क्रम
1. कहानीकार स्वयं प्रकाश : आशीष त्रिपाठी - 7
2. नीलकान्त का सफर - 13
3. पार्टीशन - 21
4. गौरी का गुस्सा - 29
5. बर्डे - 40
6. बलि - 49
7. अगले जनम - 80
8. नैनसी का धूड़ा - 97
9. क्या तुमने कभी कोई सरदार भिखारी देखा? - 111
10. आदमी जात का आदमी - 120
11. संहारकर्ता - 128
कहानीकार स्वयं प्रकाश
स्वयं प्रकाश यथार्थवादी कहानीकार हैं। प्रेमचन्द, यशपाल, हरिशंकर
परसाई, अमरकान्त और भीष्म साहनी की परम्परा के प्रगतिशील
कहानीकार। वे कहानी को बेहद साधारण जीवन से उठाते हैं, एक ऐसा
जीवन जो हमारा अत्यन्त परिचित और अनुभवों की दृष्टि से बेहद नजदीकी
है। अपने से लगते जीवन और चरित्रों को उठाकर वे किसी अतिनाटकीय
वातावरण या घटनाओं की रचना नहीं करते। उनकी कहानियाँ साधारण
जीवन के साधारण चरित्रों, जीवन-स्थितियों, घटनाओं और उतार-चढ़ावों
से बुनी जाती हैं। किसी तरह के विशिष्ट या विचित्र चरित्रों के मनोविज्ञान
को व्यक्त करने का आकर्षण भी उनमें नहीं मिलता। साधारण सहज और
दैनंदिन जीवन के रसायन से रची जाकर भी वे गहरा प्रभाव डालती हैं। इस
प्रकार की सृष्टि का कारण वह पक्कापन और गहराई है, जो इन कहानियों
में हैं। अतिनाटकीयता, अतिदिव्यता, अतिभव्यता और अतिविशिष्टता की
खोज में निकले पाठकों के लिए इन कहानियों में कुछ नहीं है।
अपने समय और समाज की प्रतिनिधि कथा या रूपक रचने की
ओर स्वयं प्रकाश का रुझान नहीं है। वे कविताई से परहेज करने वाले
कहानीकार हैं। इस तरह वे खालिस, पक्की और शुद्ध कहानी रचते हैं।
कोई मिलावट नहीं। प्रेमचन्द के अनुसार कहानी ध्रुपद की एक तान है।
इशारा, कहानी के आकार की ओर है। प्रथमतः । नामवर सिंह इस बात
पर लगातार जोर देते रहे हैं कि कहानी की सीमा को समझा जाय । वे
स्पष्ट कहते हैं, ‘जिन्दगी का सारा यथार्थ आप एक ही कहानी में ठूंस
कर भर दें, यह सम्भव नहीं है।' प्रेमचन्द, यशपाल, अमरकान्त,
जोशी, हरिशंकर परसाई, भीष्म साहनी के बाद की पीढ़ियों में स्वयं प्रकाश
आधा घंटा साहब और मामी खामोश बैठे रहे। फिर लम्बी उसाँस
छोड़कर मामी उठीं और बोलीं, 'अच्छी थी बेचारी ।'
फिर उस घर में लड़की की बात कभी नहीं हुई ।
अगले जनम
सुमि को समझ में नहीं आया कि जब वह अच्छी-खासी चल-फिर सकती
है तो उसे स्ट्रेचर पर लेटाकर लेबररूम की तरफ क्यों ले जाया जा रहा है?
लेकिन अस्पताल का यही कायदा था शायद । स्ट्रेचर पर वह सीधे नहीं,
करवट लेकर लेटी थी। उसे लगा था, जरूर कोई कहेगा कि सीधे लेटो,
पर किसी ने नहीं कहा। तो ऐसा ही हो गया जैसे वह अपने पलंग पर सो
रही हो और पलंग दौड़ना शुरू कर दे।
लेकिन वह लेबररूम नहीं था। ऑफिस- जैसा था। स्ट्रेचर रुक गया
तो वह पहले बैठ गई और फिर खड़ी हो गई। स्ट्रेचर लेकर आए दोनों
वार्डबॉय चले गए। वहाँ दो नर्से थीं। बातें करते हुए काम करने में व्यस्त ।
भीतर से आहों-कराहों से लेकर चीखों तक की आवाजें आ रही थीं।
— हाँ, शाम को डॉक्टर मेनन के राउंड के बाद... दर्द होता है? ...
