने इस उम्र के लड़कों को ज़्यादातर सड़कों पर क्रिकेट, फुटबॉल खेलते या आवारागर्दी करते ही देखा था ।पहले तो उसने समझा इस उम्र के दूसरे पढ़ाकू लड़कों की तरह ये भी किसी रोमांटिक या जासूसी उपन्यास को पढ़ने लाइब्रेरी आता होगा पर एक दिन जब वो अपनी उत्सुकता पर काबू नहीं रख पाया तो उसने लड़के से पूछ ही लिया कि ,बरखुरदार क्या पढ़ रहे हो'? लड़के ने हौले से हाथ में पकड़ी किताब जब उन्हें दिखाई तो लाइब्रेरियन साहब को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ , वो हैरान रह गए। अब आप ही बताएं कि ज़नाब 'फ़ैज अहमद फ़ैज' साहब की किताब 'दस्ते सबा' एक कमसिन उम्र के लड़के के हाथ में देखकर भला कौनसा पढ़ा लिखा इंसान हैरान नहीं होगा ? लड़के ने मुस्कुराते हुए लाइब्रेरियन साहब को बताया कि उसे फैज़ साहब बेहद पसंद हैं और ये किताब वो सातवीं मर्तबा पढ़ रहा है।
मजे की बात तो ये हुई कि दसवीं के इम्तिहान के एक परचे में जब 'आपका पसंदीदा शायर' पर लिखने का सवाल आया तो इस लड़के ने जवाब में फ़ैज पर न सिर्फ़ लम्बा लेख लिखा बल्कि साथ में 'दस्ते-सबा' में छपी बहुत सी ग़ज़लें और नज्में भी लिख दी जिसे पढ़ कर कॉपियां चैक करते वक्त एगज़ामिनर ने भी दाँतों तले उँगली दबा ली क्योंकि फ़ैज के बारे में इतना तो उन्हें भी पता नहीं था।
लाइब्रेरियन ने लड़के की पढ़ने की लगन को देखकर एक बार अपने असिस्टेंट को कहा कि 'उस टेबल पर बैठे लड़के को देख रहे हों मियाँ, एक दिन वो अपना और भिवंडी का नाम पूरी दुनिया में रौशन करेगा और ज़िन्दगी में बेहतरीन शख़्स बनेगा।' लाइब्रेरियन की पहली बात सच हुई ये तो पता नहीं लेकिन इस लड़के जिसका नाम 'अमीर' है को जानने वाले उसके बारे में कही दूसरी बात से जरूर इत्तफ़ाक़ रखेंगे।
निहाल यादों की चाँदी में शब, तो दिन सारा
किसी के ज़िक्र का सोना उछालने में गया
*
दिल-ओ-दिमाग़ मुअ'त्तर तुम्हारे नाम से है
तो फिर ये बू-ए-शिकायत कहांँ से आती है
मुअ'त्तर :सुगंधित
*
जुनूँ पे इससे बुरा वक़्त और क्या होगा
कि जान छूट गई तेरे जाँ-निसारों की
जनाब आप तो ले बैठे घर के दुखड़े को
हुजूर बात थी सहरा की रेगज़ारों की
तुम्हारा रंग न आना था सो नहीं आया
धनक सजाते रहे लाख इस्तिआ'रों की
*
जाने किस जुर्म में माख़ूज़ वो जिंदानी है
जो भी आता है वो जंजीर हिला जाता है
माख़ूज़: पकड़ा गया, जिंदानी: क़ैदी
*
टहनियाँ दिल की बेलिबास हुईं
आस के पंछी उड़ गए सारे
दीद इज़्हार क़ुर्ब लम्स विसाल
हल नहीं होते मस्अले सारे
कैसी इम्काँ थे अपने यारों में
वक्त बदला बदल गए सारे
इम्काँ: सँम्भावना
*
ज़हर पीना दुर-ए-नायाब लुटाते रहना
जर्फ़ कब मुझको मयस्सर है समंदर तुझ सा
दुर-ए-नायाब: अमूल्य रत्न, जर्फ़: पात्र
28 अप्रैल 1971 को भिवंडी में पैदा हुए 'अमीर हमज़ा साक़िब' दरअसल आज़मगढ़ के पास के छोटे से गाँव के हैं। उनके वालिद बेहतरीन शायर जनाब अताऊर रहमान 'अता', कारोबार के सिलसिले में भिवंडी आए और फिर यहीं के हो कर रह गये। 'अमीर' अम्बेडकर लाइब्रेरी में रखी शायरी की किताबें पढ़ते पढ़ते खुद भी शेर कहने की कोशिश करने लगे। वालिद साहब की उँगली पकड़ कर शेर कहने का सलीका सीखा और उन्नीस साल की उम्र से बाक़ायदा शायरी करने लगे। मुशायरों और नशिस्तों में शिरकत भी करने लगे लेकिन ये सिलसिला लम्बा नहीं चल पाया।
