Maseeha Aur Anya Ekanki
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Item Weight | 320 Grams |
ISBN | 978-9393768681 |
Author | Sagar Sarhadi, Ed. Ramesh Talwar |
Language | Hindi |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Pages | 184p |
Book Type | Paperback |
Dimensions | 14.61*22.23*1.50 |
Publishing year | 2022 |
Edition | 1st |

Maseeha Aur Anya Ekanki
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यह किताब क्यों खरीदें?
• ‘मसीहा और अन्य एकांकी’ मशहूर फिल्मकार सागर सरहदी द्वारा लिखे गए नौ लघु नाटकों का संकलन है।
• हिन्दी में अच्छे और समसामयिक नाटकों/एकांकियों के अभाव की चर्चा अक्सर होती है। इस सन्दर्भ में सागर साहब की यह किताब एक विशिष्ट उपलब्धि है। इसमें संकलित एकांकी मंचन के लिए जितने उपयुक्त हैं, पढ़ने के लिए भी उतने ही दिलचस्प।
• ‘मसीहा और अन्य एकांकी’ एकांकियों के विषय बहुत समसामियक हैं मसलन ‘मसीहा’ रिफ्यूजियों के बारे में है तो ‘एक शाम और गुजर गई’ खुद नाटक करने वालों की जाती ज़िन्दगी के बारे में। ‘एक बंगला बने न्यारा’ में तीखा कटाक्ष है तो ‘ये कौन आया’ में कॉमेडी और ‘एहसास की चुभन’ में दिल का दर्द।
पुस्तक के बारे में
ज़िन्दगी के कुछ आधारभूत मूल्य होते हैं जिन पर इंसानियत की आख़िरी उम्मीद टिकी होती है। वे हर दौर, हर मुश्किल में साधनों और सुखों से वंचित, हारे हुए लोगों का भरोसा बनते हैं, उन्हें दिलासा और हौसला देते हैं। ग़लत और सही का फ़र्क़, रिश्ते-नाते-दोस्ती, हमदर्दी, यक़ीन, एक-दूसरे की मदद करने का जज़्बा और आख़िरी साँस तक लड़ने को कटिबद्ध जिजीविषा, ये मनुष्य की आन्तरिक दुनिया के कुछ ऐसे पाए हैं जो हमारे लालच और हैवानियत के घुन से जर्जर हो चुके संसार को हर हाल में थामे रहते हैं।
सागर सरहदी के इन एकांकी नाटकों की भीतरी तहों में यही क़द्रें बहती हैं और ज़िन्दगी की तमाम विपरीत परिस्थितियों में कुछ ज़्यादा रोशन होकर हमें अपनी मौजूदगी का अहसास कराती हैं। समाज के वास्तविक हालात को सागर साहब बिना किसी लाग-लपेट के देखते और अंकित करते हैं। ग़रीबी, बेरोज़गारी, भुखमरी, अपने मन का काम न कर पाने की पीड़ा, पछतावा, अकेलापन, सब कुछ को लेकर गहरा व्यर्थता-बोध—यानी डरावने वक़्तों की कोई भी शक्ल उनकी निगाह से नहीं छूटती। वे पूरी शिद्दत और सचाई से उनके ख़ाके खींचते हैं, और उतनी ही शिद्दत से उनके लाचार, समाज के हाशिये पर पहुँच चुके, परेशानहाल किरदार उन चीज़ों से लोहा लेते हैं, उन्हें सीधे अपनी रूह पर झेलते हैं।
'एक शाम और गुज़र गई' के हताश, तंगहाल लेकिन ज़िन्दादिल, सपनों को सच की तरह जीने वाले अदाकार-कलाकार हों, 'एहसास की चुभन' में अधूरे प्यार की विडम्बना हो, महानगरों में घर की समस्या पर फ़लसफ़ियों की तरह बतियाता 'एक बँगला बने न्यारा' हो या अभाव, लाचारी और इनसे पैदा होने वाली चारित्रिक कमज़ोरी को बयान करनेवाला 'दायरा', सागर सरहदी हर एकांकी में सामाजिक-आर्थिक विडम्बनाओं को उनके क्रूरतम रूप में पकड़ते हैं।
इस संग्रह में शामिल सभी एकांकी न सिर्फ़ कंटेंट और शिल्प के लिहाज़ से, बल्कि मंच-तकनीक के लिहाज़ से भी जितने पठनीय हैं, उतना ही सहज इनको मंच पर उतारना भी है। कम पात्रों के साथ, चुस्त संवादों से जटिल और दिलचस्प जीवन-दृश्यों को साकार करने में सक्षम ये छोटे-छोटे नाटक आज़ादी बाद के कुछ दशकों के समाज-मनोविज्ञान का पता भी देते हैं, रूमान और बदलाव की कामना जिसका अभिन्न हिस्सा थे।
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