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पहला आदमी कामू का अन्तिम उपन्यास है। एक प्रकार से यह उनकी आत्मकथात्मक कृति है। 1960 में हुई एक कार दुर्घटना में जब कामू की मृत्यु हुई तो उनके हाथ में थमे ब्रीफकेस में इस उपन्यास की पांडुलिपि थी; काफी कुछ अधूरी और असंशोधित। कामू की पत्नी ने इसे प्रकाशित नहीं होने दिया था। कई वर्ष बाद 1993 में अपनी माँ के निधन के बाद कामू की पुत्री कैथरीन ने ‘पहला आदमी’ बिना किसी संशोधन के प्रकाशित करने का निर्णय लिया। चूँकि लिखने के दौरान कामू द्वारा पांडुलिपि पर अंकित टिप्पणियाँ और परिवर्तन के लिए स्वयं को दी गई हिदायतें भी प्रकाशित की गईं इसलिए यह उपन्यास कामू के शोधार्थियों के लिए अमूल्य दस्तावेज़ और विश्व साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण घटना साबित हुआ। ‘पहला आदमी’ ने कामू के उन आलोचकों को भी शान्त कर दिया जो कहते थे कि ‘प्लेग’ के बाद कामू की सर्जनात्मक क्षमता चुक गई थी। ‘पहला आदमी’ में अपने पिता की खोज करता हुआ चालीस वर्षीय नायक जाक कारमॅरी अपने अतीत पर एक गहरी निगाह डालता है और अपनी अभाव से भरी ज़िन्दगी में भी जीवित रहने की गहरी इच्छा का परिचय देता है। कामू इस कृति में आत्मकथ्य के ज़रिए ग़रीबी का सामाजिक इतिहास रचते चले जाते हैं। उपन्यास दो भागों में विभक्त है : ‘पिता की खोज’, और ‘पुत्र’। वह पिता जिसकी खोज नायक कर रहा है, कामू के पिता की तरह ही पहले विश्वयुद्ध में मारा जा चुका है। कारमॅरी की माँ का अनपढ़, बहरा, मितभाषी होना और चुपचाप यातनाएँ झेलते रहना पिता की खोज में उसी तरह बाधा डालता है जैसे कामू की माँ के स्वभाव ने उनके वास्तविक जीवन में बाधा डाली थी। इस उपन्यास का शीर्षक ‘पहला आदमी’—चर्चा का विषय रहा है। कौन है यह पहला आदमी—पिता, पुत्र या वह अल्जीरिया निवासी, फ्रांसीसी या अरब या कोई भी वह निर्धन आदमी जिसकी मृत्यु के साथ उसका नाम-निशान तक मिट जाता है, कुछ शेष नहीं रहता? यह उपन्यास आपको भी यह उत्तर ढूँढ़ने के लिए प्रेरित करेगा। दुनिया की लगभग सभी भाषाओं में अनूदित इस उपन्यास को सीधे फ्रेंच से हिन्दी में भाषान्त​रित किया है डॉ. शरद चन्द्रा ने।
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