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Abount the Book: प्रस्तुत किताब 'ख़ुदा-ए-सुख़न' मीर तक़ी मीर की जीवनी है जो उनकी ३००वीं जयंती पर प्रकाशित की जा रही है। इस किताब में उनकी जीवन-यात्रा के साथ-साथ उनके व्यक्तित्व के विकास और उसके आध्यात्मिक पहलुओं को भी शामिल किया गया है।

Abount the Author: "फ़रहत एहसास (फ़रहतुल्लाह ख़ाँ) बहराइच (उत्तर प्रदेश) में 25 दिसम्बर 1950 को पैदा हुए। अ’लीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्ति के बा’द 1979 में दिल्ली से प्रकाशित उर्दू साप्ताहिक ‘हुजूम’ का सह-संपादन। 1987 में उर्दू दैनिक ‘क़ौमी आवाज़’ दिल्ली से जुड़े और कई वर्षों तक उस के इतवार एडीशन का संपादन किया जिस से उर्दू में रचनात्मक और वैचारिक पत्रकारिता के नए मानदंड स्थापित हुए। 1998 में जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली से जुड़े और वहाँ से प्रकाशित दो शोध-पत्रिकाओं (उर्दू, अंग्रेज़ी) के सह-संपादक के तौर पर कार्यरत रहे। इसी दौरान उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो और बी.बी.सी. उर्दू सर्विस के लिए कार्य किया और समसामयिक विषयों पर वार्ताएँ और टिप्पणियाँ प्रसारित कीं। फ़रहत एहसास अपने वैचारिक फैलाव और अनुभवों की विशिष्टता के लिए जाने जाते हैं। उर्दू के अ’लावा, हिंदी, ब्रज, अवधी और अन्य भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी व अन्य पश्चिमी भाषाओं के साहित्य के साथ गहरी दिलचस्पी। भारतीय और पश्चिमी दर्शन से भी अंतरंग वैचारिक संबंध। सम्प्रति ‘रेख़्ता फ़ाउंडेशन’ में मुख्य संपादक के पद पर कार्यरत। "

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मत  सहल  हमें  जानो  फिरता  है  फ़लक  बरसों
तब  ख़ाक  के  पर्दे  से  इंसान  निकलते  हैं।
मीर तक़ी मीर

पहले कुछ बातें
मीर तक्री 'मीर' उर्दू के सब से बड़े शाइर ही नहीं, पहले बड़े शाइ' भी हैं। जो लोग
शाइरी के शोर भरे बाजार की आवाजों के पद-चिन्हों पर चलते-चलते शाइरी तक पहुँचते
हैं, उन के लिए मुम्किन है 'मीर' बस एक बहुत दूर से आती हुई आवाज हों जिन के कुछ शेर
इधर-उधर से आकर, समाअत या फिर दिल-दिमाग को छू जाते हों, मगर शाइरी, उर्दू शाइरी
से सचमुच की और संजीदा दिलचस्पी और सरोकार रखने वालों को मालूम है कि 'मीर', जिन्हें
हम सब मीर साहब कहते हैं, अकेले ऐसे शाइर हैं जिन्हें ख़ुदा--सुखन (शाइरी का
खुदा/ईश्वर कहा गया है और अब भी कहा जाता है, यानी पिछले तीन सौ बरसों (1723-2023)
से ये ताज मुसलसल 'मीर' साहब के सर पर सुशोभित है। नहीं मालूम कि ये उपाधि उन्हें किस ने दी
मगर ये जानना मुश्किल नहीं कि क्यों दी गई। ख़ुदा ईश्वर के दो काम बुनियादी हैं : पैदा करना/रचना
और अपने पैदा किए गए को पालना, बढ़ाना और बचाना। मीर साहब ने उर्दू शाइरी ( और जबान/भाषा
के भी) संदर्भ में यही भूमिका निभाई है।

'मीर' के जमाने में उर्दू (जिसे उस समय रेतः कहा जाता था : रेख्तः = गिरी पड़ी मिली-जुली खिचड़ी भाषा)
शाइरी बस अभी-अभी अपनी होश की उम्र को पहुँची थी। इस के साथ ही रेख्तः भी एक ऐसी हालत को
पहुँच रही थी जिसे बड़ी शाइरी का रूप रस देने के लिए

