फेह्रिस्त
1 बातें कही कही सी हैं
2 नींद रातों की उड़ा देते हैं
3 सच है कि वो बुरा था हर इक से लड़ा किया
4 सोचते रहते है अक्सर रात में
5 रात बीमार सितारों से भरी रहती है
6 ख़्वाब में एक मकाँ देखा था
7 घर से बाहर किस बला का शोर था
8 मुंह-ज़ुबानी क़ुरान पढ़ते थे
9 सुखाने बाल ही कोठे पे आ गए होते
10 रात भर पी के लड़खड़ाते रहो
11 रात के मुंह पे उजाला चाहिए
12 बरसों घिसा-पिटा हुआ दरवाज़ा छोड़ कर
13 उसकी बात का पाँव न सर
14 ज़मीन लोगों से डर गई है
15 वो मेरे साथ आने पे तय्यार हो गया
16 सातवीं मन्ज़िल से कूदा चाहिए
17 शरीफ़े के दरख़्तों में छुपा घर देख लेता हूँ
18 दिन भर के दहकते हुए सूरज से लड़ा हूँ
19 दिन इक के बा’द एक गुज़रते हुए भी देख
20 हवा चली तो मिरे जिस्म ने कहा मुझको
21 उसे न देख के देखा तो क्या मिला मुझको
22 बिना मुर्ग़े के पर झटकती हैं
23 अ’जब ख़ौफ़ सा दिल पे छा जाएगा
24 धूप में सब रंग गहरे हो गए
25 कितना हसीन था तू कभी कुछ ख़याल कर
26 यक़ीन कैसे दिलाऊँ कि तुझ पे मरता हूँ
27 मैं नौहागर हूँ भटकते हुए क़बीलों का
28 यार आज मैंने भी इक कमाल करना है
29 रात मिली तन्हाई मिली और जाम मिला
30 अभी तो और भी दिन बारिशों के आने थे
31 सफ़र में सोचते रहते है छाँव आए कहीं
32 गिरह में रिश्वत का माल रखिए
33 हज़ारों लाखों दिल्ली में मकाँ हैं
34 दुख का एहसास न मारा जाए
35 इधर रहा हूँ उधर रहा हूँ
36 शांति की दुकानें खोली हैं
37 दिन में परियाँ क्यों आती हैं
38 अभी रोया अभी हंसने लगा हूँ
39 पुकारता हूँ पड़ा रेगज़ार में अब भी
40 जाती हुई लड़की को सदा देना चाहिए
41 अ’जब नहीं कि फिर इक बार मैं बदल जाऊँ
42 भेद क्यों खुलता नहीं दीवार-ओ-दर में कौन है
43 जाते जाते देखना पत्थर में जाँ रख जाऊँगा
44 रात पड़े घर जाना है
45 मैं अपना नाम तिरे जिस्म पर लिखा देखूँ
46 तीसरी आँख खुलेगी तो दिखाई देगा
47 यक्का उलट के रह गया घोड़ा भड़क गया
48 ज़मीं कहीं भी न थी चार-सू समन्दर था
49 आग पानी से डरता हुआ मैं ही था
50 औरों के घर जला के क़यामत न कर सका
51 कभी तो ऐसा भी हो राह भूल जाऊँ मैं
52 ये आँख है तो उसे ऐसी अब जिला मिल जाए
53 कुछ तो इस दिल को सज़ा दी जाए
54 और बाज़ार से क्या ले जाऊँ
1
बातें कही कही सी हैं
फिर भी नई नई सी हैं
उनकी महफ़िल अपनी आँख
दोनों भरी भरी सी हैं
रह-रौ1 का क्या ज़िक्र यहाँ
राहें थकी थकी सी हैं
1 राहगीर
दिल है उमड़ा उमड़ा सा
आँखें बुझी बुझी सी हैं
उनकी जफ़ाएँ भी ‘अ’ल्वी’
कितनी भली भली सी हैं
2
नींद रातों की उड़ा देते हैं
हम सितारों को दुआ’ देते हैं
रोज़ अच्छे नहीं लगते आँसू
ख़ास मौक़ों’ पे मज़ा देते हैं
अब के हम जान लड़ा बैठेंगे
देखें अब कौन सज़ा देते हैं
हाए वो लोग जो देखे भी नहीं
याद आयें तो रुला देते हैं
