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बहैसियत अदबी भाषा उर्दू की ताक़त जिन कुछ लेखकों को पढ़ते हुए एक ठोस आकार की शक्ल में नमूदार होती है, उनमें इस्मत चुग़ताई को चोटी के कुछ नामों में शुमार किया जा सकता है। जहाँ तक ज़बान को इस्तेमाल करने के हुनर का सवाल है, बेदी और मंटो में भी वह महारत दिखाई नहीं देती जो उनमें दिखती है। बेदी कहानी को मूर्तिकार की सी सजगता से गढ़ते थे और मंटो की कहानी अपने समय के कैनवस पर अपना आकार ख़ुद लेती थी। लेकिन इस्मत की कहानी भाषा और भाषा में बिंधी हुई सदियों की मानव-संवेदना की चाशनी से इस तरह उठती है जैसे किसी खौलती हुई कड़ाही में, भाप को चीरकर कोई मुजस्समा उठ रहा हो।
इससे यह नहीं समझ लिया जाना चाहिए कि इस्मत अपनी कहानी में कोई कलात्मक चमत्कार करती हैं, वह ज़िन्दगी से अपने सच्चे लगाव को कहानी का ज़रिया बनाती हैं और जिस शब्दावली का चयन उनकी ज़बान करती है, वह ख़ुद भी ज़िन्दगी से उनके इसी शदीद इश्क़ से तय होती है। सिर्फ़ कोई एक शब्द या कोई एक पद, और आपको अपनी आँखों के सामने पूरा एक दृश्य घटित होता दिखता है। ‘यह इतना बड़ा चीख़ता-चिंघाड़ता बम्बई’ —इस संग्रह की पहली ही कहानी में यह एक वाक्य आता है, और सच में बम्बई को किसी और तरह से चित्रित करने की ज़रूरत नहीं रह जाती। इसी बम्बई में सरला बेन हैं। ‘कभी किसी ने उन्हें हटकर रास्ता देने की ज़रूरत तक न महसूस की। लोग दनदनाते निकल जाते और वह आड़ी होकर दीवार से लग जातीं।’ एक कहानी का यह एक वाक्य क्या एक मानव जाति के एक प्रतिनिधि के बरसों का ख़ाका नहीं खींच देता।
यही हैं इस्मत चुग़ताई, जिन्हें यूँ ही लोग प्यार से आपा नहीं कहा करते थे। जिस मुहब्बत से वे अपने किरदारों और उनके दु:ख-सुख को पकड़ती थीं, वही उनके आपा बन जाने का सर्वमान्य आधार था। इस किताब में उनकी सत्रह एक से एक कहानियाँ शामिल हैं जिनमें प्रसिद्ध 'लिहाफ़' भी है। इसमें उन्होंने समलैंगिकता को उस वक़्त अपना विषय बनाया था जब समलैंगिकता के आज जवान हो चुके पैरोकार गर्भ में भी नहीं आए थे। और इतनी ख़ूबसूरती से इस विषय को पकड़ना तो शायद आज भी हमारे लिए मुमकिन नहीं है। उनकी सोच की ऊँचाई के बारे में जानने के लिए सिर्फ़ इसी को पढ़ लेना काफ़ी है। Bahaisiyat adbi bhasha urdu ki taqat jin kuchh lekhkon ko padhte hue ek thos aakar ki shakl mein namudar hoti hai, unmen ismat chugtai ko choti ke kuchh namon mein shumar kiya ja sakta hai. Jahan tak zaban ko istemal karne ke hunar ka saval hai, bedi aur manto mein bhi vah maharat dikhai nahin deti jo unmen dikhti hai. Bedi kahani ko murtikar ki si sajagta se gadhte the aur manto ki kahani apne samay ke kainvas par apna aakar khud leti thi. Lekin ismat ki kahani bhasha aur bhasha mein bindhi hui sadiyon ki manav-sanvedna ki chashni se is tarah uthti hai jaise kisi khaulti hui kadahi mein, bhap ko chirkar koi mujassma uth raha ho. Isse ye nahin samajh liya jana chahiye ki ismat apni kahani mein koi kalatmak chamatkar karti hain, vah zindagi se apne sachche lagav ko kahani ka zariya banati hain aur jis shabdavli ka chayan unki zaban karti hai, vah khud bhi zindagi se unke isi shadid ishq se tay hoti hai. Sirf koi ek shabd ya koi ek pad, aur aapko apni aankhon ke samne pura ek drishya ghatit hota dikhta hai. ‘yah itna bada chikhta-chinghadta bambii’ —is sangrah ki pahli hi kahani mein ye ek vakya aata hai, aur sach mein bambii ko kisi aur tarah se chitrit karne ki zarurat nahin rah jati. Isi bambii mein sarla ben hain. ‘kabhi kisi ne unhen hatkar rasta dene ki zarurat tak na mahsus ki. Log danadnate nikal jate aur vah aadi hokar divar se lag jatin. ’ ek kahani ka ye ek vakya kya ek manav jati ke ek pratinidhi ke barson ka khaka nahin khinch deta.
Yahi hain ismat chugtai, jinhen yun hi log pyar se aapa nahin kaha karte the. Jis muhabbat se ve apne kirdaron aur unke du:kha-sukh ko pakadti thin, vahi unke aapa ban jane ka sarvmanya aadhar tha. Is kitab mein unki satrah ek se ek kahaniyan shamil hain jinmen prsiddh lihaf bhi hai. Ismen unhonne samlaingikta ko us vaqt apna vishay banaya tha jab samlaingikta ke aaj javan ho chuke pairokar garbh mein bhi nahin aae the. Aur itni khubsurti se is vishay ko pakadna to shayad aaj bhi hamare liye mumkin nahin hai. Unki soch ki uunchai ke bare mein janne ke liye sirf isi ko padh lena kafi hai.

