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उपन्यास के घटना-क्रम की शुरुआत प्रथम विश्वयुद्ध की पूर्ववेला में, 1910 के आसपास वोल्गा के किनारे स्थित सरातोव नामक छोटे-से शहर में होती है। कहानी मुख्यतः एक युवा क्रान्तिकारी (इज्वेकोव) और एक प्रौढ़-परिपक्व बोल्शेविक कारख़ाना मज़दूर (रागोजिन) की गतिविधियों के आसपास घूमती है, लेकिन इनके साथ ही क्रान्ति पूर्व रूस के विभिन्न वर्गों और संस्तरों के प्रतिनिधि अपनी सामाजिक स्थिति, मनोविज्ञान, राग-विराग और पारस्परिक सम्बन्धों के साथ अत्यन्त जीवन्त रूप में मौजूद हैं—व्यापारी मेरकूरी अव्देविच और उसकी बेटी लीजा, अभिजात लेखक पास्तुखोव, छलिया अभिनेता स्त्वेतुखिन, क्रान्ति के गुप्त सहयोगी बुद्धिजीवी और तलछट-निवासी लम्पट सर्वहारा चरित्र।
टाइप चरित्रों के सृजन और विकास की फ़ेदिन की तकनीक अनूठी है। सामान्य घटनाक्रम-विकास के बीच वे चरित्रों की परत-दर-परत खोलते हुए मानो उनका मनोवैज्ञानिक अध्ययन भी प्रस्तुत करते चलते हैं। काल-विशेष की सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों की वस्तुपरक प्रस्तुति, ऐतिहासिक घटना प्रवाह का व्यक्तियों पर प्रभाव और घटना-प्रवाह में व्यक्तियों की भूमिका तथा अलग-अलग वर्गों के प्रतिनिधि चरित्रों की ऐतिहासिक नियति के चित्रण के साथ ही फ़ेदिन जनता के बीच से उभरते प्रतिनिधि सकारात्मक चरित्रों की गतिकी को उद्घाटित करते हुए एक नए मानव के जन्म की कहानी बयान करते हैं।
‘पहली उमंगें’ उपन्यास एक ऐसे समय का साहित्यिक दस्तावेज़ है जब समाज में, आतंक के साए के बीच, कभी भी कहीं से परिवर्तन की किसी विस्फोटक, आकस्मिक शुरुआत की सम्भावना लोग निरन्तर महसूस कर रहे थे। सतह पर सामान्य जीवन का दैनंदिन नाटक जारी था और सतह के नीचे परिवर्तन की शक्तियाँ लगातार संगठित तैयारियों में जुटी हुई थीं। उपन्यास की अनेक थीमें इस विचार द्वारा एकताबद्ध हैं कि दुनिया को पुनर्संगठित करने का संघर्ष ही मूल्य और सत्यनिष्ठा से युक्त मानव-व्यक्तित्व का निर्माण कर सकता है, चीज़ों को बदलने की प्रक्रिया में ही लोग स्वयं को बदल सकते हैं और क्रान्ति के दहनपात्र में ही नया मानव ढाला-गढ़ा जा सकता है। Upanyas ke ghatna-kram ki shuruat prtham vishvyuddh ki purvvela mein, 1910 ke aaspas volga ke kinare sthit saratov namak chhote-se shahar mein hoti hai. Kahani mukhyatः ek yuva krantikari (ijvekov) aur ek praudh-paripakv bolshevik karkhana mazdur (ragojin) ki gatividhiyon ke aaspas ghumti hai, lekin inke saath hi kranti purv rus ke vibhinn vargon aur sanstron ke pratinidhi apni samajik sthiti, manovigyan, rag-virag aur parasprik sambandhon ke saath atyant jivant rup mein maujud hain—vyapari merkuri avdevich aur uski beti lija, abhijat lekhak pastukhov, chhaliya abhineta stvetukhin, kranti ke gupt sahyogi buddhijivi aur talchhat-nivasi lampat sarvhara charitr. Taip charitron ke srijan aur vikas ki fedin ki taknik anuthi hai. Samanya ghatnakram-vikas ke bich ve charitron ki parat-dar-parat kholte hue mano unka manovaigyanik adhyyan bhi prastut karte chalte hain. Kal-vishesh ki samajik-rajnitik sthitiyon ki vastuprak prastuti, aitihasik ghatna prvah ka vyaktiyon par prbhav aur ghatna-prvah mein vyaktiyon ki bhumika tatha alag-alag vargon ke pratinidhi charitron ki aitihasik niyati ke chitran ke saath hi fedin janta ke bich se ubharte pratinidhi sakaratmak charitron ki gatiki ko udghatit karte hue ek ne manav ke janm ki kahani bayan karte hain.