मुशायरों के लिये शायरी करना सरकारी या गैरसरकारी संस्थान में नौकरी करने जैसा काम है। जैसे नौकरी में मातहत की पूरी कोशिश बॉस को खुश करने की होती है क्योंकि उसे नाराज़ करके उसकी तरक्की नहीं हो सकती ठीक वैसे ही मुशायरे के शायर सामईन को खुश करने की लगातार कोशिश करते रहते हैं चाहे उसके लिए उन्हें पढ़ते वक्त नौटंकी करनी पड़े या गायकी। शायर का सिर्फ़ एक ही मक़सद होता है, सामईन की वाहवाही और तालियाँ बटोरना। जो ज्यादा बटोर पाता है वो ही लम्बे वक्त तक मंच पर टिका रहता है और ज़्यादा पैसा कमा पाता है। वाहवाही और तालियों की चाहत में शायरी हाशिये पर धकेल दी जाती है। ये बात सभी शायरों पर लागू नहीं होती लेकिन ज़्यादातर पर होती है। एक बात तो मैं यकीन से कह सकता हूँ कि अब मुशायरे के मंच से बेहतरीन शायरी पढ़ने वाले शायरों के दिन लद गए हैं. अलबत्ता कुछ नौजवान शायर बहुत खूब कह रहे हैं और मंच से अच्छी शायरी पढ़ने की हिम्मत भी कर रहे हैं लेकिन वो भी हज़ारों की भीड़-भाड़ वाले बड़े मज़मेनुमा मुशायरों में कामयाब नहीं हो पाते। यही कारण है कि मुशायरों में आठ दस घंटे का वक्त खपाने के बाद बड़ी मुश्किल से आपके हाथ दो या तीन ऐसे शेर हाथ आते हैं जो आपके ज़हन में कुछ देर तक टिके रह सकें। इतने वक्त में तो आप किसी किताब या रिसाले को पढ़ कर घर बैठे ही बहुत कुछ हासिल कर सकते है। अमीर ने कुछ वक्त तक तो मुशायरे के मंचों को देखा और आखिर में उकता कर मुशायरों से तौबा कर ली । शायरी करना 'अमीर' की मज़बूरी नहीं बल्कि खुद से गुफ़्तगू करने का एक जरिया है।
इस किताब की भूमिका वो अपनी शायरी के हवाले से लिखते हैं कि ' शेर कहते वक़्त मैं मुकम्मल न सही मगर एक बे-ख़बरी में जरूर होता हूँ।लफ्ज़ और उनकी पुर-असरारियत (रहस्मयता ) मुझे हैरत में डालती है। लफ़्ज़ों के इम्कानात (संभावनाएं )को खंगालना ,उन्हें नए मआ'नी-ओ-मफ़ाहीम (अर्थ-भाव) देना किसी तख़्लीक़ी (रचनात्मक ) एडवेंचर से कम नहीं। मैं एक सफर पर निकला हूँ , तख़्लीक़ी एडवेंचर के सफर पर। इस सफर में मेरे हाथ क्या आएगा नहीं जानता। अलबत्ता ये जानता हूँ कि इस सफर में रायगानी (व्यर्थता )मेरा मुकद्दर नहीं होगी।
मेरी बरहना पुश्त थी कोड़ों से सब्ज़-ओ-सुर्ख़
गोरे बदन पे उसके भी नीला निशान था
ज़िंदगी हाय तआ'कुब तेरा
आख़िरी बस का सफ़र हो जैसे
तआ'कुब: पीछा करना
दस्तरस में वो नहीं है मेरी
शे'र कहने का हुनर हो जैसे
फिर कठिन और कठिन और कठिन
सांँस पनघट की डगर हो जैसे
*
क्या आस्माँ उठाते मोहब्बत में जबकि दिल
तार-ए-निगह में उलझी हुई इक पतंग था
*
मिले न तुम ही न हम और ही किसी के हुए
यही बचा है कि अब अपने ही अ'दू हो जाएंँ
अ'दू: दुश्मन
*
रहे कहीं भी कहीं दूर मुझसे तू छुप जाए
मेरे ख़यालों में चेहरा तेरा दमकता है
ये ज़िस्म-ओ-रूह की गहराइयों में उतरेगा
ये दर्द वो नहीं आंखों से जो छलकता है
गुनाहगार न बन दिल मेरे ख़ुदा के लिए
ख़याल-ए-यार का दामन कोई झटकता है
तुम्हारा लुत्फ़-ओ-करम हम फ़क़ीर लोगों पर
किसी गरीब की छत की तरह टपकता है
*
पत्थर पड़े हैं राह के बे-ख़ानुमाँ-ख़राब
अब शहर में कोई भी दिवाना नहीं है क्या
बे-ख़ानुमाँ: बेघर
*
ये ख़्वाब रक्खेगा बेदार मुझको बरसों तक
तिरी गली में मैं अपना मकान देखता हूँ
'अमीर' साहब ने भिवंडी से ग्रेजुएशन करने के बाद पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए मैसूर यूनिवर्सिटी को चुना और वहां से उर्दू में एम.ऐ. किया। नेट की परीक्षा दी और 'मीर तकी मीर' पर रिसर्च कर पी.एच डी की डिग्री हासिल की। इन दिनों आप भिवंडी के जी.एम. मोमिन वीमेन्ज़ कॉलेज के उर्दू विभाग में प्रोफ़ेसर के पद पर काम कर रहे हैं। पढ़ने लिखने के बेहद शौक़ीन 'अमीर' साहब को संगीत से भी दीवानावार मुहब्बत है। इसकी मोहब्बत में गिरफ्तार हो कर उन्होंने बाकायदा हिंदुस्तानी क्लासिकल म्यूजिक की तालीम जौनपुर के उस्ताद मोहम्मद हुसैन साहब से हासिल की। वक़्त की कमी के चलते वो संगीत में महारत तो हासिल नहीं कर सके लेकिन अब भी जब मूड होता है तो किसी न किसी राग को छेड़ कर उसमें डूबने की कोशिश करते हैं। संगीत के अलावा उनकी फिल्मों में भी बेहद दिलचस्पी है। शायरी तो खैर उनकी पहली मोहब्बत जैसी है।
