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“श्री हजारीप्रसाद भक्ति-तत्त्व, प्रेम-तत्त्व, राधाकृष्ण-मतवाद आदि के सम्बन्ध में जो भी उल्लेख-योग्य, जहाँ कहीं से पा सके हैं, उसे उन्होंने इस ग्रन्थ में संग्रह किया है और उस पर भली-भाँति विचार किया है, विचार का फलाफल उन्होंने स्पष्ट भाषा में ही लिखा है, इसका फल यह हुआ कि पुस्तक आराम के साथ, निश्चित, और आलस भाव से पढ़ने लायक़ नहीं हुई है। पद-पद पर चिन्ता और विचार करने की ज़रूरत है।
भारतीय धर्ममत के इतिवृत्त की आलोचना भी एक विपद है। एक, सब कुछ को अति प्राचीन सिद्ध करने की प्रवृत्ति और दूसरी, सब कुछ को अति अर्वाचीन सिद्ध करने की ज़िद। दोनों तरफ़ के इन दो पाषाण-संकटों के भीतर तरंग संकुल खर-स्रोत धरा में से भी द्विवेदी जी जो नैया खेकर घाट पर भिड़ा सके हैं, यह उनके लिए कम प्रशंसा की बात नहीं है।”
—भूमिका से “shri hajariprsad bhakti-tattv, prem-tattv, radhakrishn-matvad aadi ke sambandh mein jo bhi ullekh-yogya, jahan kahin se pa sake hain, use unhonne is granth mein sangrah kiya hai aur us par bhali-bhanti vichar kiya hai, vichar ka phalaphal unhonne spasht bhasha mein hi likha hai, iska phal ye hua ki pustak aaram ke saath, nishchit, aur aalas bhav se padhne layaq nahin hui hai. Pad-pad par chinta aur vichar karne ki zarurat hai. Bhartiy dharmmat ke itivritt ki aalochna bhi ek vipad hai. Ek, sab kuchh ko ati prachin siddh karne ki prvritti aur dusri, sab kuchh ko ati arvachin siddh karne ki zid. Donon taraf ke in do pashan-sankton ke bhitar tarang sankul khar-srot dhara mein se bhi dvivedi ji jo naiya khekar ghat par bhida sake hain, ye unke liye kam prshansa ki baat nahin hai. ”
—bhumika se

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क्रम

राधा-कृष्ण का विकास : पृष्ठ 19
स्त्री- पूजा और उसका वैष्णव रूप : पृष्ठ 32
भक्ति-तत्त्व : पृष्ठ 36
उस युग की साधना और तात्कालिक समाज : पृष्ठ 43
प्रेम-तत्त्व : पृष्ठ 74
सूरदास की विशेषता : पृष्ठ 102
कवि सूरदास की बहिरंग-परीक्षा : पृष्ठ 108
परिशिष्ट:  पृष्ठ 122

राधा-कृष्ण का विकास

ईसा से कम-से-कम चार सौ वर्ष पूर्व वासुदेव की पूजा चल पड़ी थी। धीरे-धीरे वासुदेव और नारायण को एक ही समझा जाने लगा था। इतना निश्चित है कि ब्राह्मण-काल के अन्त में नारायण को परम- दैवत माना जाने लगा था (शतपथ ब्र!ह्मण, 12-3-4)। ऋग्वेद में भी नारायण की प्रधानता का प्रमाण पाया जाता है (ऋ. 12-6-1)। तैत्तिरीय आरण्यक (10-11) में नारायण को परम- दैवत के रूप में माने जाने की बात पायी जाती है। महाभारत और पुराणों में नारायण और विष्णु को अभिन्न समझा गया है। परन्तु आरम्भ में नारायण और विष्णु का कोई सम्बन्ध नहीं दिखायी पड़ता। इसमें सन्देह नहीं कि विष्णु वैदिक युग के एक महत्त्वपूर्ण देवता थे। (ऋ. 1-155-5, 1-154-5 इत्यादि) ब्राह्मण-काल में तो पाणिनि के एक सूत्र (4-1-98) से पता चलता है कि वासुदेव उस समय देवता समझे जाते थे। पाणिनि का काल कुछ निश्चित नहीं है, पर इतना निःसंकोच कहा जा सकता है कि यह काल ईसा से चार सौ वर्ष से कम पुराना नहीं है। परन्तु बौद्ध जातकों (घट - जातक) से यह बात प्रमाणित की जा सकती है कि वासुदेव की पूजा और भी पुरानी है। बद्धदेव का पूर्वजन्म में वासुदेव होना सिद्ध करता है कि जातक युग में वासुदेव की महिमा प्रतिष्ठित हो चुकी थी। जैन शास्त्रों में भी महावीर स्वामी का पूर्वभव में वासुदेव होना बताया गया है। जैकोबी ने 'एनसाइक्लोपीडिया आफ रेलिजन्स एण्ड एथिक्स' के 'अवतार' शीर्षक लेख में बताया है कि जैनों की सारी वंशावली हिन्दुओं के अनुकरण पर है। वासुदेव के आदर्श पर उन्होंने जो वंशावली कल्पना की है उसमें नो वसुदेव, नौ वासुदेव, नौ बलदेव और नो प्रति-वासुदेवों की कल्पना है। इन बातों से सिद्ध होता है कि उस युग में वासुदेव खूब प्रतिष्ठित देवता हो चुके थे। सभी सम्प्रदायों के लोग अपने नेताओं को वासुदेव का अवतार सिद्ध करना चाहते थे। स्वयं द्वारकापति श्रीकृष्ण के युग में ही पुण्ड्र वंग-किरातों के राजा पुण्डरीक ने अपने को वासुदेव कहकर पुजवाना शुरू कर दिया था। कृष्ण ने इसे मारकर अपना बासुदेवत्व स्थापित किया था। इन बातों से सिद्ध होता है कि वासुदेव की पूजा ईसा से बहुत पुरानी है।