‘pahli umangen’ upanyas ek aise samay ka sahityik dastavez hai jab samaj mein, aatank ke saye ke bich, kabhi bhi kahin se parivartan ki kisi visphotak, aakasmik shuruat ki sambhavna log nirantar mahsus kar rahe the. Satah par samanya jivan ka dainandin natak jari tha aur satah ke niche parivartan ki shaktiyan lagatar sangthit taiyariyon mein juti hui thin. Upanyas ki anek thimen is vichar dvara ektabaddh hain ki duniya ko punarsangthit karne ka sangharsh hi mulya aur satynishtha se yukt manav-vyaktitv ka nirman kar sakta hai, chizon ko badalne ki prakriya mein hi log svayan ko badal sakte hain aur kranti ke dahanpatr mein hi naya manav dhala-gadha ja sakta hai.

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 समाजवादी क्रान्ति और निर्माण के युगान्तरकारी समय और महान देशभक्तिपूर्ण युद्ध के दौरान अकूत कुर्बानियाँ देकर फ़ासीवाद को धूल चटानेवाली सोवियत जनता के भौतिक-आत्मिक जीवन के सभी पहलुओं का दक्ष साहित्यिक दस्तावेज़ीकरण करनेवाले लेखकों में कोन्स्तान्तिन फ़ेदिन का नाम अग्रणी है। और ऐसा करते हुए फ़ेदिन ने पुरानी और नई दुनिया के ऐसे टाइप-चरित्रों का सृजन किया जो विश्व-क्लासिकी के अमर पात्रों के काफ़िले में शामिल हो गए। मैक्सिम गोर्की के उत्तराधिकारियों की जिस पीढ़ी ने समाजवादी यथार्थवादी शिल्प के नए-नए प्रयोग करने के साथ ही उन्नीसवीं शताब्दी के महान रूसी गद्य-विशेषकर कथा-साहित्य की परम्परा - को भी आत्मसात् एवं विकसित किया और यूरोपीय यथार्थवाद के गुणों को भी अपनाया, उनमें फ़ेदिन का नाम अग्रगण्य है। फ़ेदिन के लेखन के प्रारम्भिक दौर में ही उनका मूल्यांकन प्रस्तुत करते हुए गोर्की ने लिखा था : कोन्स्तान्तिन फ़ेदिन एक गम्भीर और भावप्रवण लेखक हैं, जो सावधानीपूर्वक काम करते हैं। वे उनमें से हैं जिन्हें कुछ कहने की जल्दी नहीं होती, पर जो जानते हैं कि बेहतर ढंग से कैसे कहा जाए। कोन्स्तान्तिन अलेक्सान्द्रोविच फ़ेदिन का जन्म 24 फरवरी ( पुराने कैलेंडर के अनुसार 12 फरवरी) 1892 को सरातोव में हुआ था । उनके पिता स्टेशनरी की एक दूकान चलाते थे । स्कूली पढ़ाई के साथ ही फ़ेदिन बचपन में वायलिन भी सीखते थे। 1901 में उन्होंने वाणिज्य अकादमी में प्रवेश लिया। 1905 में, चौदह वर्ष की उम्र में उन्होंने अपनी पूरी कक्षा के साथ छात्र हड़ताल में हिस्सा लिया। 1907 में वे घर से भागकर मास्को चले गए, जहाँ खर्च के लिए उन्हें अपना वायलिन गिरवी रखना पड़ा। - बहरहाल, उनके पिता ने आख़िरकार उनका पता लगा लिया और फिर घर घसीट लाए। एक बार फिर उन्होंने नाव से वोल्गा नदी के रास्ते भागने की कोशिश की लेकिन यह योजना भी विफल हो गई । पिता के साथ दूकान में काम करने के बजाय फ़ेदिन ने कोज्लोव स्थित वाणिज्य अकादमी में अपनी पढ़ाई जारी रखी। यहीं उनमें साहित्यानुराग विकसित हुआ और नौ वर्ष की