'अमीर' साहब ने जनाब 'मीर तकी मीर' साहब को जब पढ़ा तो उनके रवैये में तब्दीली आयी और उनकी फ़िक्र का मरकज़ जदीदियत की जगह इश्क हो गया। चीजों को रोमांटिसाइज करना और उसमें मिस्ट्री पैदा करना उनका दिलचस्प मश्ग़ला रहा है।'अमीर' अपनी शायरी हवाले से फरमाते हैं कि ' अपनी शायरी के ताल्लुक से मुझे किसी भी तरह की कोई खुशफ़हमी तो नहीं है बस ये है कि मुझे शेर कहने का जो अमल है उसमें लुत्फ़ आता है। लफ़्ज़ों को जानना, चीजों को उलट-पलट कर देखना और देखने का जो अपना जो एक तरीका है कि मैं हाल को भी माज़ी के तनाज़ुर (प्रेस्पेक्टिव ) में देखने की कोशिशें करता हूँ। लफ्ज़ उनके म'आनी और लफ्ज़ और म'आनी के दरमियान जो एक रिश्ता है जिसको , नून मीम राशिद साहब ने 'रिश्ता हाय आहन' कहा है तो ये लफ्ज़ और म'आनी के दरम्यान जो एक आहनी रिश्ता और जब वोही आहनी रिश्ता किसी शेर में आकर सय्याल (तरल, बहने वाला) हो जाता है उसमें सय्यालियत पैदा होती है तो ये तमाम चीजें मेरे लिए बड़ी मिस्टीरियस सी लगती हैं और मैं उसी मिस्ट्री में जीना पसंद करता हूँ। उसी रिश्ते पर गौर करता रहता हूँ। चीजों को माज़ी में देखने की कोशिश करता हूँ। कभी तवारीख़ का हिस्सा बन जाता हूँ कभी किसी क़िरदार में ढल जाता हूँ। फ़ितरत जो है वो मुझे बहुत मुत्तासिर करती है। फ़ितरत अपनी तरफ़ बुलाती है। जो रंग हैं, जो खुशबुएँ हैं, जो रौशनी है, लफ्ज़ हैं, म'आनी है , इंसानी रिश्ते हैं उन रिश्तों के दरमियान जो बदलती हुई नवीयतें हैं वो आपको मेरी शायरी के मरकज़ में ख़ुसूसन मिल जाएँगी।
अपनी शायरी के आगाज़ के लगभग 15 साल बाद 'अमीर' साहब का पहला मजमुआ सन 2014 में 'मौसम-ए-कश्फ़' के नाम से देहलीज़ पब्लिकेशन से शाया हुआ और बेहद मक़बूल हुआ। उसके करीब 5 साल बाद सन 2019 में देवनागरी में रेख़्ता द्वारा पब्लिश हुआ उनका दूसरा मजमुआ 'जिस्म का बर्तन सर्द पड़ा है' शायरी पढ़ने वालों को बहुत पसंद आ रहा है। उनकी शायरी 'रेख़्ता की साइट पर भी उपलब्ध है। मेरी सभी शायरी प्रेमियों से गुज़ारिश है कि अगर आप संजीदा शायरी पसंद करते हैं तो आपकी निजी लाइब्रेरी में उनकी ये किताब जरूर होनी चाहिए। आप 'अमीर' साहब को उनके खूबसूरत क़लाम के लिए 9890250473 पर फोन कर मुबारक़बाद दे सकते हैं।
आख़िर में पेश हैं उनकी इसी किताब से लिए कुछ और शेर :
आगही खून चूस लेती है
छोड़िए जो हो बा-ख़बर रहिए
आगही: ज्ञान
*
'मीर' साहब से पूछिए जा कर
इ'श्क़ बिन क्या अदब भी आता है
मैं उसे गुनगुनाए जाता हूं
वो मुझे भूल भूल जाता है
*
सुराग़ अपना मिले कहां से
तुम्हारी दुनिया के हो चुके हैं
*
दिल के मैदाँ में खेल जारी है
उसकी आंँखों का मेरे आंँसू का
*
ये दुनिया हाथ बांँध सामने थी
मगर मैं आसमांँ को तक रहा था
*
जिसे तुम दिल हमारा कह रहे हो
भरी बरसात की सूनी गली है
*
तुम्हारी याद पर है जोर अपना
ये दुनिया आज़माई जा चुकी है
*
तेरी आहट से मुझ में दूर तलक
एक जंगल सा फैल जाता है
कुफ्र है हिज्र का तसव्वुर भी
आसमाँ कब जमीं से बिछड़ा है
- नीरज गोस्वामी
मगर ख़लीज सी इक दरमियान देखता हूंँ
ख़लीज: अंतर खाड़ी
कहांँ-कहाँ नई ता'मीर की ज़रूरत है
सो तेरी आंँखों से अपना जहान देखता हूंँ
ता'मीर :निर्माण
मेरा चराग़-ए-बदन नूर-बार होता है
तेरी हवा को अ'जब मेहरबान देखता हूंँ
नूर-बार: रोशनी बरसाने वाला
ये मैं यक़ीन की किस इंतहा पे आ पहुंँचा
कि अपने चारों तरफ़ बस गुमान देखता हूंँ
*
ये आस्ताना-ए-हसरत है हम भी जानते हैं
दिया जला दिया है और सलाम कर लिया है
आस्ताना-ए-हसरत :कामना की चौखट
*
जूते चटख़ाते हुए फिरते थे सड़कों गलियों
हमने कब शहर-ए-मोहब्बत में मशक़्क़त की थी
आयतें अब मिरी आंँखों को पढ़ा करती हैं
मैंने बरसों किसी चेहरे की तिलावत की थी
तिलावत: पढ़ना
*
था ही क्या अपना जिसे अपना बनाए रखते
जान सी चीज़ थी वो भी तो तुम्हारी निकली
*
बदन की प्यासी सदाओं ने ख़ुदकुशी कर ली
मैं जी रहा हूंँ किसी याद की रिफ़ाक़त में
रिफ़ाक़त :दोस्ती, साथ
ख़ुदा, नमाज़ें ,दुआएँ, ये चिल्ले नज़्र-ओ-नियाज़
