एक कहानी अपने आप को कहेगी। मुकम्मल कहानी होगी और अधूरी। भी, जैसा कहानियों का चलन है। दिलचस्प कहानी है। उसमें सरहद है और औरतें, जो आती हैं, जाती हैं, आरम्पार । औरत और सरहद का साथ हो तो खुदबखुद कहानी बन जाती है। बल्कि औरत भर भी। कहानी है। सुगबुगी से भरी। फिर जो हवा चलती है उसमें कहानी उड़ती है। जो घास उगती है, हवा की दिशा में देह को उकसाती, उसमें भी, और डूबता सूरज भी कहानी के ढेरों कंदील जलाकर बादलों पर टाँग देता है और ये सब गाथा में जुड़ते जाते हैं। राह आगे यों बढ़ती है, दायें बायें होती, घुमावती बनी, जैसे होश नहीं कि कहाँ रुके, और सब कुछ और कुछ भी किस्से सुनाने लग पड़ते हैं। ज्वालामुखी के अन्तर्घट से निकलता, चुप चुप भरता, भाप और अंगारों और धुएँ से फूटता अतीत ।
इस किस्से में दो औरतें थीं । उन औरों के अलावा जो आयीं और चली गयीं, या वे जो बराबर आती जाती रहीं, और वे भी जो लगभग लगातार रहीं पर बहुत अहम नहीं थीं और उनका तो अभी ज़िक्र ही क्या जो औरतें नहीं थीं। अभी ऐसा कि दो औरतें अहम थीं और उनमें से एक छोटी होती गयी और एक बड़ी ।
दो औरतें थीं और एक मौत ।
दो औरतें, एक मौत, क्या खूब जमेगी मिल बैठेंगे जब साथ हम और वे ! दो औरतें, एक माँ, एक बेटी, एक छोटी होती, एक बड़ी होती, एक हँ कर कहती कि मैं दिन प्रतिदिन छोटिया रही हूँ, दूसरी दुखी होती पर न कहती कि वो देख रही है वो रोज़ बुढ़ा रही है। माँ ने साड़ी पहननी छोड़ दी कि से अधिक कमर में खोंसनी पड़ती है और पेटीकोट रोज़ ऊँचे कराने पड़ते हैं। पर क्या छोटे होने में बिल्लियों वाली सिफ़त आ जाती है कि आप ज़रा से सुराख़ खुद को घसा लें और निकल जाएँ ? सरहद छेद दें और फिसल लें बीच से ?
अदृश्य हो पाने के करीब तक की क्षमता दिखा डालें ? में ये ही कारण रहा होगा कि माँ उस सरहद के पार निकलने की भी ठान सकी जब कि बेटी बस बुढ़ाऊ चिन्ता में ग्रसित हुई कि बुरे फँसे । मगर हो
मरने को कि वो मर जाती और फिर कहते मैंने मार दिया और उसने वास्कट की जेब से मोबाइल निकाल कर ठीक उसी तरह पकड़ा जैसे बचपन में बड़े की दी हुई चिड़िया कि न गिरा पाए न थाम पाए और चिड़िया फड़फड़ किये जा रही है, बिना रुके फड़ फड़ । उसका फ़ोन बजे जा रहा था, वाइब्रेशन मोड में। जूँजूँ करता ही जा रहा था। उठाओ । हैलो करो । कैसे करते हैं हैलो, एक पल को वो भूल गयी ।