दी है ख़ैरात1 इसी दर से कभी
अब इसी दर पे सदा2 देते हैं
1 दान 2 आवाज़, भीख माँगना
आग अपने ही लगा सकते हैं
गैर तो सिर्फ़ हवा देते हैं
कितने चालाक हैं ख़ूबाँ1 ‘अ’ल्वी’
हमको इल्ज़ाम-ए-वफ़ा2 देते हैं
1 सुंदर मा’शूक़ 2 दोस्ती का इल्ज़ाम
3
सच है कि वो बुरा था हर इक से लड़ा किया
लेकिन उसे ज़लील किया ये बुरा किया
गुलदान में गुलाब की कलियाँ महक उठीं
कुर्सी ने उसको देख के आग़ोश1 वा2 किया
1 आलिंगन 2 खोलना
घर से चला तो चाँद मिरे साथ हो लिया
फिर सुब्ह तक वो मेरे बराबर चला किया
कोठों पे मुँह-अँधेरे सितारे उतर पड़े
बन के पतंग मैं भी हवा में उड़ा किया
उससे बिछड़ते वक़्त मैं रोया था ख़ूब सा
ये बात याद आई तो पहरों हंसा किया
छोड़ो पुराने क़िस्सों में कुछ भी धरा नहीं
आओ तुम्हें बताएँ कि ‘अ’ल्वी’ ने क्या किया
4
सोचते रहते है अक्सर रात में
डूब क्यों जाते है मन्ज़र रात में
किसने लहराई हैं ज़ुल्फ़ें दूर तक
कौन फिरता है खुले सर रात में
चाँदनी पी कर बहक जाती है रात
चाँद बन जाता है साग़र1 रात में
1 शराब का प्याला
चूम लेते हैं किनारों की हदें
झूम उठते हैं समुन्दर रात में
खिड़कियों से झांकती है रौशनी
बत्तियाँ जलती है घर घर रात में
रात का हम पर बड़ा एहसान है
रो लिया करते है खुल कर रात में
दिल का पहलू में गुमाँ1 होता नहीं
आँख बन जाती है पत्थर रात में
1 संदेह, भ्रम
‘अ’ल्वी’ साहब वक़्त है आराम का
सो रहो सब कुछ भुला कर रात में
5
रात बीमार सितारों से भरी रहती है
दिन की क़िस्मत में वही दर्द-सरी1 रहती है
1 सर का दर्द, परेशानी
फूल खिलता है न पत्ता कोई शर्माता है
शाख़ उम्मीद की काटों से भरी रहती है
जिनकी राहें भी नहीं और कोई मन्ज़िल भी नहीं
उन बगूलों से मिरी हम-सफ़री1 रहती है
1 साथ साथ चलना
हम भी ग़ुन्चे1 हैं हमें भी तो अभी खिलना है
दूर क्यों हमसे नसीम-ए-सहरी2 रहती है
1 कली 2 सुब्ह की हवा
जाम में अपना ही चेहरा नज़र आया हमको
लोग कहते है यहाँ लाल परी रहती है
पास भी हों तो हमें होश कहाँ रहता है
दूर भी हों तो वही बेख़बरी रहती है
हम भी देखेंगे कहाँ तक वो छुपेंगे ‘अ’ल्वी’
और कब तक ये परेशाँ-नज़री1 रहती है
1 नज़रों का इधर उधर भटकना
6
ख़्वाब में एक मकाँ देखा था
फिर न खिड़की थी न दरवाज़ा था
सूने रस्ते पे सर-ए-शाम1 कोई
घर की यादों में घिरा बैठा था
1 शाम होते ही
लोग कहते हैं कि मुझ सा था कोई
वो जो बच्चों की तरह रोया था
रात थी और कोई साथ न था
चाँद भी दूर खड़ा हंसता था
एक मेला सा लगा था दिल में
मैं अकेला ही फिरा करता था
ऐसा हंगामा न था जंगल में
शह्र में आए तो डर लगता था
कौन आया था मकाँ में ‘अ’ल्वी’
किसने दरवाज़ा अभी खोला था
7
घर से बाहर किस बला का शोर था
मेरे घर में जैसे मैं ख़ुद चोर था
मैंने दिल में झांक कर देखा उसे
फिर उसी का अ’क्स1 चारों ओर था