मैं ए'तिबार गँवाता रहा मोहब्बत में
नज़्र-ओ-नियाज़ :चढ़ावा
मैं जयपुर शहर में रहता हूं जयपुर अपनी बहुत सी दूसरी विशेषताओं के अलावा विशालकाय किलों के लिए भी प्रसिद्ध है । ये किले जयपुर और उसके आप पास की पहाड़ियों पर बने हैं, शहर के बीचो-बीच सिटी पैलेस बना हुआ है । बचपन में मेरे पिता मुझे उंगली पकड़कर इन महलों में घुमाने ले जाते थे और मैं उनकी विशाल दीवारें, बड़े बड़े दालान, ढेरों कमरे, नक्काशी दार खंबो पे टिकी बारहदरी, संगमरमर के फर्श, मूर्तियां, फव्वारे, बेशुमार झरोखे, महराबें, गुंबद वगैरह देख हैरान हो जाता। थोड़ी ही देर के बाद मैं वहाँ से बाहर निकलने को छटपटाने लगता क्योंकि वहाँ की हर चीज मुझे लार्जर दैन लाइफ लगती लेकिन मैं वहाँ लाइफ मिस करता। कोई महल कितना भी बड़ा या खूबसूरत हो आप उसमें बहुत देर तक रह नहीं सकते जबकि एक या दो कमरे के किसी भी घर में रहने से जी नहीं भरता। महल को देखने वालों की कतार लगती है जबकि घर का दरवाजा हर किसी के लिए नहीं खुलता और अगर किसी के लिए खुलता है तो पूरे मन से खुलता है। महल पर हमेशा किसी बाहरी हमलावर का डर रहता है इसलिए उसकी हिफाज़त के लिए पूरी फ़ौज़ रखनी पड़ती है। घर को ऐसा कोई डर नहीं होता, इसीलिए घर में सुकून महसूस होता है ।
कुछ लोग महल की तरह होते हैं दिखने में लार्जर दैन लाइफ लेकिन भीतर से खोखले और ठंडे। हमेशा डरे डरे, हर किसी से आशंकित, चौकन्ने, सावधान, रूखे ,अधिकतर लोगों से दूरी बनाये हुए। अपनी छवि को बनाये रखने की ख़ातिर किसी भी हद तक गिरने को आमादा। चमचों की एक बड़ी सी फ़ौज़ हमेशा उनको अपने इर्द-गिर्द चाहिए जो उन्हें बड़े और महान होने का हमेशा अहसास दिलाती रहे। कुछ लोग घर की तरह होते हैं सरल, सहज, जिंदादिल, मोहब्बत और अपनेपन से लबरेज़ ,हर किसी को गले लगाने को तैयार, निडर। हमारे आज के शायर दूसरी श्रेणी के हैं। किसी भी आम घर की तरह।
जब मैंने आज के शायर से पूछा कि आप अपनी ज़िन्दगी का कोई ऐसा अहम वाक़या बताएं जिसने आपके जीने का ढंग बदल दिया हो तो उन्होंने जो जवाब दिया वो कुछ यूँ था ' ज़िन्दगी का हर लम्हा आपको तब्दील करता रहता है, हर लम्हा जो है आपको सिखाता रहता है, एक दार्शनिक ने कहा भी था कि आप एक दरिया में दुबारा क़दम नहीं रख सकते , दरिया भी तब्दील हो जाता है आप भी तब्दील हो जाते हैं। तब्दीली का जो एक मुसलसल प्रोसेस है वो जारी रहता है ये होता है कि फौरी तौर पर आप उसे महसूस नहीं कर पाते कि इस लम्हे में आप कितना तब्दील हुए किस हद तक तब्दील हुए इसलिए कि ठहराव जैसी कोई चीज तो होती नहीं है। ठहराव भी जो होता है एक मुसलसल रवानी होता है। हम एक खास तरह की सिचुएशन में रहते हैं और ये जो सिचुएशन भी बहुत ही पैराडाक्सिकल (विरोधाभासी ) किस्म की होती है। छोटा छोटा वाक़या भी आपके ऊपर कैसा गहरा असर डाल देता है बाज़-औकात आपको पता ही नहीं चलता आप सीखते हैं आपके जीने का ढंग बदलता है आपके सोचने समझने का अंदाज़ बदलता है। हाँ ये जरूर होता है कि कोई अचानक एक वाकया हो जाता है जो आपको बदल देता है आप उस बदलाव को महसूस करने लगते हैं। जैसे आपका कोई बहुत अज़ीज़ जिससे आपको बेपनाह मुहब्बत हो अचानक आप को हमेशा के लिए तन्हा छोड़ कर चल दे तो उसकी कमी आपको बहुत डिस्टर्ब कर देगी। ज़िन्दगी के म'आनी वो बिलकुल तब्दील हो जाते हैं। हमारे अंदर जो एक ज़िंदा रहने की जो ख्वाइश है वो कैसे कैसे शक्लें बदलती है कौन कौन से रंगों में आती है कौन कौन से पैकर में आती है ,सोचने लग जाता हूँ। इन बातों से मैं परेशान भी होता हूँ कोशिश करता हूँ इन्हें अपनी शायरी में ढालूँ , पता नहीं मैं इसमें कितना कामयाब हो पाता हूँ।
लगता यही है नूर के रथ पर सवार हूँ
आंखों ने तेरी मुझको वो रसते सुझाए हैं
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जिस्म का बर्तन सर्द पड़ा है तन्हाई के चूल्हे पर