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क्रम

1. निवाला - 7

2. तन्हा-तन्हा - 17

3. तेरा हाथ - 30

4. लिहाफ़ - 44

5. बदन की ख़ुशबू - 53

6. कुँआरी - 78

7. चट्टान - 91

8. कारसाज़ - 103

9. अमरबेल - 113

10. नन्ही-सी जान - 124

11. सॉरी मम्मी - 134

12. ज़हर - 147

13. मुट्ठी मालिश - 154

14. नफ़रत - 163

15. जाल - 181

16. हीरो -189

17. हीरोइन - 200

 

निवाला
पूर्री चाल में एक द्वन्द्व मचा हुआ था। ऐसा मालूम हो रहा था, जैसे किसी खोली
में साँप निकल आया है या किसी के बाल-बच्चा हो रहा है। औरतें एक
खोली से दूसरी खोली में घुस रही थीं शीशियाँ, बोतलें, डिब्बे लिये सब की सब
सरला बेन की खोली की तरफ़ तक रही थीं, जैसे सरला बेन का आख़िरी वक़्त हो.
और सारी पड़ोसिनें अपनी-सी करने पर तुली हों
एक तरह से तो सरला बेन का वाक़ई आख़िरी वक़्त था
उनकी ट्रेन बस छूटने ही वाली थी। पूरे तैंतीस बरस की होतीं, अगर उनके
दूरंदेश वालिदैन ने प्रभाकर के सर्टीफ़िकेट में उनकी उम्र के पूरे पाँच साल हड़प
कर लिये होते
मगर काग़ज़ की उम्र ऐसा ज़बरदस्त सहारा नहीं होती
वह यू.पी. के किसी गुमनाम से गाँव की पैदावार थीं, मगर बम्बई में इतने साल
रहीं कि वतन को भूल-भाल के बम्बई की ही हो गई थीं उन पर किसी सूबे का
ठप्पा नहीं था। कोई उन्हें गुजराती समझता, कोई मारवाड़ी और सिंधी बस, जगत
सरला बेन हो गई थीं।
सरला बेन के. . एम. हॉस्पिटल में नर्स थीं महँगाई अलाउंस मिला के दो सौ
चालीस रुपए मिलते थे बारह रुपए कमरे का किराया देकर इतना बच जाता था
कि बड़े ठाठ से रहती थीं। हॉस्पिटल से मरहम-पट्टी का सामान, .पी.सी. की
गोलियाँ, मरक्यूरीक्रोम, अस्ली ग्लीसरीन और पेटेंट दवाओं के सैम्पल लाकर मुफ़्त
तक्सीम किया करती थीं। उनका कमरा आस-पास के इलाक़े के लिए अच्छा-भला
हॉस्पिटल था
सरला बेन बड़े काम की चीज़ थीं। ऊपर से शक्ल-सूरत के साथ-साथ चाल-
चलन ऐसा था कि कभी किसी की गृहस्थी पर शह' पड़ने का खदशा' नहीं हुआ।
यही वजह थी कि वह बेइन्तिहा हरदिल-अज़ीज़' थीं। जिधर निकल जातीं, उनके
जनाए हुए बच्चे कुलबुलाते, रोते- बिसूरते नज़र आते। लोग उनके क़दमों में आँखें

