Runiyabas Ki Antarkatha
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Author | Jitendra Bhatia |
Language | Hindi |
Publisher | Sambhavna Prakashan |
Pages | 176 |
ISBN | 978-8195294978 |
Item Weight | 0.3 kg |
Edition | First |
Runiyabas Ki Antarkatha
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मदन कश्यप (‘आउटलुक’)
‘ओझलबाबा’ की तलाश के इर्दगिर्द घूमती यह कथा एक स्तर पर बेहद रोचक तथा रोमांचक है। दूसरे स्तर पर उपन्यास का कथ्य काफ़ी जटिल और हमारे समय के ढेर सारे सवालों को अपने भीतर समेटे हुए है। लेकिन इस जटिलता का उपन्यास की बाहरी सेहत पर कोई असर नहीं है। पाठक इस जद्दोजहद में नहीं पड़े तब भी वह इसे एक साँस मे पढ़े जाने वाले बेहद पठनीय जासूसी उपन्यास की तरह पढ़ सकता है।
परमानंद श्रीवास्तव (‘सहारा समय’ और ‘कथाक्रम’)
समांतर कहानी के दौर से चलकर जितेन्द्र भाटिया वहाँ पहुँचे हैं जहाँ ‘रुणियाबास की अंतर्कथा’ जैसा उपन्यास लिखा जा सकता है जहाँ जोखिम भरी अनिश्चितता और अकेलेपन के भीतर पहुँचकर एक पूरे समय में आती-जाती दुःस्वप्न की परछाइयाँ पढ़ी जा सकती हैं।
मधुरेश (पुस्तक ‘समय, समाज और उपन्यास’ में आलेख ‘भदेस का खिलंदड़ा अंदाज़’)
जितेन्द्र भाटिया के उपन्यास में बेहद खिलंदड़े अंदाज़ के साथ ज़िन्दगी के छोटे-छोटे सच, किसी परती ज़मीन की खुदाई में निकले पुरातात्विक अवशेषों की तरह सामने आते रहते हैं...लेकिन यहाँ खिलंदड़ा अमूर्तन के नहीं भदेस के सहारे विकसित होता है...वह जीवन की उपेक्षा से नहीं, उसका आधार लेकर ही अपना करतब दिखाता है... इसी से ‘न्याय’ की पक्षधरता...उसे पितृसत्ता के विरोध में स्त्री के हक़ में लड़ी जाने वाली लड़ाई का एक हिस्सा भी मानकर चला जा सकता है...
‘ओझलबाबा’ की तलाश के इर्दगिर्द घूमती यह कथा एक स्तर पर बेहद रोचक तथा रोमांचक है। दूसरे स्तर पर उपन्यास का कथ्य काफ़ी जटिल और हमारे समय के ढेर सारे सवालों को अपने भीतर समेटे हुए है। लेकिन इस जटिलता का उपन्यास की बाहरी सेहत पर कोई असर नहीं है। पाठक इस जद्दोजहद में नहीं पड़े तब भी वह इसे एक साँस मे पढ़े जाने वाले बेहद पठनीय जासूसी उपन्यास की तरह पढ़ सकता है।
परमानंद श्रीवास्तव (‘सहारा समय’ और ‘कथाक्रम’)
समांतर कहानी के दौर से चलकर जितेन्द्र भाटिया वहाँ पहुँचे हैं जहाँ ‘रुणियाबास की अंतर्कथा’ जैसा उपन्यास लिखा जा सकता है जहाँ जोखिम भरी अनिश्चितता और अकेलेपन के भीतर पहुँचकर एक पूरे समय में आती-जाती दुःस्वप्न की परछाइयाँ पढ़ी जा सकती हैं।
मधुरेश (पुस्तक ‘समय, समाज और उपन्यास’ में आलेख ‘भदेस का खिलंदड़ा अंदाज़’)
जितेन्द्र भाटिया के उपन्यास में बेहद खिलंदड़े अंदाज़ के साथ ज़िन्दगी के छोटे-छोटे सच, किसी परती ज़मीन की खुदाई में निकले पुरातात्विक अवशेषों की तरह सामने आते रहते हैं...लेकिन यहाँ खिलंदड़ा अमूर्तन के नहीं भदेस के सहारे विकसित होता है...वह जीवन की उपेक्षा से नहीं, उसका आधार लेकर ही अपना करतब दिखाता है... इसी से ‘न्याय’ की पक्षधरता...उसे पितृसत्ता के विरोध में स्त्री के हक़ में लड़ी जाने वाली लड़ाई का एक हिस्सा भी मानकर चला जा सकता है...
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