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इस युग की सबसे बड़ी उलझन वैदिक परिभाषाओं की खोज है। सायण ने हमें वेदों के शब्दार्थ से परिचित कराया। सायण की सहायता के बिना इस महासमुद्र में हम न जाने कहाँ होते। किन्तु यज्ञीय कर्मकाण्ड की व्याख्या के लिए मन्त्रों का विनियोग तो वैदिक अर्थों का एक अंश मात्र था। वेद के पश्चिमी विद्वानों ने सायण के प्रदर्शित मार्ग से वेदों का अनुशीलन किया, किन्तु उन्होंने भाषाशास्त्र और तुलनात्मक धर्म-विज्ञान इन दो नए अस्त्रों से वैदिक अर्थों की जिज्ञासा को आगे बढ़ाया।आत्म-विद्या के जिज्ञासुओं के लिए मन्त्रों की भाषा और परिभाषाओं को स्पष्ट करने की आवश्यकता है। हमारी दृष्टि में वेदार्थ को अवगत करने के लिए ऊपर के सभी मतों में सत्य का अंश है। जिस विधि से मन्त्रों पर नया प्रकाश पड़े, जिस अर्थ से आत्म-विद्या का कोई नया क्षेत्र या पहलू प्रकाशित हो, वही दृष्टिकोण, प्रमाण या सामग्री स्वागत के योग्य है। वेद के जिज्ञासु छात्र का मन सब ओर से उन्मुक्त रहता है। उसके मन में चतुर्दिश दीप्ति पटों से प्रकाश और वायु का स्वच्छन्द प्रवेश होता है। वह आलोक का स्वागत करता है और उस महान् व्यापक ज्योति के लिए अपने चक्षु खोलता है, जो पृथिवी और द्युलोक के अन्तराल में भरी हुई है। मित्र और वरुण अथवा ऋत और सत्य नामक सृष्टि के द्वन्द्वात्मक तत्त्व की ही ज्योति हमारे भीतर-बाहर, सब ओर व्याप्त है। इसी को 'उरु-��्योतिः' कहा गया है।भारतीय धर्म, संस्कृति-दर्शन-परंपरा के अप्रतिम हस्ताक्षर श्री वासुदेवशरण अग्रवाल के चिंतनपरक लेखों का संकलन।_________________________________________________अनुक्रमभूमिका—5प्रकाशकीय वक्तव्य—111. कः—192. संप्रश्न—223. रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव—274. एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति—305. द—द—द—456. ब्रह्म-पुरी—487. वैदिक परिभाषा में शरीर की संज्ञाएँ—528. ब्रह्मचर्य—649. वाजपेय-विद्या—6810. च्यवन और अश्विनीकुमार—7411. अङ्गिरस् अग्नि—8112. प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे—9013. दाक्षायण हिरण्य—9914. वरुण की पृश्नि गौ—10415. चरैवेति-चरैवेति—10916. शुनःशेप—11517. पशु और मनुष्य—12218. पाप्मा वै वृत्रः—12619. योऽसावसौ पुरुषः सोऽहमस्मि—12920. अमृत-आधार—13321. इन्द्र—13922. अरुन्धती—15923. विचारों का मधुमय उत्स—16924. आश्रम-विषयक योग-क्षेम—177

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