ठाकुर का कुआँ
जोखू ने लोटा मुँह से लगाया तो पानी में सख्त बदबू
आई। गंगी से बोला- यह कैसा पानी है ? मारे बास
के पिया नहीं जाता । गला सूखा जा रहा है और तू सड़ा
हुआ पानी पिलाए देती है ।
गंगी प्रतिदिन शाम को पानी भर लिया करती थी ।
कुआँ दूर था; बार-बार जाना मुश्किल था । कल वह
पानी लाई, तो उसमें बू बिलकुल न थी; आज पानी में
बदबू कैसी ? लोटा नाक से लगाया, तो सचमुच बदबू
आत्म-संगीत
आधी रात थी । नदी का किनारा था । आकाश के तारे स्थिर थे और नदी में उनका प्रतिबिम्ब लहरों के साथ
चंचल । एक स्वर्गीय संगीत की मनोहर और जीवनदायिनी, प्राणपोषिणी ध्वनियाँ इस निस्तब्ध और तमोमय दृश्य पर इस प्रकार छा रही थीं, जैसे हृदय पर आशाएँ छायी रहती हैं, या मुखमंडल पर शोक ।
रानी मनोरमा ने आज गुरु-दीक्षा ली थी । दिन भर दान और व्रत में व्यस्त रहने के बाद मीठी नींद की गोद
में सो रही थी । अकस्मात् उसकी आँखें खुलीं और ये मनोहर ध्वनियाँ कानों में पहुँचीं। वह व्याकुल
गई - जैसे दीपक को देखकर पतंग; वह अधीर हो उठी, जैसे खाँड की गंध पा कर चींटी । वह उठी और
द्वारपालों एवं चौकीदारों की दृष्टियाँ बचाती हुई राजमहल से बाहर निकल आयी - जैसे वेदनापूर्ण क्रन्दन
सुनकर आँखों से आँसू निकल आते हैं ।