नंगे पाँवोंवाली बालिका बच्चे को गोद में झुला रही थी और गले लगाती हुई उसके खुले हुए मुँह को चिथड़े में लिपटे रोटी के टुकड़े से बन्द करने की कोशिश- सी कर रही थी। बच्चा छटपटाते हुए सिर को इधर-उधर घुमा रहा था तथा अपनी नन्ही-सी टाँगों को पेट से लगाता हुआ ऐंठन के मारे चीख रहा था । "अरे, चुप रह !" छोटी लड़की खिझती हुई बोली व पत्थर की सीढ़ियों पर बच्चे को लिटाते हुए पास ही खड़ी होकर अपनी सलवट - भरी लॉक को ठीक करने लगी । फिर हाथ पीछे करके वह धूप से तपी घर की दीवार का सहारा पाने को झुक गई, मानो कह रही हो, ‘मर जा चिल्लाकर चाहे, मैं तेरी ओर देखूँगी तक नहीं !' ये ईस्टर सप्ताह के अन्तिम दिन थे । उत्सव के सभी मनोरंजन पूरे हो गए थे, पर वसन्त अवकाशों की रंगबिरंगी थकित-सी शोभा सड़क पर अभी भी दिखाई दे रही थी । साथ ही यह पछतावा भी था कि सब रागरंग बीत चला था । केवल यही दिलासा रह गया था कि फिर भी उत्सव समाप्त नहीं हुआ है और रंगरेलियों का मौक़ा फिर भी आ सकता है। नीचे वोल्गा के तटों से, लकड़ी से बने मकानों की घुमावदार गलियों में से किसी मदमस्त गीत की उदास रागिनी उड़ती हुई-सी सुनाई दे रही थी, जो कभी बन्द हो जाती तो कभी फिर से गूँज उठती और कभी इतने ऊँचे स्वर पर पहुँच जाती कि उसके आगे दूर नदी में बजते अकार्डियन की आवाज़, गिरजे की घंटियों की ऊटपटाँग टंकार और घाट का शोरगुल, सबकुछ मन्द पड़ जाता। फ़ुटपाथ पर ईस्टर के अंडों के कुचले हुए छिलके बिखरे पड़े थे, जो कई रंगों के थे - लाल, नीले, सुर्ख और प्याज़ के छिलकों में उबाले होने से हलके पीले व भूरे-से । यह भी साफ़ था कि लोगों ने इन दिनों सूरजमुखी तथा कद्दू के बीज, अखरोट और पिंगल फल, आदि खाने का खूब मजा लिया है और मीठी गोलियाँ भी बहुत चूसी हैं। सड़क के गोल व घिसे हुए पत्थरों पर से हवा ने सारे कचरे को उड़ाकर खड्डों में भर दिया था और ईंटोंवाले फ़ुटपाथ तक जैसे झाड़ू-सा लगा दिया था। बालिका सामने की ओर टकटकी लगाए थी। नदी में बाढ़ आई हुई थी, रेतीले टापू पहले ही जलमग्न हो चुके थे, बाईं ओर का चरागाहवाला किनारा बड़ा सघन-सा और पास दिखने लगा था, वोल्गा के गँदले, चाकलेटी भूरे पानी में टूटे हुए शीशे की तरह जगमगाती धूप ने एक हलचल करती हुई-सी दरार डाल दी थी । पापलर की नई पत्तियों व कोंपलों की सुगन्ध नदी किनारे की मिट्टी और सड़ते

शहर में एक बड़ी छायादार सड़क थी, जहाँ दो फूलों के बगीचे और एक अंग्रेज़ी ढंग
का समचौरस चौक था । इस चौक के मंडपों में बैठकर लोग आइसक्रीम जर्मन सिल्वर
के चम्मचों से खाते थे। आगे चलकर एक पर्णकुटी-सी बनी हुई थी जहाँ बैठकर कूमिस
या लस्सी ली जाती थी । पगडंडियों के दोनों ओर लिलक की झाड़ियाँ व लाइम, चीड़
व चिनार के पेड़ लगे हुए थे जिनके बीच होकर आगे बढ़ने पर सीप की आकृति का
लकड़ी का मंच बना हुआ था। रविवार के दिन वहाँ रेजीमेंट का बैंड बजा करता था
और पूरे नगर के सभी आयुवाले व सभी व्यवसायों के लोग वहाँ समय बिताने आया.