अफ़्सुर्दा है जान-ओ-दिल का तुम बिन घर संसार बहुत
अफ़्सुर्दा: दुखी
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तेरे जमाल के जौहर को ताब देता था
मेरा नशेब तुझे आबशार करता हुआ
नशेब : ढलान, आबशार: झरना
*
अ'जीब भेद है खुलकर भी कुछ नहीं खुलता
सो आस्माँ को तेरा इस्तिआ'रा करता हूं
गस्तिआरा: रूपक
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याद दिल में भँवर सा बनाती रही
दर्द सहरा था आंखों में जलता रहा
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जमने देता ही नहीं मुझको सुकूत-ए-शब में
बहता रहता है तेरी याद का झरना साईं
सुकूत ए शब: रात की स्तब्धता
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हांँ मुझे है फ़राग़ जख़्मों से
हांँ मुझे आपकी जरूरत है
फ़राग़: छुटकारा
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नोच रही है रूह के रेशे रेशे को
एक ख्वाहिश थी रफ़्ता रफ़्ता चील हुई
*
ये किस ज़मीन पर मेरे क़दम पड़े
वो क्या ग़ुबार था कि मैं निखर गया
लिपट के रो रही हैं मुझसे हैरतें
मलाल था कि रायगाँ सफ़र गया
रायगाँ: बेकार, व्यर्थ
हमारे आज के शायर का नाम जानने से पहले आईये पढ़ते हैं कि उसके बारे में अपनी तरह के अकेले, अलबेले, फक्कड़ और बेहद मशहूर शायर जनाब 'शमीम अब्बास' साहब क्या कहते हैं।
शमीम साहब फरमाते हैं कि "ना बहुत मोटे तगड़े, ना बहुत लंबे चौड़े,ना बहुत गोरे चिट्टे, ना बहुत दुबले-पतले, ना बहुत साँवले हर मामले में दरमियाना, दरमियाना क़द, दरमियाना रंग, दरमियाना काठी, इक हल्की सी मुस्कान लिए चेहरा, सजे सँवरे बाल, बहुत कायदे से और नफासत के साथ ज़ेबतन किये हुए कपड़े, खुश गुफ़्तार, खुश इख़लाख़ हद ये है कि गर्मागर्म बहस के दौरान भी एक हल्की सी मुस्कुराहट उसके चेहरे पर घर किये रहती है, मुसलसल तारी रहती है । शायर तो अच्छा है ही बाकी आदमी बहुत अच्छा है, मुझे बहुत अच्छा लगता है। सिर्फ एक मामले में मुझे उससे जलन है, हसद है वो ये कि वो लड़कियों के कॉलेज में प्रोफेसर है बाकी सब ठीक है। मैं ये सब इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि वो मेरा बहुत अच्छा दोस्त है वो मेरे ख्याल से 99 फीसद लोगों का अच्छा दोस्त है ये उसकी शख़्शियत की खूबी है कि जिससे मिलता है वो शख़्स उससे मुत्तासिर होता है, उसे चाहने लगता है।"
हमारे आज के शायर हैं जनाब 'अमीर हमज़ा साक़िब' जिनकी जनाब 'शमीम अब्बास' साहब से मुलाक़ात बरसों पहले मुम्ब्रा के एक मुशायरे में हुई थी। मुशायरे में सुनाये 'अमीर' के क़लाम को उन्होंने भरपूर दाद से नवाज़ा और मुशायरा ख़त्म होने पर 'अमीर' को एक कोने में ले जाकर उनसे मुशायरे में पढ़े उनके एक ख़ास शेर को फिर से सुनाने को कहा। 'अमीर' के शेर को गौर से सुनकर उन्होंने अमीर से कहा की अगर मुनासिब समझें तो इस शेर को कुछ अलग ढंग से कह कर देखें। 'अमीर' ने शमीम साहब की बात मानते हुए वही शेर जब कुछ अलग ढंग से कह कर उन्हें फोन पर सुनाया तो वो बहुत खुश हुए और ढेरों दुआएं दीं। तब से लेकर उन दोनों के बीच पनपा अपनापा आज तक क़ायम है। शमीम साहब के 'अमीर' के बारे में ऊपर जो आपने जुमले पढ़ें हैं, उसके बाद हमारे पास 'अमीर हमज़ा साक़िब' की शख़्शियत के बारे में कहने को और कुछ खास नहीं बचता।
उनकी ग़ज़लों की देवनागरी में रेख़्ता बुक्स,नोयडा, उत्तरप्रदेश द्वारा छपी किताब 'जिस्म का बर्तन सर्द पड़ा है', हमारे सामने है। ये किताब आप अमेजन से ऑन लाइन भी मंगवा सकते हैं।
इक आग इश्क़ की लिए फिरये तमाम उम्र
किसने कहा था हाथ शरारों में डालिए
ये कौन फूल फूल खिला शाख़-शाख़ पर
मैं ख़ाक छानता रहा किस की हवा लिए
*
यूं तो सब जल जाएगा
दिल की लौ कम करते हैं
अंदर से जो ख़ाली हैं
'साक़िब' हम हम करते हैं
*
मेरा पता ठिकाना कहांँ जुज़ मेरे सिवा