उदरीच। जाने का टाइम नहीं। क्या करेगी?
यह पूरा वाक्य एक नर्स ने दूसरी से कहा था, सिर्फ बीच का 'दर्द
होता है' सुमि के लिए था। पूछा भी ऐसे था जैसे पूछा नहीं हो, कहा हो।
और बगैर जवाब की प्रतीक्षा किए उसे लिटाकर साड़ी नीचे खिसकाकर
कमर में एक इंजेक्शन घोंप दिया था।
तभी एक वार्ड बॉय एक हरे रंग का गाउन ले आया था और नर्स ने
बॉय से गाउन लेकर उसे देते हुए कहा था- 'चेंज कर लो !' और बीच
का परदा लापरवाही से थोड़ा-सा खींच दिया था।
रही है और जैसे-तैसे साड़ी उतारकर गाउन पहन लिया। पेटीकोट-ब्लाउज
सुमि ने बाहर के खुले दरवाजे की तरफ देखा किं कहीं सास तो नहीं आ
नहीं उतारा और लेटने लगी। नर्स बातें छोड़कर फिर उससे मुखातिब हुई
पीना शुरू कर दिया। और धीरे-धीरे पक्का शराबी हो गया। हर तरह से
दुत्कारा जाता, कुत्ते की तरह दुरदुराया जाता... सड़क पर पड़े रद्दी कागजों
से अपने जख्मों की पीप पोंछता रहता और मौका मिलते ही चोरी करता...
शराब पीता...जी भरकर खाना खाता... और कहीं भी औंधे मुँह पड़ जाता।
आखिर मर गया।
लोग कह रहे हैं, उसका नाम धूड़ा था। लेकिन मैं आपसे जोर देकर
कहना चाहूँगा कि उसका नाम धूड़ा नहीं है। नैनसिंग है ।
और सच बात तो यह है कि वह मरा भी नहीं ।
क्या तुमने कभी कोई सरदार भिखारी देखा
एक तारीख की शाम अजमेर से रवाना होकर हम दो की सुबह साढ़े पाँच बजे
दिल्ली पहुँचे। हमें निजामुद्दीन से पौने सात बजे दूसरी गाड़ी पकड़नी थी और
कुलियों ने बताया कि आज रिक्शा-टैक्सी कुछ नहीं चल रहे हैं, इसलिए हम
छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस से नयी दिल्ली तक आये। वहाँ रेल के ड्राइवर ने बताया
कि यहाँ वह डीजल भरेगा और पौने सात बजे तक निजामुद्दीन नहीं पहुँच
पाएगा। मैंने लपककर सारा सामान कुली से बाहर निकलवाया। बहुत कम
टैक्सियाँ थीं, जो थीं उनके भी ड्राइवरों का कहीं पता नहीं था, जो ड्राइवर थे
भी, वे इतनी सुबह निजामुददीन जाने के लिए तैयार नहीं थे। बड़ी मुश्किल
से एक ऑटो रिक्शा पचास रुपये में तैयार हुआ, हम बैठे और दुर्रर्र... 1
सुबह की धुंधभरी खुनकी में नयी दिल्ली उतनी ही खूबसूरत लग
रही थी जितनी हमेशा । दुनिया की सबसे खूबसूरत राजधानियों में से एक।
कनॉट प्लेस से गुजरते हुए मुझे पल भर के लिए वही अनुभूति हुई— जैसे
किसी किशोर को किसी लड़की का उरियाँ जिस्म पहली बार देखकर
होती है। दिल्ली के जिस्म पर उस सुबह कोई खरोंच, जा मुझे नजर नहीं आया।
पहुँचे और हॉर्न हुआ। बच्ची को गोदी में टाँग बीवी पुल पर भागी ।
पीछे-पीछे कुली और मैं। भागते-दौड़ते गाड़ी पकड़ी। जो डिब्बा सामने