कवियों को जवानी में ही मर जाना चाहिए और कथाकारों को बुढ़ापे में ही पैदा होना चाहिए”—यह उक्ति पता नहीं मैंने अपनी जवानी में किस किताब में पढ़ी थी? लेखक का नाम भी अब याद नहीं रहा। जाने वह कौन था? कोई विफल अधेड़ कवि था या सफल वृद्ध कथाकार? उसके अधेड़ कवि होने की सम्भावना ही अधिक नजर आती है मुझे तो। कोई ऐसा अधेड़ जर्मन कवि, जिसकी चाँद गंजी और आत्मा रोएँदार होने लगी होगी और जिसकी प्रशंसक किशोरियाँ उसके बीयर-बेडौल शरीर में उसकी जवानी के गीतों का आत्मघाती रोमानी हीरो ढूँढ़ने में अपने को असमर्थ पाने लगी होंगी।
देखिए, सफल न सही, वृद्ध कथाकार तो मैं भी हूँ, और मेरा अनुभव यह है कि जीने के लिए लिख भले ही लूँ, लिखने के लिए मुझसे अब जीया नहीं जाता। अपने कथाकार के बुढ़ापे में पैदा होने के इन्तजार में मैंने जो ढेर सारी कहानियाँ जवानी में नहीं लिखीं, वे मेरे साथ-साथ बूढ़ी होती चली गयी हैं और जिस हद तक मैं मृत्यु के निकट पहुँच चुका हूँ, उसी हद तक वे भी पहुँच चुकी हैं। मरती हुई कहानियाँ लिखकर अमर हुआ जा सकता है भला?
जिस जमाने में मैं इस तरह की अपने से मुग्ध और दूसरों को मुग्ध करने को आतुर उक्तियों से भरी पड़ी किताबें पढ़ा करता था, मैं भी अपने साथी लेखकों की तरह सोचता था कि साहित्य से जुड़कर मैं अनश्वरता से जुड़ रहा हूँ। गोया ऐसी ही उक्तियों से भरी जो दर्जनों कृतियाँ मेरी लेखनी से निकलेंगी, उन्हें आने वाली पीढ़ियों के मेरे ही जैसे लोग, किसी धूप खिले या बादल घिरे दिन, मेरी रचना के मौसम का अपने बाहरी और भीतरी मौसम से तादात्म्य बैठाते हुए पढ़ेंगे, और मेरी किसी उक्ति पर अटककर, किताब के पृष्ठों के बीच अँगुली रखकर उठेंगे कि किसी को सुनायें कि किसी के लिखे में उसने क्या-क्या सुन लिया है उठेंगे और फिर सामने खिड़की से दीखती रोजमर्रा की दुनिया पर नजर डालने के बाद तय पायेंगे कि नहीं, जो हमने सुना है, उसे ऐसे सुनाने बैठ गये तो सिरफिरे समझे जायेंगे। इसे तो अपने ढंग से फिर लिख डालना होगा, लेखक
"आप भी यह मत भूलना, मैं फ्रीडम फाइटर हूँ। मुझे बड़े-बड़े नेता फ्रीडम स्ट्रगल के जमाने से जानते हैं और मेरे ही कहने पर उन्होंने आप लोगों के प्राइमरी स्कूल को हाई स्कूल बनाया है। मैं सत्याग्रह पर बैठ गया तो वह डिक्शनरी क्या, यह सारा स्कूल आपको मुझे दे देना पड़ेगा महाराज। मैं बताऊँगा, कंट्री के नमाम लीडर्स को कि आपका लाया हुआ यह प्रिंसिपल स्कूल को भी उसी तरह गू-मूत की नाली में फेंक रहा है, जिस तरह इसने मेरी डिक्शनरी उसमें फेंकी। जिस स्कूल को मैंने अपने खून-पसीने से सींचा ठहरा, उसे इसने गन्दी नाली में फेंक दिया। जो डिक्शनरी मैंने बीस साल से सँभालकर रखी ठहरी, उसे इसने मूत की नाली में विसर्जित कर दिया। अब मैं चुप नहीं रहूँगा। चिल्ला-चिल्लाकर कहूँगा लीडर्स से। सारी पोल-पट्टी इस आपके स्कूल और प्रिंसिपल दोनों की