करते थे। हर वर्ग और हर उम्र के लोगों का चौक में आने का अपना विशेष समय
हुआ करता था। सड़क का नाम लीप्की था और इस नाम का नगर के छोटे-बड़े हर
व्यक्ति के जीवन में विशिष्ट स्थान था। नए फूलों के बगीचों से, जिसमें चारों ओर
से धूप आती थी, खेलते-नाचते बच्चों की स्वरलहरी गूँजती, 'चमक चमक रे सूरज
तू / हो न रात में गुमसुम तू' या यह 'तेरी रानी ने भेजा है कुरता जालीदार / सौ रू
है मोल उसका, ले लो, मेरे यार / बाएँ मिलता, दाएँ मिलता, मिलता सरे बाज़ार / श्याम
न लेना, श्वेत न लेना - ना मत कहना, हाँ मत कहना - क्या लोगे, सरकार ?' शाम
होने पर जब तम्बाकू के फूलों की खुशबू हवा में मस्ती बिखेरती तो अंग्रेज़ी चौक में
ख़ामोश महिलाएँ छतरियाँ ताने और गम्भीर प्रकृति के पुरुष रेशमी कोट पहने लोकप्रिय
उपन्यास पढ़ते रहते। सुबह के समय कूमिस पीने के लिए कमज़ोर फेफड़ोंवाले लोग
झोंपड़ीनुमा जगह पर इकट्ठा हो जाते और पत्तों में से छनती हुई सूरज की रोशनी
मेज़ों पर चितकबरी-सी दिखाई देती और आधे खाली प्यालों के पास पीले-पीले हाथ
शिथिल व गतिहीन-से दिखते । रविवारों और छुट्टियों के दिन दुकानों में काम करनेवाले
और कारीगर लोग सीपनुमा मंच के सामने जमा होकर फ़ौजी गाने सुनते व ज़ोर-ज़ोर
से तालियाँ पीटते, ‘रेलगाड़ी की मार्चिंग' धुन बजाई जाती और फिर 'मुकर्रर-मुकर्रर '
की आवाजें लगतीं। रास्तों में मन्थर गति से चलनेवाले जोड़ों की क़तारें आमने-सामने
बढ़ती चली जातीं, जिनके जूतों से सड़क भी चमकने लगतीं व वे एक-दूसरे से सटे
हुए मंडपों में लेमोनेड की बोतलों के काग उड़ते हुए देखते आगे सरकते रहते । पास
ही पतंगे और कीड़े गैस की बत्तियों के नीचे नाचते रहते और हलकी धूल ज़मीन से
धुएँ की तरह उड़ती रहती ।
नहीं, लीज़ा और किरील्ल की भेंट की यह जगह नहीं थी । शहर में एक और
सड़क थी, नदी के पास और हरी-भरी । यहाँ लकड़ी की रेलिंग के साथ-साथ बबूल
की झाड़ियों की क़तारें थीं और चारों तरफ़ लिलक पुष्पों के पौधे उग रहे थे जिनकी
टहनियाँ आपस में गुँथी हुई थीं। वहाँ देवदार व पुराने लाइम वृक्ष भी थे। पर वहाँ
न तो आइसक्रीम बिकती थी, न मंडप थे, न बैंड बाजा बजाता था और न कूमिस
ही मिलता था। यहाँ तो केवल चौकीदार की झोंपड़ी थी, जिसमें पियानो की शक्ल
वेरा निकान्द्रोव्ना ने अपने बेटे की रिहाई के लिए प्रभावशाली लोगों से सहायता और
समर्थन प्राप्त करने के विचार को कभी भी नहीं छोड़ा। पर मुश्किल से ही यह विचार