कहना चाहिये परिवार को जब कि कहते हैं महाभारत को । कि जो दुनिया में वो उसमें, और जो उसमें नहीं, वो कहीं नहीं । कवि तसव्वुर में भी नहीं । यानी भूला भटका आतंकवादी, गरमा भरमा वामपंथी, नारीवाद और नारी, हर-वादी और जीती हारी, सब परिवार में। या महाभारत में, जिसे जैसे रुचे पचे । महाभारत में दुनिया, दुनिया परिवार में, और इसलिए परिवार में महाभारत। जो रोज़ रोज़ के हंगाम, हरेक एक महाभारत । इसलिए परिवार के हर सदस्य को पता है कि जो मुझमें वह किसी में नहीं और जो मुझमें नहीं वह होने लायक नहीं । और ये कि मेरे पास दिमाग है, औरों के पास पैसा । और ये कि मेरा फायदा उठाया सबने, अब हम नहीं, बाकी करें। और ये कि हम दूर रहके भी रहमदिल, तुम वहीं हो पर कितने बेरुखे। और ये कि हमेशा हम ही देते हैं, और आप हमेशा लेते हैं। और वाह आपकी सूझ जिसमें आप तो मिलन सार, हम वही तो मतलबी यार। आप चुप तो विनयशील, हम चुप तो काईयाँ । आप करें सो शिष्टाचार, वही हम करें तो लल्लोचप्पो । आप कहें तो साफगोई, हम कहें वही तो बदतमीज़ । हम पूछ लें तो अश्लील जिज्ञासा, आप पूछें तो हमदर्दी । हम करें तो हमारी सुविधा, आप करें तो आपकी कृपा । हम करें तो कंजूस, आप करें तो किफ़ायती ।
तो हर बात उसकी हाँ, और नहीं है तो हर बात उसकी ना । और कोई कहता है ये समझने वाली बात है, पर कोई बोल देता है ये तो मन की बात है, जो दोनों अलग होती हैं।
नहीं डॉक्टर बोले। उनके हर सवाल का जवाब बेटी मुस्तैदी से देती और हर सवाल पर और डर जाती ।
डरे हुए को डराना आसान । क्या उससे कोताही हो गयी ? माँ को एकदम स्वस्थ समझने की भूल, उनकी बढ़ती उम्र से बेपरवाह ? गेस्ट रूम से कभी कभार उठ के आती कि अम्मा पे झाँक ले। कभी चूड़ी की खनक दूर से आ जाती, कभी बाथरूम की बत्ती सुनाई दे जाती । माँ देख लेती तो उफ्फो जाओ करती, मैं ठीक हूँ। न देखती तो कभी बेटी ही देखती माँ का पूरे बिस्तर पर घेराव। बेटी मुस्का लेती मेरे संग देखो कैसी मगन । पर आज क्या हुआ कि जैसे डर ने सबक सिखाने की ठानी कि बड़ी निडर हो रही हैं आप।सुबह बेटी चाय बना कर खड़ी थी कि दोनों बैल्कनी में बैठें और माँ बेसबब बेवजह आगे के बजाय पीछे को घिसटने लगी। अरे अरे अरे कुछ गाती सी हँसती हुई, पानी का जहाज़ बनी पीछे को बहती, फट फट करती
अपनी चप्पलों के चप्पू चलाती । सेकंड दो सेकंड का मामला दीर्घकालिक हो गया। बेटी ने ट्रे कहीं रखी और उछली कि माँ की काया को घेरे पर तब तक काया पीछे को लुढ़की, दीवार पे घिसटी और ज़मीन पर । कमर में बेटी का हाथ पहुँचा सा, तो शायद सर दीवार पे कस के नहीं टकराया, मगर बाकी तो सदमा ही सदमा, क्योंकि माँ नीचे पड़ी है, हैरत से तकती ये क्या हुआ, हैरत से उत्तर देती अरे मैं गिर पड़ी। बेटी सहम गयी। पकड़ा भी और पकड़ न पाई। सिर पे लगी क्या ? माँ को कैसे उठाये ? मानो मनो वज़न। बेटी ने उसे ज़मीन पर ही घसीटा कि कुछ उठाने में कारगर चीज़ मिले। फ़र्श पर गीला गीला छाप माँ के तन से रिसता। पसीना क्या ? सूसू ? उस पर और फिसलेगी। डर का आर पार न था। वो माँ को उठा ही नहीं पा रही थी। माँ की हँसी अब अपराधियों की। तुम हटो मैं खुद उठती