प्रोफेसर ट-टा का स्वर तेज और ऊँचा होता चला गया और साथ-ही-साथ उनकी आँखें भरती चली गयीं। वह बाकायदा फूट-फूटकर रोने लगे। मैनेजर सैप ने कहा, "मास्टर होते हुए भी रोना आपको शोभा नहीं देता।"
ट-टा बोले, “और आपके प्रिंसिपल को यह शोभा देने ही वाला ठहरा कि विद्या को उठाकर टट्टी-पिसाब में डाल दे। मैं रोऊँगा मैनेजर सैप, टट्टी-पिसाब से सना आपका यह स्कूल तो अब मेरे आँसुओं की गंगा से ही पवित्र हो सकता है |तभी प्रिंसिपल सैप ने यह कहकर सनसनी फैला दी कि डिक्शनरी खुद प्रोफेसर के हाथों से नाली में गिरी है। समर्थन में जूनियर क्लर्क ने कहा कि प्रोफेसर सैप मिस येन की ओर देखते हुए जा रहे थे, इसलिए चट्टान से टकराकर इनका सन्तुलन बिगड़ गया। मैं प्रोफेसर के आँसुओं से स्कूल की धुलाई देखने के लिए नहीं रुका क्योंकि मैं अल्मोड़ा जाने की जल्दी में था। प्रोफेसर ट-टा का यह शेंदू सत्याग्रह शनिवार तीसरे पहर स्कूल बन्द होने के समय शुरू हो रहा था और सोमवार की भी छुट्टी पड़ने की वजह से मुझे पन्द्रह मील दूर पैदल अल्मोड़ा जाकर घर हो आने के लिए काफी समय मिल रहा था। अल्मोड़ा की चुंगी से कुछ ही कदम आगे बढ़ाये थे कि मेरे भीतर हँसी का हड़कम्प शुरू हुआ और हास्यास्पद प्रोफेसर ट-टा की कहानी मेरे मन में जन्म लेने लगी। मेरे साहित्यिक मित्र ललित का घर चुंगी से मेरे घर के रास्ते के बीचोबीच मुख्य सड़क पर पड़ता था। रात हो चुकने के बावजूद मैं सीधा घर न जाकर उसके
कलावती येन के घर के आसपास मंडराते हुए पहले ही दिन नायक और लेखक की हैसियत से मैंने नायक-नायिका की एक अनायास टक्कर के बारे में पूरी कहानी मन-ही-मन लिख डाली। नायक वर्षा से बचने के लिए एक पेड़ के नीचे पहुंचता है और बिजली के कड़कने पर देखता है कि नायिका वहां भीगी खड़ी ठिठुर रही है। नायक उस अपरिचित को अपनी बरसाती और कोट दे देता है तथा छाता भी उसके सिर की ओर झुका देता है। नायिका बिना कुछ कहे बरसाती और कोट को पसारकर न्योता देती है कि वह भी उसमें आ जाए।
लेकिन अफसोस, मैं कलावती से टकराने की बजाय प्रोफेसर ट-टा से टकरा गया। हम दोनों ने एक-दूसरे से पूछा, "आप यहां कैसे?" ट-टा ने मेरे सवाल का जवाब देना आवश्यक नहीं समझा लेकिन अपने सवाल का जवाब दिए जाने पर जोर दिया। मैंने कहा, "मैं तो सैर करने निकला था सर!"
उन्होंने मेरी सफाई नामंजूर कर दी, "आज तक तो आपको कभी सैर करते हुए देखा नहीं, मिस्टर जोशी!"
