क्रम
1.अमरूद का पेड़ -9
2. पिता - 14
3. छलाँग - 22
4. हास्यरस - 29
5. रचना-प्रक्रिया - 40
6. अनुभव - 54
7. संबंध - 72
8. फेंस के इधर और उधर - 83
9. यात्रा - 90
10. घंटा - 104
11. बहिर्गमन - 115
अमरूद का पेड़
घर के सामने अपने-आप ही उगते और फिर बढ़ते हुए एक अमरूद के पेड़ को मैं
काफी दिनों से देखता रहा हूँ । केवल देखता ही नहीं, इस देखने में और भी चीजें
शुमार हैं। तीन-चार साल में बड़े हो जाने, फूलने और फल देने के बाद भी
उसकी ऊँचाई गंधराज या हरसिंगार के पेड़ से ज्यादा नहीं बढ़ी । शुरू-शुरू में
तो परिवार के सभी लोगों ने उसके प्रति उदासीनता ही रखी या कहूँ लापरवाही
बरती तो गलत नहीं होगा । राम भरोसे पेड़ जब बड़ा हो गया और हमारे
मकान का फ्रंट जब भरा-भरा लगने लगा तो सबसे पहले बाबू कन्हैयालाल की
बूढ़ी पत्नी ने एक दिन टोका कि पश्चिम की तरफ अगर मकान का मुखड़ा हो
और सामने ही अमरूद का पेड़ तो 'राम-राम बड़ा अशुभ होता है ।' अम्मा के
चेहरे पर थोड़ा-सा भय अपने कुनवे के लिए आया पर मुझे विश्वास था कि इन
सब पिछड़े खयालातों का हमारे घर में गुजर नहीं हो सकेगा ।
माँ अजमेर में जेल कर चुकी हैं- लंबा जेल । सत्याग्रह के दिनों में । पिता
खुद राजनैतिक-सामाजिक उदारतावाले आदमी हैं। हमारी एक बुआ ने
विवाह नहीं किया और पढ़ने-लिखने में ही उन्होंने अपनी जिंदगी डबो दी और
समाज उन्हें कोई चुनौती देने का सहास नहीं कर सका। एक को छोड़कर हम
सभी भाइयों में खिलाड़ीपन है । चचेरे ने अंतर्जातीय विवाह, प्रेम-विवाह किया
है और मुझे तरस आ गया कि कन्हैयालाल की बूढ़ी पत्नी कैसी बेहूदा - फूहड़
बात कहती है । खैर, यह तो ऊपरी बात हुई लेकिन मैं अक्सर पाता कि अंदरूनी
तौर पर भी हम सभी लोगों में कहीं पिछड़ेपन की भर्त्सना का भाव अँकुरा रहा
है। वैसे अम्मा की प्रीतिकर, सुंदर, गोरी मुखाकृति पर अमरूद के प्रसंग में
हमेशा भय की व्याप्ति हो आती थी ।
सत्तावन की बरसात में अकस्मात एक दिन मिट्टू ने सबको दौड़-दौड़कर
देर बाद पंखा जमीन पर गिराकर उनका दायाँ हाथ खटिया की पाटी से झूलने
लगा ।
चारों तरफ धूमिल चाँदनी फैलने लगी है। सुबह, जो दूर है, के भ्रम में
पश्चिम से पूर्व की ओर कौवे काँव-काँव करते उड़े। वह खिड़की से हटकर
बिस्तरे पर आया । अंदर हवा वैसी ही लू की तरह गर्म है । दूसरे कमरे स्तब्ध
हैं । पता नहीं बाहर भी उमस और बेचैनी होगी । वह जागते हुए सोचने लगा,
अब पिता निश्चित रूप से सो गए हैं शायद !
छलाँग
श्रीमती ज्वेल जब यहाँ आकर बसीं तो लगा कि मैं, एकबारगी और एकतरफा,
उनसे फँस गया हूँ और उन्हें छोड़ नहीं सकता । एक गंभीर शुरुआत लगती थी
और यह बात यूँ सच मालूम पड़ी कि दूसरे साथियों की तरह, मैं लड़कियों को,
आमतौर पर ताकने, आवाज देने और अन्य तरीकों द्वारा छेड़ने से बचा रह गया ।
मैं कोशिश करता रहा और उनकी तरफ जाता रहा । यह जल्दी ही सच हो
गया कि वे मेरी माँ से कुछ ही छोटी हैं । लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ा ।
कह चुका हूँ, पता नहीं मुझे कैसे तीर की तरह महसूस हो गया कि दुनिया में यही
मैं एक औरत बनी है, बाकी सब केवल पैदा हो गई हैं । मुझे उनकी सुंदरता का
कुछ खयाल नहीं रह सका । सबसे सामयिक बात मेरी उम्र थी और मुझे श्रीमती
ज्वेल की वाकई बहुत जरूरत थी ।
श्रीमती ज्वेल काफी देशी महिला थीं । कानपुर के पास कहीं की । इस
तथ्य का कोई मजाक मेरे दिमाग में नहीं बनता था कि वे 'प्योर' नहीं हैं । मैं याद
करता हूँ, वह मौसम गर्मियों का था । क्या किया जाए, यह न समझ में
आनेवाला मौसम । उन दिनों अंधड़ दरवाजे को बार-बार पीटता था । जामुन
के पेड़ की एक अलग आवाज छत में भर जाया करती, फिर देर तक कमरों में
छनती रहती । आँगन से गर्म और सूखी भाप निकलती हुई ऊपर की सख्त धूप