काम में लाया जा सके। याद रहे कि रेख्तः की शाइरी उत्तरी भारत (देहली) में 'मीर' से
कोई 50-70 साल पहले से हो रही थी। इस से भी पहले, सोलहवीं सदी से, रेख्तः के दक्षिण
भारतीय रूप, जिसे दकनी/ गुजरी कहा जाता था, में शाइरी की एक भरी-पुरी परंपरा जारी
थी जो अठारवीं सदी तक चलती रही। लेकिन दकनी भाषा की अपनी रूप- शैली की जटिलताओं
और इलाक्राई हद बंदियों के कारण उसे रेख्तः/ उर्दू शाइरी की मुख्य धारा का दर्जा हासिल नहीं हो
सका, यद्दपि ये शाइरी भावात्मक और कलात्मक समृद्धि के लिहाज से अपनी एक ख़ास हैसियत रखती
थी। भाषा और शाइरी के रूप में, रेख्तः/ उर्दू का उत्तर-भारतीय या देहलवी रूप ही (जो देहली के आस-
पास बोली जाने वाली खड़ी बोली पर आधारित था) मुख्य धारा की शक्ल में स्थापित और प्रचलित हुआ।
मीर साहब ने इस जबान को फ़ारसी जैसी बड़ी जबान के सामने अपने बल-बूते पर खड़ी रह सकने
वाली जबान के रूप स्थापित करने में क्रांतिकारी योगदान दिया। दूसरे शब्दों में उन्होंने रेख़्तः का
मानकीकरण किया और इस तरह इसे इस क्राबिल कर दिया कि वो एक बोली से भाषा के स्तर तक
जा पहुँची। इस के अलावा, उन्होंने भाषा पर अपने मुकम्मल अधिकार, अद्भुत काव्य-क्षमता और
बेपनाह कल्पना शक्ति से काम ले कर, रेख्तः को गहरे जीवन अनुभवों, सूक्ष्म अनुभूतियों और वैचारिका
बौद्धिक जटिलताओं को अभिव्यक्ति देने के योग्य भी बनाया। इस काम के लिए उन्होंने भाषा की बाहरी
और अन्दरूनी संरचनाओं का रचनात्मक इस्तेमाल करने के नए तरीके खोजे, शब्दों के अर्थ-विस्तार और
देखने में साधारण लफ्जों में नई भावात्मक ऊर्जा पैदा करने की राहें तलाश कीं और बयान की नई तकनीकों
से काम लिया जिन में संज्ञाओं के बजाए क्रियाओं का कलात्मक प्रयोग बहुत नुमायाँ है।
'मीर' ने ये काम ऐसे समय में किया जब केंद्रीय सत्ता पूरी तरह बिखर चुकी थी और सुरक्षा व्यवस्था नाम
की कोई चीज पाई ही नहीं
कृपाशील सष्टा और सारी सृष्टि के आराध्य की प्रशंसा और मक़ाम--महमूद
(ख़ुदा के आमने-सामने होने की अवस्था) तक पहुँचने वाले यानी पैग़म्बर साहब
पर बे-हिसाब दुरूद और सलाम (शांति की दुआ और वंदना) के बाद ये फ्रक्रीर,
मीर मोहम्मद तकी, जिस का तख़ल्लुस (उपनाम) 'मीर' है, कहता है कि इन दिनों
जब मुझे कोई काम नहीं था और किसी संगी-साथी के बगैर एक कोने में पड़ा हुआ
था, अपने हालात लिख डाले, जिन में मेरी आप-बीती, अपने समय का वृत्तांत और
घटनाएँ और बहुत से क्रिस्से-कहानियाँ शामिल हैं, और इस किताब का नाम
ज़िक्र--मीर' रखा, और इसे कुछ लतीफों (मजेदार बातों) पर ख़त्म किया।
दोस्तों से उम्मीद है कि अगर कोई ग़लती देखें तो उसे कृपा कर के अनदेखा करें
और ठीक कर दें।
मेरे पूर्वज
मेरे पूर्वज, एक ऐसे कठिन समय में जब सुब्ह भी शाम नजर आती थी, अपने घर वालों
और सारे सामान के साथ हिजाज (सऊदी अरब का एक इलाका) से चले और दक्षिणी
भारत की सरहद पर पहुँचे। रास्ते में वो सब झेलते हुए जो किसी को भी झेलना
पड़े और वो सब देखते हुए जो किसी को भी देखना पड़े, इस क्राफ्रिले ने अहमदाबाद,
गुजरात में पड़ाव किया। उन में से कुछ लोगों ने वहीं डेरे डाल दिए और बाक़ियों ने हिम्मत
की और आगे चल पड़े। इस तरह मेरे परदादा राजधानी अकबराबाद (आगरा) में बस गए
यहाँ वो जलवायु बदलने से बीमार पड़े और इस संसार से कूच कर गए। उन्हों ने अपने पीछे
एक बेटा छोड़ा जो मेरे दादा थे। फिर मेरे दादा ने कमर कसी और काम की

 



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p
praveen devgan
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Its quite a reasonably good read. But not outstanding. things of childhood has been written as an adult , so they lack simplicity. & too much confusion in understanding battles & who is who , & who is fighting whom. A hierarchical tree would have been good to understand. & lastly derogatory language has been used against Sikhs. It can cause some issues. ( when read by a hardliner sikh).

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