मैंने उस दिन प्रोफेसर ट-टा से मिलना संयोग समझा और तीन दिन बाद फिर शाम को अपनी कहानी 'आदिम राग' की नायिका की तलाश में निकल पड़ा। इस बार मैं ऐसे रास्ते से गया जो कलावती के घर के पिछवाड़े से गुजरता था। मैं उसके मकान के पीछे गेट के पास खड़ा हो गया ताकि अगर वह दिखे तो उसे बुला सकूं।
तभी किसी ने मेरा कंधा दबोचा। पलटकर देखा, प्रोफेसर ट-टा थे। उन्होंने पूछा, "आप यहां क्या कर रहे हैं मिस्टर जोशी?"
मैंने धृष्टता से कहा, "मैं बर्ड वाचिंग कर रहा हूं सर! इस इलाके में एक छोटी-सी प्यारी पीली चिड़िया दिखाई देती है। क्या आप भी उसी को देखने आए हैं?"
प्रोफेसर ट-टा ने मेरी बांह पकड़ी और मुझे थोड़ा दूर ले गए। बोले, "मिस्टर जोशी, मैं चिड़िया-चिड़िया
बोज्यू ने लला से कहा, "तुम्हारे मामा को लिखो ना चिट्ठी। पढ़े-लिखे हो, खुद लिख दो मामा को।" मैं दे दूंगी पोस्टकार्ड, मेरे पास एक पुराना पड़ा हुआ है।"
तो लला ने बोज्यू के दिए हुए पोस्टकार्ड पर चिट्ठी लिखी अपने उन मामा को, जो बचपन से ही घर से भाग गए थे और उन दिनों सुदूर लाहौर में किसी अखबार में प्रूफरीडिंग करते थे। वहां आर्यसमाजियों के बीच उन्हें योगी समझा जाता था।
बुबू की अवहेलना करते हुए इस तरह बोज्यू से साजिश कर मामा को पत्र लिखना लला को अपने भाई न रहने का सुखद सबूत लगा। एक और सबूत पहले ही मिल चुका था, जब आज भाभी के आंचल में मसालों और पसीने की गंध से ऊपर और अलग भी कुछ सूंघ सका था, अपनी विरासत में मिली लंबी नाक से।
जब वह चिट्ठी लिखी और डाक में डलवा दी गई, तब बोज्यू की आंखों में आंसू आ गए। उसने कहा, "इस विधवाओं के घर में मुझे तुम्हारा ही सहारा है। अगर तुम चले जाओगे तो मैं यहां कैसे जियूंगी?"
लला ने बोज्यू को गले लगाया और उसे भी अपने प्रवास के सपने में शामिल किया। उसने कहा, "मैं तुमको बुला लूंगा जरूर। अब मैं बड़ा हो गया हूं, अब मुझे किसी से डर नहीं लगेगा।"
बोज्यू आंसू पोंछते हुए हंसी और बोली, "मैं क्या करूंगी लाहौर आकर?"
लला ने कहा, "तुम भी पढ़ना। नौकरी कर लोगी पढ़-लिखकर।"
बोज्यू हंसी, "शादी भी कर लूंगी क्या?"
लला बोला, "कर लेना। समाज-सुधारक तो इसी पक्ष में हैं। मेरे मामाजी भी समाज-सुधारक हैं। आर्यसमाजियों में तो होता ही है विधवा-विवाह।"
बोज्यू हंसकर बोली, "शादी कौन करेगा मुझसे? तुम्हारे मामा?"
लला ने बताया कि वह तो नहीं हो सकता क्योंकि मामा शादी नहीं करते, जोगी जैसे उदास हैं।
बोज्यू ने लला का हाथ पकड़ा, उसे अपनी ओर खींचा और आंखें मटकाकर पूछा, "तो फिर किससे करूंगी मैं शादी? तुमसे? करोगे ना लला?"
लला स्तब्ध रह गया। फिर धीरे से उसने अपना सिर हिलाकर नहीं कहा।