मूर्त रूप लेने लगा था कि किरील्ल की गिरफ़्तारी के बाद की सुबह उसे यह स्पष्ट हो
गया कि वह बिलकुल अकेली है, व अपनी व्यथा में वह किसी से मदद नहीं पा सकती
है । किरील्ल उसके जीवन, उसकी चेतना पर छाया हुआ था और जब वह उसके पास
था, उसने कभी भी नहीं सोचा कि सारे शहर में या सारे संसार में ऐसा कोई भी व्यक्ति
नहीं है जिससे वह ज़रूरत के समय सहायता पा सके । उसे ऐसे लगा जैसे वह डूब रही
है और उसकी चीख कोई भी नहीं सुन रहा है । उसे आशा थी कि त्स्वेतुखिन या
पास्तुख़ोव से कुछ मदद मिल सकेगी। पर अजीब बात तो यह थी कि इस आशा के
बावजूद उसे यह लगभग निश्चित-सा लगता था कि जैसे ही वह अपनी अस्पष्ट योजना
को कार्यरूप में परिणत करने की चेष्टा करेगी, उसमें से कुछ भी बाक़ी नहीं
रहेगा - उसकी आशाएँ भाप बनकर उड़ जाएँगी और इनके बदले उसे कुछ भी नहीं
मिलेगा। आशा के भंग होने का भय स्वयं आशा से कहीं अधिक तीव्र था।
"तुम्हारा क्या ख़याल है ? क्या वह मदद करेगा ?" वेरा निकान्द्रोव्ना ने सोच
हुए लीज़ा से पूछा, जब वे हाथ में हाथ डाले त्स्वेतुख़िन के यहाँ जा रही थीं।
“मैं सोचती हूँ कि ज़रूर करेगा," लीज़ा ने उत्तर दिया।
“मैं भी न जाने क्यों यही सोचती हूँ," वेरा निकान्द्रोव्ना ने कुछ अनिश्चित ढंग
से कहा ।
जिस निश्चय के साथ वह लीज़ा को साथ लेकर निकली थी, वह लक्ष्य के निकट
पहुँचते-पहुँचते बराबर कमज़ोर-सा होता जा रहा था।
त्स्वेतुख़िन लीप्की के पास के एक होटल में रहता था। होटल की सफ़ेद, एकमंजिला
इमारतें बिना किसी औपचारिक ढंग के एक अहाते में घास के मैदानों और कोलतार
की सड़कों के बीच इधर-उधर बिखरी हुई थीं। उसके पास ही, संगीत विद्यालय की
अजीब-सी टोपदार छत दिखाई देती थी जिसमें से हलके स्वर में बाजों की नोंक-
झोंकवाली आवाजें आ रही थीं, जो बाहर चौड़ी सड़क पर बज रहे फ़ौजी बैंड की धुन
से उलझ रही थीं। बड़े होटलों के विपरीत, यह ऐसे लोगों को आकृष्ट करता था,
एक व्यवस्थित जीवन के आदी होते हैं और इसका वातावरण बड़ा रुचिपूर्ण व शान्तिमय
था।
|
जो
जैसे ही इज़्वेकोवा और लीज़ा छितरे हुए पेड़ोंवाले एक रास्ते से होते हुए एक होटल
के अहाते को पार कर रही थीं, उन्हें एक बढ़िया आवाज़ सुनाई दी :
,
"आप लोग मुझसे मिलने तो नहीं आई हैं ?"
से देख रहा था। वह लीप्की पर घूमनेवाले लोगों के द्वारा उल्लिखित 'रोबेस्पियर' फ़ैशन
लीजा खड़ी हो गई। प्रसन्नचित्त-सा त्स्वेतुखिन उसकी ओर एक खुली खिड़की में

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