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About Book

प्रस्तुत किताब 'रेख़्ता हर्फ़-ए-ताज़ा’ सिलसिले के तहत प्रकाशित उर्दू शाइर शाहराम सरमदी का ताज़ा काव्य-संग्रह है| यह किताब देवनागरी लिपि में प्रकाशित हुई है और पाठकों के बीच ख़ूब पसंद की गई है|

About Author

शहराम सरमदी 1975 को अ’लीगढ़ में पैदा हुए। अ’लीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से एम. ए. किया। मुम्बई यूनिवर्सिटी से डाक्टरेट की डिग्री हासिल की और वहीं कई बर्सों तक तदरीसी फ़राएज़ भी अनजाम दिए। बा’द-अज़ाँ वज़ारत-ए-उमूर-ए-ख़ारजा, हुकूमत-ए-हिन्द से वाबस्ता हुए और इन दिनों हुकूमत-ए-हिन्द की जानिब से ताजिकिस्तान में मामूर हैं।

 

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फ़ेह्‍‌रिस्त



ग़ज़लें


1 बनाम-ए-इ’श्क़ इक एहसान सा अभी तक है
2 मगर ये क़िस्सा तब का है कि जब उसके क़रीं थे हम
3 फ़िज़ा होती ग़ुबार-आलूदा, सूरज डूबता होगा
4 बराह-ए-रास्त नहीं फिर भी राब्ता सा है
5 मुझे तसलीम बे-चून-ओ-चरा तो हक़-ब-जानिब था
6 बदल जाएगा सब कुछ ये तमाशा भी नहीं होगा
7 हम अपने इ’श्क़ की बाबत कुछ एहतिमाल में हैं
8 नदी थी कश्तियाँ थीं चाँदनी थी झरना था
9 मता-ए’-पास-ए-वफ़ा खो नहीं सकूँगा मैं
10 साअ’त-ए-हिज्र कट गई इ’श्क़ जवान हो गया
11 न हम गदा न किसी को पुकारा करते हैं
12 वो एक लम्हा-ए-रफ़्ता भी क्या बला लाया
13 अह्ल-ए-दिल इल्ज़ाम है ये और बहुत संगीन है
14 नसीब-ए-चश्म में लिक्खा है गर पानी नहीं होना
15 किन बलाओं का असर घूमता है
16 ख़ला सा ठहरा हुआ है ये चार सू कैसा
17 आख़िर-ए-दम तक न दिल से ये पशेमानी गई
18 कर गुज़र जाएँगे पहले से ज़ियादा अब के
19 उन दिनों का ज़िक्र है जब उसको देखा भी न था
20 रह-ए-वफ़ा में रहे ये निशान ख़ातिर बस
21 इ’नायत है तिरी बस एक एहसान और इतना कर
22 बजा ये शह्र ज़रा भी तो देखा-भाला नहीं
23 मिसाल-ए-मज़्ज़ा-ए-क़न्द-ओ-नबात ऐसा ही
24 ख़ुश्क था अ’र्सा-ए-तराविश भी
25 अश्क आँखों में हों और रोऊँ नहीं
26 जहान-ए-दिल में इन्क़िलाब कर दिया
27 हुकमराँ जब से हुईं बस्ती पे अफ़वाहें वहाँ
28 तआ’रुफ़ात की ख़ातिर ज़हीन रहना है
29 मैं नहीं रोता हूँ अब ये आँख रोती है मुझे
30 इससे पहले इस तरह घर को सजाया तो नहीं
31 मैं ख़्वाब में था इक आवाज़ ने कहा याहू
32 ज़रा बस खोलना था उसके गेसू-ए-परेशाँ को
33 सुन रखा था तज्रबा लेकिन ये पहला था मिरा
34 तआ’वुन भी मिला फ़रियाद-ओ-आह-ओ-अश्क-बारी का
35 अन-गिनत सदियों पे फैली हुई तेरी दुनिया
36 तवज्जो देते नहीं हाथों की लकीरों पर
37 मिरे सुख़न पे इक एहसान अब के साल तो कर
38 रिज़्क़-ए-बरहक़ मेरे हिस्से में नहीं आया अभी
39 तो क्या तड़प न थी अब के मिरे पुकारे में
40 अगर लगा कि मैं ये जंग हार सकता हूँ
41 भीड़ थी लेकिन बनाम-ए-दोस्ताँ कोई न था
42 हमारे ज़ेह्न में यह बात भी नहीं आई
43 वक़्त के आगे सर-ए-तसलीम ख़म करते चलो
44 जो इस बरस नहीं अगले बरस में दे दे तू
45 फिर उसके बा’द न था जे़र-ए-पा ज़मीं होना
46 क़ैस-ए-बे-ख़ाना की मन्ज़िल आए
47 इस सोच में ही मर्हला-ए-शब गुज़र गया
48 मशग़ला ये भी बहुत अच्छा है लेकिन वक़्त पर
49 याद की बस्ती का यूँ तो हर मकाँ ख़ाली हुआ
50 मैं कुछ समझा नहीं क्या था मुक़ाबिल
51 रगों में आज भी ये ख़ून सा रवाँ1 है क्या
52 गुम-सुम गुम-सुम लगते नहीं तुम हमको अच्छे अल्लाह मियाँ
53 अब मुलाक़ातें नहीं बस आश्नाई उससे है
54 इस दौर से नजात नहीं चाहिए हमें
55 जो एक ज़ख़्म सर-ए-शाख़-ए-दिल महकता है