19. परम उत्कर्षमयी

  1. गोकुल-प्रेम-वसति
  2. जगत् श्रेणी लसदयशा
  3. गुरुओं पर परम स्नेह रखनेवाली
  4. सखियों की प्रणयाधीना
  5. कृष्ण-प्रियाओं में मुख्य
  6. केवल सदा उनकी आज्ञा के वशवर्ती हैं

इस प्रकार राधा-भाव से भजन करता हुआ भक्त आनन्दघन एक-रस परब्रह्म श्रीकृष्ण को पाता है | राधा के प्रसाद से ही कृष्ण को महाभाव की अनुभूति होती है | राधा के बिना पूर्ण पुरुष अपूर्ण हैं । इस महाभाव की अनुभूति के लिए - अपने 'रसो वै सः' स्वरूप की पूर्णता के लिए भगवान् व्रजसुन्दरी के साथ अनन्त-लीला में व्याप्त रहते हैं । श्रीकृष्ण की प्राप्ति का श्रेष्ठ उपाय है, राधा भाव से मधुर रस की भक्ति । फिर एक बार यह जान रखना चाहिए कि लौकिक माधुर्य से इस माधुर्य में भेद है । लोक में मधुर रस विपर्यस्त होकर सबके नीचे रहता है । उसके ऊपर है वात्सल्य, उसके ऊपर सख्य, फिर दास्य और अन्त में सबके ऊपर रहता है। शान्त रस । पर यहाँ ब्रजेश्वर के प्रेम में ठीक उल्टी बात है । चित् जगत् के अत्यन्त निम्न भाग में शान्त-स्वरूप हरधाम या निर्गुण ब्रह्मलोक है, उसके ऊपर दास्य रस या बैकुण्ठ तत्त्व है, उसके ऊपर सख्य या गोलोकस्थ सख्य रस है और सबके ऊपर है मधुर रस, जहाँ परम पुरुष ब्रजांगनाओं के साथ क्रीड़ा करते हैं ।' अद्भुत है यह भागवत रस । व्यासदेवजी कहते हैं :"

निगम - कल्पतरोर्गलितं ध्रुवं शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् । पिवत भागवतं रसमालयं मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः ।

 उस युग की साधना और तात्कालिक समाज"

  1. टीका-युग और उसकी प्रधान समस्या
  2. ईसा की पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त में किसी समय सूरदास ने जन्म ग्रहण किया था और सोलहवीं शताब्दी के मध्यभाग तक ये जीवित रहे । इनका काल ईसा की सोलहवीं शताब्दी रखा जा सकता है । इतिहास की दृष्टि में यह काल भारतीय संस्कृति केपराजय का काल है। विदेशी शक्तियाँ भारतवर्ष के इस कोने से उस

ब्रज में जोगकथा लै आयौ 
मन कुबिजा कूबरहिं दुरायौ 

इस प्रकार दोनों महात्माओं के प्रेम में एक स्पष्ट अन्तर दिखायी देता है । नन्ददास का प्रेम मस्तिष्क की ओर से आता है, सूरदास का हृदय की ओर से । नन्ददास युक्ति और तर्क को शुरू में ही नहीं भूल जाते, सूरदास के यहाँ भूलने न भूलने का सवाल ही नहीं है । वहाँ युक्ति और तर्क हैं ही नहीं । नन्ददास की गोपियाँ प्रेम में बावरी हैं, तर्क में नहीं, उपालम्भ करने में भी नहीं, परन्तु सूरदास की गोपियाँ सब तरह से भोरी हैं |


सूरदास की विशेषता

गौड़ीय वैष्णव आलंकारिकों की गोपियाँ और सूरदास

गौड़ीय वैष्णवों के साथ सूरदास का क्या सम्बन्ध था, इस बात की चर्चा करेंगे। यहाँ गौड़ीय वैष्णवों की नायिकाओं के साथ सूरदास की गोपियों की तुलना करेंगे। हमारा लक्ष्य सर्वदा सूरदास का विशेष दृष्टिकोण स्पष्ट करने की ओर होगा । 

गौड़ीय वैष्णवों के अनुसार ब्रज में दो तरह की नायिकाएँ थीं । कुछ स्वकीया और कुछ परकीया । भागवत में कथा आती है कि कुछ गोपियाँ श्रीकृष्ण को पति-रूप में पाने के लिए कात्यायनी का व्रत करती थीं । इनसे गान्धर्व विधि से श्रीकृष्ण ने विवाह किया था । ये स्वकीया थीं, बाकी परकीया । राधा दूसरी श्रेणी में आती हैं। पर सूरदास राधिका को परकीया नहीं समझते। राधिका से श्रीकृष्ण का विवाह बड़ी धूमधाम के साथ होता है । यही नहीं, राधिका भी और गोपियों की तरह श्रीकृष्ण को पति रूप में पाने के लिए व्रत करती हैं।

  1. उज्ज्वलनीलमणिकिरण, पृ. 2-3
  2. सनकादिक नारदमुनि सिव विरंचि जान |
    देव दुंदुभी मृदंग बाजे बर निसान ॥
    बारने तोरन बँधाइ हरि कीन्ह उछाह ।
    ब्रज की सब रीति भई बरसाने व्याह । इत्यादि
  3. सिव सौं विनय करति कुमारि ।
    जोरि कर मुख करति अस्तुति बड़े प्रभु त्रिपुरारि ।

 

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