क्रम
1. बे-सबब ही कभी, आवाज़ लगाओ तो सही - 13
2. मैं दस्तरस से तुम्हारी निकल भी सकता हूँ - 14
3. ख़ामुशी टूटेगी, आवाज़ का पत्थर भी तो हो - 15
4. ये किस मुक़ाम पे लाया गया ख़ुदाया मुझे - 16
5. जिस तरफ़ चाहूँ पहुँच जाऊँ मसाफ़त कैसी - 17
6. रात का तारीक जंगल और ये आवारगी - 18
7. राब्ते तोड़ कर जाने वाला गया, हमने रोका नहीं - 19
8. आसेब सा जैसे मिरे आसाब से निकला - 20
9. वही जो रिश्ता है कश्ती का सतह-ए-आब के साथ - 21
10. हयातो- कायनात पर किताब लिख रहे थे हम - 22
11. सुबह-सवेरे ख़ुशबू पनघट जाएगी - 23
12. सभी रिश्तों के दरवाज़े मुक़फ़्फ़ल हो रहे हैं - 24
13. ख़ाक चेहरे पे मल रहा हूँ मैं - 25
14. कोई फ़र्याद मुझे तोड़ के सन्न से निकली - 26
15. ये किस वहशत -ज़दा लम्हे में दाख़िल हो गए हैं - 27
16. बहता हूँ मैं दरिया की रवानी से कहीं दूर - 28
17. कुछ देर तो दुनिया मिरे पहलू में खड़ी थी - 29
18. बातों में बहुत गहराई है, लहज़े में बड़ी सच्चाई है - 30
19. सुबह और शाम के सब रंग हटाए हुए हैं - 31
20. जाने किस लम्स की तासीर से पत्थर हुआ मैं - 32
21. तिलिस्म-ए-ख़्वाब में बे-ख़्वाब आईना है कोई - 33
22. सियाह शब के असर से निकल रहे हो क्या - 34
23. आईने की सिलवटों से फिर उभर आया हूँ मैं - 35
24. नए जहानों के ख़ाब आँखों में पल रहे हैं - 36
25. सर-ए-सहरा-ए-जाँ हम चाक-दामानी भी करते हैं - 37
26. सुनो मुसाफ़िर! सराय-ए-जाँ को तुम्हारी यादें जला चुकी हैं - 38
27. ए ज़िंदगी ये क्या हुआ तू ही बता थोड़ा-बहुत - 39
28. बिखेरता है क़यास मुझको - 40
29. तुम नूर की वादी थे मैं नज्द का सहरा था - 41
30. लहज़े में रौशनी का समंदर लिए हुए - 42
31. उस की सोचें और उस की गुफ़्तगू मेरी तरह - 43
32. वो आसमान हो गया लग्ज़िश के - 44
33. मुसलसल तिश्नगी का सिलसिला है - 45
34. बावज़ूद - 46
35. आसमां तक मसअले फैले मिले - 47
36. तुम्हें अब चाँद कहना छोड़ दूँ क्या - 48
37. परिंदे झील पर इक रब्त-ए-रूहानी में आए हैं - 49
38. मेरी बेसम्ती थी, मैं था, क़ाफ़िला कोई ना था - 50
39. हर इक लम्हा सँभलना पड़ रहा है - 51
40. मिरे अशआर में शामिल तिरी ख़ुशबू हो जाए - 52
41. बिखर रहा है मिरा अंग-अंग आलीजाह - 53
42. इक दिया दिल की हवेली में जला है शायद - 54
43. हमारे शेरों में ऐसा कमाल होता है - 55
44. लोग पत्थर के, शहर आतिश का - 56
45. तू कभी पूछ, तो फिर हाल बताऊँ तुझको - 57
46. आँखों के ग़म-कदों में उजाले हुए तो हैं - 58
47. क्या ख़बर कब गिर पड़े ये आसमां गर्दिश में है - 59
48. अगरचे ख़ुश हूँ मैं सबकी ख़ुशी में - 60
49. हम तिरे ज़िक्र की मेहराब में खो जाते हैं - 61
50. जुस्तजू हैरान बाज़ारों के बीच - 62
51. क्या जाने कौन ले गया बादल समेट कर - 63
52. वो हर्फ़ हूँ लबों पे जो उतरा नहीं कभी - 64
53. अब के बारिश ने किए रूह के शीशे ज़ख़्मी - 65
54. दुश्मन से सौदा कर लिया क्या? - 66
55. मिरे - 67
56. कैसे अजीब लोग हैं ग़मनाक भी नहीं - 68
57. वर्ना क्या है जो दस्तरस में नहीं - 69
58. आरज़ुओं के पर जलाएँ क्या - 70
1
बे- सबब ही कभी, आवाज़ लगाओ तो सही ।
अपने होने का कुछ एहसास दिलाओ तो सही ।
साँस लेता हुआ हर रंग नज़र आएगा,
तुम किसी रोज़ मिरे रंग में आओ तो सही ।
ताकि फिर रात की तस्वीर उतारी जाए,
इन चराग़ों को ज़रा देर बुझाओ तो सही ।
जिंदगी जिस्म से बाहर भी नज़र आए कभी,
कोई हंगामा सर-ए-राह उठाओ तो सही ।
हौसला है तो जज़ीरा भी तुम्हारा होगा,
ख़ौफ़' की कश्तियाँ साहिल पे जलाओ तो सही ।
मेरी मिट्टी में मुहब्बत ही मुहब्बत है 'नबील',
छू के देखो तो सही, हाथ लगाओ तो सही।
51
क्या जाने, कौन ले गया बादल समेट कर ।
प्यासी ज़मीन सो गई आँचल समेट कर ।
फिर एक रोज़ मैंने हवा में उड़ा दिया,
वो याद जिसको रक्खा था पल-पल समेट कर ।
ले जाएगी ये उम्र-ए-रवाँ' ख़ामुशी के साथ,
तेरे बदन के बाग़ से संदल समेट कर ।
ज़ालिम हमें ना छेड़ कि हम फ़र्त-ए-जोश' में,
रख लेंगे अपनी ज़ेब में मक़तल समेट कर ।
आओ सफ़र की फिर से करें इब्तदा' 'नबील',
बैठे हैं कब से राह की दलदल समेट कर ।