मेरी तलाश क्या कि अभी गुम-शुदा हूंँ मैं
*
तिरे ख्य़ाल के जब शामियाने लगते हैं
सुख़न के पांँव मिरे लड़खड़ाने लगते हैं
मैं दश्त-ए-हू की तरफ़ जब उड़ान भरता हूंँ
तेरी सदा के शजर फिर बुलाने लगते हैं
दश्ते हू: वीराना
ये गर्द है मिरी आंखों में किन ज़मानों की
नए लिबास भी अब तो पुराने लगते हैं
*
जब उसका अक्स नहीं हम तो क्या जरूरी है
कि जो भी उसने किया हू-ब-हू किया जाए
*
मैं भी तो उस पे जांँ छिड़कता हूंँ
ग़म अगर एहतिराम करता है
आगे बढ़ने से पहले थोड़ा पीछे चलते हैं, पीछे याने आज से यही कोई 34-35 साल पहले। मुंबई के पास भिवंडी की अंबेडकर लाइब्रेरी में बैठा लाइब्रेरियन देखता था कि एक लड़का अक्सर लाइब्रेरी में आता है, अलमारी से कोई किताब निकालता है और करीब चार-पांच घंटे उस किताब में सर दिए चुपचाप पढ़ता रहता है और लिखता रहता है ।लाइब्रेरियन के लिए, एक 15-16 साल के लड़के की इस क़दर किताबों से मोहब्बत देख कर, हैरान होना लाज़मी था क्योंकि उसने इस उम्र के लड़कों को ज़्यादातर सड़कों पर क्रिकेट, फुटबॉल खेलते या आवारागर्दी करते ही देखा था ।पहले तो उसने समझा इस उम्र के दूसरे पढ़ाकू लड़कों की तरह ये भी किसी रोमांटिक या जासूसी उपन्यास को पढ़ने लाइब्रेरी आता होगा पर एक दिन जब वो अपनी उत्सुकता पर काबू नहीं रख पाया तो उसने लड़के से पूछ ही लिया कि ,बरखुरदार क्या पढ़ रहे हो'? लड़के ने हौले से हाथ में पकड़ी किताब जब उन्हें दिखाई तो लाइब्रेरियन साहब को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ , वो हैरान रह गए। अब आप ही बताएं कि ज़नाब 'फ़ैज अहमद फ़ैज' साहब की किताब 'दस्ते सबा' एक कमसिन उम्र के लड़के के हाथ में देखकर भला कौनसा पढ़ा लिखा इंसान हैरान नहीं होगा ? लड़के ने मुस्कुराते हुए लाइब्रेरियन साहब को बताया कि उसे फैज़ साहब बेहद पसंद हैं और ये किताब वो सातवीं मर्तबा पढ़ रहा है।
मजे की बात तो ये हुई कि दसवीं के इम्तिहान के एक परचे में जब 'आपका पसंदीदा शायर' पर लिखने का सवाल आया तो इस लड़के ने जवाब में फ़ैज पर न सिर्फ़ लम्बा लेख लिखा बल्कि साथ में 'दस्ते-सबा' में छपी बहुत सी ग़ज़लें और नज्में भी लिख दी जिसे पढ़ कर कॉपियां चैक करते वक्त एगज़ामिनर ने भी दाँतों तले उँगली दबा ली क्योंकि फ़ैज के बारे में इतना तो उन्हें भी पता नहीं था।
लाइब्रेरियन ने लड़के की पढ़ने की लगन को देखकर एक बार अपने असिस्टेंट को कहा कि 'उस टेबल पर बैठे लड़के को देख रहे हों मियाँ, एक दिन वो अपना और भिवंडी का नाम पूरी दुनिया में रौशन करेगा और ज़िन्दगी में बेहतरीन शख़्स बनेगा।' लाइब्रेरियन की पहली बात सच हुई ये तो पता नहीं लेकिन इस लड़के जिसका नाम 'अमीर' है को जानने वाले उसके बारे में कही दूसरी बात से जरूर इत्तफ़ाक़ रखेंगे।
निहाल यादों की चाँदी में शब, तो दिन सारा
किसी के ज़िक्र का सोना उछालने में गया
*
दिल-ओ-दिमाग़ मुअ'त्तर तुम्हारे नाम से है
तो फिर ये बू-ए-शिकायत कहांँ से आती है
मुअ'त्तर :सुगंधित
*
जुनूँ पे इससे बुरा वक़्त और क्या होगा
कि जान छूट गई तेरे जाँ-निसारों की
जनाब आप तो ले बैठे घर के दुखड़े को
हुजूर बात थी सहरा की रेगज़ारों की
तुम्हारा रंग न आना था सो नहीं आया
धनक सजाते रहे लाख इस्तिआ'रों की
*
जाने किस जुर्म में माख़ूज़ वो जिंदानी है
जो भी आता है वो जंजीर हिला जाता है
माख़ूज़: पकड़ा गया, जिंदानी: क़ैदी
*
टहनियाँ दिल की बेलिबास हुईं
आस के पंछी उड़ गए सारे
दीद इज़्हार क़ुर्ब लम्स विसाल
हल नहीं होते मस्अले सारे
कैसी इम्काँ थे अपने यारों में
वक्त बदला बदल गए सारे
इम्काँ: सँम्भावना
*
ज़हर पीना दुर-ए-नायाब लुटाते रहना
जर्फ़ कब मुझको मयस्सर है समंदर तुझ सा
दुर-ए-नायाब: अमूल्य रत्न, जर्फ़: पात्र
