Natyanveshan
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Item Weight | 400 Grams |
ISBN | 978-9391446567 |
Author | Brajratan Joshi |
Language | Hindi |
Publisher | Rajasthani Granthagar |
Pages | NA |
Book Type | Paperback |
Publishing year | 2022 |
Return Policy | 5 days Return and Exchange |

Natyanveshan
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नाट्यान्वेषण : उत्तर आधुनिक विश्व में रंगमंच के वजूद को लेकर जोशी ने ठीक ही यहाँ अपनी चिंताओं को सचेत अभिव्यक्ति दी है। वास्तव में उत्तर-आधुनिक विमर्श ने वैश्विक रंगमंच को चुनौती दी है और साहित्य, कला तथा संस्कृति के जुड़े तमाम रचनाधर्मियों को झकझोरा है। रंगमंच के जागरूक अध्येता होने के नाते, ब्रजरतन जोशी ने उत्तर-आधुनिक चिन्तन के विविध आयामों को गहरी समझ के साथ समकालीन भारतीय रंगमंच के सन्दर्भ में जाँचा है। इसमें केंद्रीय प्रश्न भाषा का है। जोशी उत्तर-आधुनिक प्रविधि में भाषा के निर्विवाद महत्त्व को स्वीकार करते हुए मानते हैं कि साहित्यिक सौन्दर्य के रहस्य व उसे सुलझाने के रास्ते भाषा के जरीये हो कर ही गुजरते हैं। भरतमुनि कहते हैं : वाचि यत्नस्तु कर्तव्यो नाट्येस्येयं तनुः स्मृता। 8211; वाक् ही सारे नाट्योद्यम का मूलाधार है। वह प्रयोग की संरचना निर्मित करती है। भरतमुनि कहते हैं कि रंगकर्म को चाहिये कि वाक् या शब्द को लेकर सदा सचेत बना रहे।उत्तर-आधुनिक विमर्श में बिना विषयवस्तु, मंच या पात्र के भी प्रस्तुति संभव है। अनुकीर्तन नहीं, अनुकरण नहीं, अनुदर्शन नहीं, केवल कीर्तन, करण और दर्शन । इसमें सारे मुलम्मे निकल जाते हैं, 8211; जो घटित हो रहा है, वह सामने होता है। 8211; जोशी ने सवाल उठाया है कि पाठ से ध्वनि की और प्रत्यावर्तन क्या लोक नाट्य की आदिम परम्परा की ओर लौटना नहीं है?पर लोक नाट्यों की आदिम परम्परा इस उत्तर-आधुनिकता में अंतर है। उत्तरआधुनिकता ने यान्त्रिकता को आरोपित करते हुए जीवन के सहज रस से विच्युत हो कर कला को प्रस्तुति बना दिया है। लोकनाट्य में पाठ का विस्थापन रस का पुनः संधान करता है, जो पाठ की जटिलताओं-कलाबाजियों में खो गया है।आज के साहित्य में सपाटबयानी और विसंगतिबोध के द्वारा नये प्रतिमानों का सृजन किया ग��ा। ये प्रतिमान समकालीन नाट्यसर्जना में कुशल नाट्यकारों की कृतियों में भी प्रमुखता के साथ उभरे हैं। जोशी ने इस दृष्टि से इस पुस्तक में हिन्दी के अनेक महत्त्वपूर्ण नाटककारों के रचनाकर्म और रचनासंसार पर विशद चर्चा की है। नंदकिशोर आचार्य के साथ स्वयंप्रकाश, हमीदुल्ला, रिजवान, मणि मधुकर आदि नाटककारों की कृतियों का उनका समीक्षण और विश्लेषण पठनीय है।रंगसमीक्षा की हालत पर गौर करते हुए जोशी ने उचित ही पाठकेन्द्रित समीक्षा, शिल्पकेन्द्रित समीक्षा व दोनों में संतुलन बना कर चलने वाली समीक्षा, इन तीन पद्धतियों का विवेचन करते हुए देवेन्द्रराज अंकुर को तीसरी पद्धति के उदाहरण के रूप में सामने रखा है। यह समीक्षा विवेक का अच्छा उदाहरण है।RelatedTRUE
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