 

1

बनाम-ए-इ’श्क़1 इक एहसान सा अभी तक है

वो सादा-लौह2 हमें चाहता अभी तक है

1 श्क़ के नाम पर 2 मासूम

 

फ़क़त ज़मान-ओ-मकाँ1 में ज़रा सा फ़र्क़ आया

जो एक मसअला-ए-दर्द था अभी तक है

1 समय और स्थान

 

शुरू-ए’-इ’श्क़ में हासिल हुआ जो देर के बा’द

वो एक सिफ़्‍र1 तह-ए-हाशिया2 अभी तक है

1 शुन्य 2 हाशिये में

 

हुलूल1 कर चुकी ख़ुद में हज़ार नक़्श-ओ-रंग2

ये कायनात जो ख़ाका-नुमा3 अभी तक है

1 घोलना 2 तस्वीर और रंग 3 स्केच

 

तवील1 सिल्सिला-ए-मसलिहत है चार तरफ़

यक़ीन कर ले मिरी जाँ ख़ुदा अभी तक है

1 लंबा


 

2

मगर ये क़िस्सा तब का है कि जब उसके क़रीं1 थे हम

ये सारा आस्माँ अपना था, ख़ुश-बाश2 ओ हसीं थे हम

1 क़रीब 2 प्रसन्न

 

यहीं हाँ जिस जगह अब ख़ाक उड़ती फिरती है हर सू

यहीं अपने मकाँ थे जिनमें बरसों तक मकीं1 थे हम

1 रहना

 

गुज़िश्ता रात सुनते हैं बहुत ही तेज़ आँधी थी

गुज़िश्ता रात लेकिन शह्​र से बाहर कहीं थे हम

 

सवाद-ए-ना-मुरादी1 में बुरीदा2 पर फड़कते हैं

मगर कुछ याद पड़ता है कि बाज़ू-ए-यक़ीं3 थे हम

1 मायूसी का अंधेरा 2 कटे-फटे 3 विश्वास

 

न जाने कार-ए-दुनिया किस तरह रास आ गया इतना

कि यूँ मस्‍रूफ़ तो कार-ए-जुनूँ1 में भी नहीं थे हम

1 श्क़


 

3

फ़िज़ा होती ग़ुबार-आलूदा1, सूरज डूबता होगा

ये नज़्ज़ारा भी दिलकश था अगर मैं थक गया होता

1 गर्द से अटी

 

नदामत साअ’तें1 आईं तो ये एहसास भी जागा

कि अपनी ज़ात के अन्दर भी थोड़ा सा ख़ला होता

1 क्षण

 

गुज़िश्ता रोज़-ओ-शब से आज भी इक रब्त सा कुछ है

वगर्ना शह्​र भर में मारा मारा फिर रहा होता

 