28 अप्रैल 1971 को भिवंडी में पैदा हुए 'अमीर हमज़ा साक़िब' दरअसल आज़मगढ़ के पास के छोटे से गाँव के हैं। उनके वालिद बेहतरीन शायर जनाब अताऊर रहमान 'अता', कारोबार के सिलसिले में भिवंडी आए और फिर यहीं के हो कर रह गये। 'अमीर' अम्बेडकर लाइब्रेरी में रखी शायरी की किताबें पढ़ते पढ़ते खुद भी शेर कहने की कोशिश करने लगे। वालिद साहब की उँगली पकड़ कर शेर कहने का सलीका सीखा और उन्नीस साल की उम्र से बाक़ायदा शायरी करने लगे। मुशायरों और नशिस्तों में शिरकत भी करने लगे लेकिन ये सिलसिला लम्बा नहीं चल पाया।
मुशायरों के लिये शायरी करना सरकारी या गैरसरकारी संस्थान में नौकरी करने जैसा काम है। जैसे नौकरी में मातहत की पूरी कोशिश बॉस को खुश करने की होती है क्योंकि उसे नाराज़ करके उसकी तरक्की नहीं हो सकती ठीक वैसे ही मुशायरे के शायर सामईन को खुश करने की लगातार कोशिश करते रहते हैं चाहे उसके लिए उन्हें पढ़ते वक्त नौटंकी करनी पड़े या गायकी। शायर का सिर्फ़ एक ही मक़सद होता है, सामईन की वाहवाही और तालियाँ बटोरना। जो ज्यादा बटोर पाता है वो ही लम्बे वक्त तक मंच पर टिका रहता है और ज़्यादा पैसा कमा पाता है। वाहवाही और तालियों की चाहत में शायरी हाशिये पर धकेल दी जाती है। ये बात सभी शायरों पर लागू नहीं होती लेकिन ज़्यादातर पर होती है। एक बात तो मैं यकीन से कह सकता हूँ कि अब मुशायरे के मंच से बेहतरीन शायरी पढ़ने वाले शायरों के दिन लद गए हैं. अलबत्ता कुछ नौजवान शायर बहुत खूब कह रहे हैं और मंच से अच्छी शायरी पढ़ने की हिम्मत भी कर रहे हैं लेकिन वो भी हज़ारों की भीड़-भाड़ वाले बड़े मज़मेनुमा मुशायरों में कामयाब नहीं हो पाते। यही कारण है कि मुशायरों में आठ दस घंटे का वक्त खपाने के बाद बड़ी मुश्किल से आपके हाथ दो या तीन ऐसे शेर हाथ आते हैं जो आपके ज़हन में कुछ देर तक टिके रह सकें। इतने वक्त में तो आप किसी किताब या रिसाले को पढ़ कर घर बैठे ही बहुत कुछ हासिल कर सकते है। अमीर ने कुछ वक्त तक तो मुशायरे के मंचों को देखा और आखिर में उकता कर मुशायरों से तौबा कर ली । शायरी करना 'अमीर' की मज़बूरी नहीं बल्कि खुद से गुफ़्तगू करने का एक जरिया है।
इस किताब की भूमिका वो अपनी शायरी के हवाले से लिखते हैं कि ' शेर कहते वक़्त मैं मुकम्मल न सही मगर एक बे-ख़बरी में जरूर होता हूँ।लफ्ज़ और उनकी पुर-असरारियत (रहस्मयता ) मुझे हैरत में डालती है। लफ़्ज़ों के इम्कानात (संभावनाएं )को खंगालना ,उन्हें नए मआ'नी-ओ-मफ़ाहीम (अर्थ-भाव) देना किसी तख़्लीक़ी (रचनात्मक ) एडवेंचर से कम नहीं। मैं एक सफर पर निकला हूँ , तख़्लीक़ी एडवेंचर के सफर पर। इस सफर में मेरे हाथ क्या आएगा नहीं जानता। अलबत्ता ये जानता हूँ कि इस सफर में रायगानी (व्यर्थता )मेरा मुकद्दर नहीं होगी।
मेरी बरहना पुश्त थी कोड़ों से सब्ज़-ओ-सुर्ख़
गोरे बदन पे उसके भी नीला निशान था
ज़िंदगी हाय तआ'कुब तेरा
आख़िरी बस का सफ़र हो जैसे
तआ'कुब: पीछा करना
दस्तरस में वो नहीं है मेरी
शे'र कहने का हुनर हो जैसे
फिर कठिन और कठिन और कठिन
सांँस पनघट की डगर हो जैसे
*
क्या आस्माँ उठाते मोहब्बत में जबकि दिल
तार-ए-निगह में उलझी हुई इक पतंग था
*
मिले न तुम ही न हम और ही किसी के हुए
यही बचा है कि अब अपने ही अ'दू हो जाएंँ
अ'दू: दुश्मन
*
रहे कहीं भी कहीं दूर मुझसे तू छुप जाए
मेरे ख़यालों में चेहरा तेरा दमकता है
ये ज़िस्म-ओ-रूह की गहराइयों में उतरेगा
ये दर्द वो नहीं आंखों से जो छलकता है
गुनाहगार न बन दिल मेरे ख़ुदा के लिए
ख़याल-ए-यार का दामन कोई झटकता है
तुम्हारा लुत्फ़-ओ-करम हम फ़क़ीर लोगों पर
किसी गरीब की छत की तरह टपकता है
*
पत्थर पड़े हैं राह के बे-ख़ानुमाँ-ख़राब
अब शहर में कोई भी दिवाना नहीं है क्या
बे-ख़ानुमाँ: बेघर
*
ये ख़्वाब रक्खेगा बेदार मुझको बरसों तक
तिरी गली में मैं अपना मकान देखता हूँ