लिहाफ़
जब मैं जाड़ों में लिहाफ़ ओढ़ती हूँ तो पास की दीवार पर उसकी परछाई हाथी
की तरह झूमती हुई मालूम होती है और एकदम से मेरा दिमाग़ बीती हुई
दुनिया के पर्दों में दौड़ने-भागने लगता है। जाने क्या कुछ याद आने लगता है।
मुआफ़ कीजिएगा, मैं आपको ख़ुद अपने लिहाफ़ का रूमान-अंगेज़' ज़िक्र
बताने नहीं जा रही हूँ, लिहाफ़ से किसी क़िस्म का रुमान जोड़ा ही जा सकता है।
मेरे ख़याल में कम्बल कम आरामदेह सही, मगर उसकी परछाईं इतनी भयानक नहीं
होती, जितनी ... जब लिहाफ़ की परछाईं दीवार पर डगमगा रही हो
यह तब का ज़िक्र है, जब मैं छोटी-सी थी और दिन भर भाइयों और उनके दोस्तों
के साथ मार-कुटाई में गुज़ार दिया करती थी। कभी-कभी मुझे ख़याल आता है कि
मैं कम्बख़्त इतनी लड़ाका क्यों थी उस उम्र में, जबकि मेरी और बहनें आशिक़
जमा कर रही थीं, मैं अपने-पराये हर लड़के और लड़की से, जूतम-पैज़ार' में
मशगूल थी।
यही वजह थी कि अम्माँ जब आगरा जाने लगीं, तो हफ़्ता भर के लिए मुझे
अपनी एक मुँहबोली बहन के पास छोड़ गईं। उनके यहाँ अम्माँ ख़ूब जानती थीं कि
चूहे का बच्चा भी नहीं, और मैं किसी से भी लड़-भिड़ सकूँगी। सज़ा तो ख़ूब
मेरी। हाँ, तो अम्माँ मुझे बेगम जान के पास छोड़ गईं। वही बेगम जान, जिनका
लिहाफ़ अब तक मेरे ज़ेहन' में गर्म लोहे के दाग़ की तरह महफ़ूज़' है। यह वह
बेगम जान थीं, जिनके ग़रीब माँ-बाप ने नवाब साहब को इसलिए दामाद बना
लिया कि वह पक्की उम्र के थे, मगर थे निहायत नेक। कभी कोई रंडी बाज़ारी
औरत उनके यहाँ नज़र आई। ख़ुद हाजी थे और बहुतों को हज करवा चुके थे।
मगर उन्हें एक निहायत अजीबो-गरीब शौक़ था लोगों को कबूतर पालने का
जुनून होता है। कोई तोते पालता है। किसी को मुर्ग़बानी का शौक़ होता है। उनसे
साहब को नफ़रत थी। उनके यहाँ तो बस तालिबे-इल्म' रहते थे। नौजवान, गोरे-
गोरे, पतली कमरों के लड़के, जिनका ख़र्च वह ख़ुद बर्दाश्त करते थे

 


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P
Prakash kumar Kumar
Lihaf

It is quite good book and enjoying each and every sentence. I am doing my best effort to imagine line by line.
Thanks

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