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Rajgondon Ki Vanshgatha
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गोंड राजवंश का उदय कल्चुरियों या हैहयवंशी राजवंश के अस्त होने पर हुआ। गोंड राजवंश के प्रारम्भिक राजा स्वतंत्र राजा थे। इनके राजकाल के ऐतिहासिक साक्ष्य तब से मिलने प्रारम्भ होते हैं जब भारत में लोदीवंश का शासन था। इन प्रारम्भिक स्वतंत्र गोंड राजाओं का जीवन चरित लेखक ने राजकमल प्रकाशन द्वारा वर्ष 2008 में प्रकाशित ग्रन्थ ‘चरितानि राजगोंडानाम्’ में लिपिबद्ध किया था। करद राजाओं का जीवन चरित ‘राजगोंडों की वंशगाथा’ ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत
है।
इस वृत्तान्त में गढ़ा कटंगा राज्य की उन सभी पीढ़ियों के राजाओं की जिजीविषा की कहानियाँ हैं, जिन्होंने मुग़लकाल के पश्चात् मराठा काल तक राज्य किया। ये गाथाएँ मानवीय विश्वास, संवेदना और कर्मठता के अतिरिक्त चार से अधिक शताब्दियों की कालावधि में हुए मानवीय विकास की कथाएँ हैं। ये जनजातीय राजे अपने विकासक्रम में निरक्षर, अपढ़ या गँवार नहीं रहे, न ही ये सर्वथा ऐकान्तिक रहे वरन् इनमें से अनेक साहित्यानुरागी, कलाप्रेमी और समकालीन राजनीति के खिलाड़ी भी रहे। ऐसे राजाओं में हृदयशाह का नाम उल्लेखनीय है। ग्रन्थ के पूर्वार्द्ध में राजगोंड कुलभूषण हृदयशाह की दो आगे की और दो पीछे की पीढ़ियों का वर्णन है। इन सभी पीढ़ियों में उनका व्यक्तित्व बेजोड़ है।यह पुस्तक निश्चित ही न तो इतिहास विषय का ग्रन्थ है और न ही सामाजिक शोध-प्रबन्ध, अतः इसकी अकादमिक उपयोगिता को बढ़ाने से सम्बन्धित किसी प्रयास की चर्चा बेमानी है। प्रयास यह रहा है कि कहानियों में ऐतिहासिकता अक्षुण्ण रहे, कल्पना प्रसूत पात्र एवं घटनाएँ यथासम्भव कम से कम हों। प्रत्येक ऐतिहासिक घटना को अलग-अलग इतिहासकार अपने नज़रिए से देखते हैं, परन्तु कहानी में घटना को किसी एक ही नज़रिए से देखा जा सकता है, यह उसकी सीमा है और आवश्यकता भी। सामान्य तौर पर कथाओं में वे घटनाएँ चुनी गई हैं जिनसे सर्गों की सूत्रबद्धता क़ायम रहे, परन्तु साथ ही वे सम्बन्धित राजाओं के जीवन की मुख्य घटनाएँ हों।
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