'अमीर' साहब ने भिवंडी से ग्रेजुएशन करने के बाद पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए मैसूर यूनिवर्सिटी को चुना और वहां से उर्दू में एम.ऐ. किया। नेट की परीक्षा दी और 'मीर तकी मीर' पर रिसर्च कर पी.एच डी की डिग्री हासिल की। इन दिनों आप भिवंडी के जी.एम. मोमिन वीमेन्ज़ कॉलेज के उर्दू विभाग में प्रोफ़ेसर के पद पर काम कर रहे हैं। पढ़ने लिखने के बेहद शौक़ीन 'अमीर' साहब को संगीत से भी दीवानावार मुहब्बत है। इसकी मोहब्बत में गिरफ्तार हो कर उन्होंने बाकायदा हिंदुस्तानी क्लासिकल म्यूजिक की तालीम जौनपुर के उस्ताद मोहम्मद हुसैन साहब से हासिल की। वक़्त की कमी के चलते वो संगीत में महारत तो हासिल नहीं कर सके लेकिन अब भी जब मूड होता है तो किसी न किसी राग को छेड़ कर उसमें डूबने की कोशिश करते हैं। संगीत के अलावा उनकी फिल्मों में भी बेहद दिलचस्पी है। शायरी तो खैर उनकी पहली मोहब्बत जैसी है।
'अमीर' साहब ने जनाब 'मीर तकी मीर' साहब को जब पढ़ा तो उनके रवैये में तब्दीली आयी और उनकी फ़िक्र का मरकज़ जदीदियत की जगह इश्क हो गया। चीजों को रोमांटिसाइज करना और उसमें मिस्ट्री पैदा करना उनका दिलचस्प मश्ग़ला रहा है।'अमीर' अपनी शायरी हवाले से फरमाते हैं कि ' अपनी शायरी के ताल्लुक से मुझे किसी भी तरह की कोई खुशफ़हमी तो नहीं है बस ये है कि मुझे शेर कहने का जो अमल है उसमें लुत्फ़ आता है। लफ़्ज़ों को जानना, चीजों को उलट-पलट कर देखना और देखने का जो अपना जो एक तरीका है कि मैं हाल को भी माज़ी के तनाज़ुर (प्रेस्पेक्टिव ) में देखने की कोशिशें करता हूँ। लफ्ज़ उनके म'आनी और लफ्ज़ और म'आनी के दरमियान जो एक रिश्ता है जिसको , नून मीम राशिद साहब ने 'रिश्ता हाय आहन' कहा है तो ये लफ्ज़ और म'आनी के दरम्यान जो एक आहनी रिश्ता और जब वोही आहनी रिश्ता किसी शेर में आकर सय्याल (तरल, बहने वाला) हो जाता है उसमें सय्यालियत पैदा होती है तो ये तमाम चीजें मेरे लिए बड़ी मिस्टीरियस सी लगती हैं और मैं उसी मिस्ट्री में जीना पसंद करता हूँ। उसी रिश्ते पर गौर करता रहता हूँ। चीजों को माज़ी में देखने की कोशिश करता हूँ। कभी तवारीख़ का हिस्सा बन जाता हूँ कभी किसी क़िरदार में ढल जाता हूँ। फ़ितरत जो है वो मुझे बहुत मुत्तासिर करती है। फ़ितरत अपनी तरफ़ बुलाती है। जो रंग हैं, जो खुशबुएँ हैं, जो रौशनी है, लफ्ज़ हैं, म'आनी है , इंसानी रिश्ते हैं उन रिश्तों के दरमियान जो बदलती हुई नवीयतें हैं वो आपको मेरी शायरी के मरकज़ में ख़ुसूसन मिल जाएँगी।
अपनी शायरी के आगाज़ के लगभग 15 साल बाद 'अमीर' साहब का पहला मजमुआ सन 2014 में 'मौसम-ए-कश्फ़' के नाम से देहलीज़ पब्लिकेशन से शाया हुआ और बेहद मक़बूल हुआ। उसके करीब 5 साल बाद सन 2019 में देवनागरी में रेख़्ता द्वारा पब्लिश हुआ उनका दूसरा मजमुआ 'जिस्म का बर्तन सर्द पड़ा है' शायरी पढ़ने वालों को बहुत पसंद आ रहा है। उनकी शायरी 'रेख़्ता की साइट पर भी उपलब्ध है। मेरी सभी शायरी प्रेमियों से गुज़ारिश है कि अगर आप संजीदा शायरी पसंद करते हैं तो आपकी निजी लाइब्रेरी में उनकी ये किताब जरूर होनी चाहिए। आप 'अमीर' साहब को उनके खूबसूरत क़लाम के लिए 9890250473 पर फोन कर मुबारक़बाद दे सकते हैं।
आख़िर में पेश हैं उनकी इसी किताब से लिए कुछ और शेर :
आगही खून चूस लेती है
छोड़िए जो हो बा-ख़बर रहिए
आगही: ज्ञान
*
'मीर' साहब से पूछिए जा कर
इ'श्क़ बिन क्या अदब भी आता है
मैं उसे गुनगुनाए जाता हूं
वो मुझे भूल भूल जाता है
*
सुराग़ अपना मिले कहां से
तुम्हारी दुनिया के हो चुके हैं
*
दिल के मैदाँ में खेल जारी है
उसकी आंँखों का मेरे आंँसू का
*
ये दुनिया हाथ बांँध सामने थी
मगर मैं आसमांँ को तक रहा था
*
जिसे तुम दिल हमारा कह रहे हो
भरी बरसात की सूनी गली है
*
तुम्हारी याद पर है जोर अपना
ये दुनिया आज़माई जा चुकी है
*
तेरी आहट से मुझ में दूर तलक
एक जंगल सा फैल जाता है
कुफ्र है हिज्र का तसव्वुर भी
आसमाँ कब जमीं से बिछड़ा है
- नीरज गोस्वामी