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Savarkar Par Thope Huye Chaar Abhiyog
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भारतीय इतिहास की सबसे कू्रर विडंबना यही रही है कि इसे कभी राष्ट्रीय दृष्टिकोण से लिखा ही नहीं गया। वे चाहे नृशंस विदेशी आक्रांता हों अथवा चाटुकारिता के भूखे स्वदेशी शासक, सभी ने सदा ही, पंगु इतिहासकारों को लुभाकर अथवा डराकर अपनी प्रशस्ति लिखवाई और उसी को इतिहास कहा; जो यथार्थ में 'उपहास' या 'परिहास' से ऊपर उठ ही नहीं पाया।विशुद्ध राष्ट्रीय दृष्टिकोण से इतिहास लिखने का पहला साहस किया भारत माँ के सपूत स्वातंत्र्य वीर सावरकर ने, जिसने 1908 में फिरंगियों के आँगन (लंदन) में घुसकर उन्हीं के पुस्तकालयों से सामग्री जुटाकर '1857 का स्वातंत्र्य-समर' नामक एक ऐसे मौलिक ग्रंथ की रचना की, जिससे समूचा विश्व प्रकंपित हो उठा और सारी पूर्व स्थापित ऐतिहासिक मान्यताएँ ध्वस्त हो गईं।परिणाम स्पष्ट था। पुस्तक, प्रथम अध्याय प्रकाशित होने से पूर्व ही अंग्रेजी सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दी गई। अंग्रेजों ने सावरकर से प्रतिशोध लेने के लिए एक के बाद एक मनगढ़ंत आरोप लगाकर उन पर अभियोगों की झड़ी लगा दी और वो भी विभिन्न देशों के न्यायालयों में।प्रस्तुत पुस्तक इन्हीं थोपे हुए अभियोगों का लेखा-जोखा है और आधारित है उस प्रामाणिक सामग्री पर, जो इन अभियोगों के मौलिक स्थलों पर जाकर वहीं के अभिलेखागारों से जुटाई गई है।पूरे विश्व के इतिहास में कर्मयोगी सावरकर के इस पक्ष पर आज तक कुछ भी लिखा ही नहीं गया। यही है इस पुस्तक की अभूतपूर्व मौलिकता।____________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________अनुक्रमभूमिका —Pgs. 71. आत्मोत्कर्ष से आत्मार्पण तक —Pgs. 372. इंग्लैंड में सावरकर पर थोपा गया प्रथम अभियोग —Pgs. 1073. नासिक षड्‍यंत्र-अभियोग —Pgs. 1214. हेग-अभियोग —Pgs. 1425. गांधी-वध : महाभियोग —Pgs. 170परिशिष्ट-एक —Pgs. —Pgs. कुछ खरी-खरी —Pgs. 195परिशिष्ट-दोअंधघृणा और विद्वेष की पराकाष्ठा —Pgs. 202परिशिष्ट-तीनतुषार गांधी से चार प्रश्न —Pgs. 211परिशिष्ट-चारएम.के. गांधी का भोग विलासी यौवन —Pgs. 213परिशिष्ट-पाँचगांधी-नेहरू और सावरकर के बंदी जीवन की तुलना —Pgs. 215सावरकर के 'आत्मार्पण' पर श्रद्धांजलि सुमन —Pgs. 219

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