1 प्रतिबिंब
पहले नाचा और फिर रोने लगा
मेरा दिल भी जैसे कोई मोर था
घर के अन्दर ख़ाक खाने को न थी
सरहदों पर दुश्मनों का ज़ोर था
मैंने कल रस्ते में देखा था उसे
मुझको क्या मा’लूम था वो चोर था
रात भर ‘अ’ल्वी’ को मैं पढ़ता रहा
यार वो शाइ’र तो सचमुच बोर था
8
मुंह-ज़ुबानी क़ुरान पढ़ते थे
पहले बच्चे भी कितने बूढ़े थे
इक परिन्दा सुना रहा था ग़ज़ल
चार छे पेड़ मिल के सुनते थे
जिनको सोचा था और देखा भी
ऐसे दो चार ही तो चेहरे थे
अब तो चुप-चाप शाम आती है
पहले चिड़ियों के शोर होते थे
रात उतरा था शाख़ पर इक गुल
चार-सू1 ख़ुश्बुओं के पहरे थे
1 चारों ओर
आज की सुब्ह कितनी हल्की है
याद पड़ता है रात रोए थे
ये कहाँ दोस्तों में आ बैठे
हम तो मरने को घर से निकले थे
ये भी दिन है कि आग गिरती है
वो भी दिन थे कि फूल बरसे थे
अब वो लड़की नज़र नहीं आती
हम जिसे रोज़ देख लेते थे
आँखें खोलीं तो कुछ न था ‘अ’ल्वी’
बन्द आँखों में लाखों जल्वे1 थे
1 दृश्य, रौशनियाँ
9
सुखाने बाल ही कोठे पे आ गए होते
इसी बहाने ज़रा मुंह दिखा गए होते
तुम्हें भी वक़्त की रफ़्तार का पता चलता
निकल के घर से गली तक तो आ गए होते
गला भिगो के कहीं और सदा1 लगा लेता
ज़रा फ़क़ीर को पानी पिला गए होते
1 आवाज़
अरे ये ठीक हुआ होंठ सी लिए हमने
वगर्ना1 लोग तुझे कब का पा गए होते
1 नहीं तो
भला हो चाँद का आते ही नूर पहुँचाया
सितारे होते तो आँखें चुरा गए होते
जावान जिस्मों को ठंडा न कर सके लेकिन
हवा के झोंके दिया तो बुझा गए होते
10
रात भर पी के लड़खड़ाते रहो
सुब्ह मस्जिद में सर झुकाते रहो
तोड़ डालो तिलिस्म-ए-बू-ए-गुल1
मौसम-ए-गुल2 में ख़ाक उड़ाते रहो
1 फूल की महक का जादू 2 बहार का मौसम
मह्ल ता’मीर1 कर लो दरिया में
रेत में कश्तियाँ चलाते रहो
1 निर्माण
हिज्र1 की शब2 गुज़र ही जाएगी
ताज़ा फ़िल्मों के गीत गाते रहो
1 जुदाई 2 रात
फूँस में आग धर के हट जाओ
चैन की बांसुरी बजाते रहो
मत डरो नन्हे-मुन्ने ओलों से
बेधड़क अपना सर मुंडाते रहो
सब रक़ीबों1 से दोस्ती कर लो
मन-घड़त वस्ल2 की सुनाते रहो
1 मा’शूक़ के दूसरे आ’शिक़ 2 मिलन
अब भी मिलते है गाँठ के पूरे
ढूंढ लो और उधार खाते रहो
नाम रख लो ख़लील-ख़ाँ अपना
और फिर फ़ाख़्ता उड़ाते रहो
लोग मग़्लूब1 हो ही जाएँगे
शे’र ग़ालिब के गुनगुनाते रहो
1 अधीन
हम भी उस्ताद हैं सुनो ‘अ’ल्वी’
अपनी ग़ज़लें हमें दिखाते रहो
11
रात के मुंह पे उजाला चाहिए
चोर के घर में भी ताला चाहिए
ग़म बहुत दिन मुफ़्त की खाता रहा
अब उसे दिल से निकाला चाहिए
पाँव में जूती न हो तो कुछ नहीं
हाँ मगर एक आध छाला चाहिए
हाथ फैलाने से कुछ मिलता नहीं
भीख लेने को पियाला चाहिए
याद उनकी यूँ न जाएगी उसे
कुछ बहाना करके टाला चाहिए
शाइ’री मांगे है पूरा आदमी
अब उसे भी मूँछ वाला चाहिए