अ’जब सी नर्म आँखें, गन्दुमी आवाज़, ख़ुश्बूएँ

ये जिसका अ’क्स1 हैं उस शख़्स का कुछ तो पता होता

1 प्रतिबिंब

 

मसाइल जैसे अब दरपेश1 हैं शायद नहीं होते

अगर  कार-ए-जनूँ2 मैंने सलीक़े से किया होता

1 सामने 2 दीवानगी


 

4

बराह-ए-रास्त1 नहीं फिर भी राब्ता सा है

वो जैसे याद-ए-मज़ाफ़ात2 में छुपा सा है

1 प्रत्यक्ष 2 आस-पास

 

कभी तलाश किया तो वहीं मिला है वो

नफ़स1 की आमद-ओ-शुद2 में जहाँ ख़ला सा है

1 सांस 2 आना-जाना

 

ये तारे किस लिए आँखें बिछाए बैठे हैं

हमें तो जागते रहने का आ’रिज़ा1 सा है

1 रोग

 

ये कायनात1 अगर वैसी हो तो क्या होगा

हमारे ज़ेह्​न में ख़ाका2 जो इक बना सा है

1 ब्रह्मांड 2 नक़्शा

 

ज़मीं मदार पे रक़्साँ1 है सुबह-ओ-शाम मुदाम2

कुरे3 के चार तरफ़ इक मुहासरा4 सा है

1 नाचती हुई 2 हमेशा 3 पृथ्वी, ज़मीन 4 घेरा-बंदी


 

5

मुझे तसलीम बे-चून-ओ-चरा1 तो हक़-ब-जानिब2 था

मिरे अनफ़ास पर लेकिन अ’जब पिन्दार3 ग़ालिब था

1 बग़ैर सवाल-जवाब 2 दुरुस्त 3 स्वभिमान

 

वगर्ना जो हुआ उससे सिवाए-रन्ज क्या हासिल

मगर हाँ मसलिहत की रू से देखें तो मुनासिब था

 

मैं तेरे बा’द जिससे भी मिला तीखा रखा लहजा

कि इस बे-लौस1 चाहत के इ’वज़2 इतना तो वाजिब था

1 निस्वार्थ 2 बदले में 3 उपयुक्त

 

मैं कुछ पूछूँ भी तो अकसर जवाबन कुछ नहीं कहता

गुज़िश्ता एक अ’रसे से जो बस मुझसे मुख़ातिब था

 


 

6

बदल जाएगा सब कुछ ये तमाशा भी नहीं होगा

नज़र आएगा वो मन्ज़र जो सोचा भी नहीं होगा

 

हर इक लम्हा किसी शय की कमी महसूस भी होगी

कहीं भी दूर तक कोई ख़ला1 सा भी नहीं होगा

1 अंतरिक्ष, शुन्य

 

सिमट जाएगी दुनिया साअ’त-ए-इमरोज़1 में इक दिन

शुमार-ए-ज़ीस्त2 में दीरोज़-ओ-फर्दा3 भी नहीं होगा

1 वर्तमान 2 ज़िन्दगी 3 बीता हुआ और आनेवाला कल

 

मगर क़द रोज़-ओ-शब का देख कर हैरान सब होंगे

मदार1 अपना ज़मीं ने गरचे बदला भी नहीं होगा

1 धुरी

 

अ’जब वीरानियाँ आबाद होंगी क़र्या-दर-क़र्या1

शजर2 शाख़ों पे चिड़ियों का बसेरा भी नहीं होगा

1 हर तरफ़ 2 पेड़


 

7

हम अपने इ’श्क़ की बाबत कुछ एहतिमाल1 में हैं

कि तेरी ख़ूबियाँ इक और ख़ुश-ख़िसाल2 में हैं

1 शंका 2 अच्छी आदत वाला

 

तमीज़-ए-हिज्‍र-ओ-विसाल1 इस मक़ाम पर भी है

हिसाब-ए-राह-ए-मोहब्बत में गरचे हाल में हैं

1 जुदाई और मिलन की समझ

 

कोई भी पास नहीं तो, तिरा ख़याल न ग़म

बक़ौल-ए-पीर-ए-जहाँ-दीदा1 हम विसाल2 में हैं

1 समझदार आदमी के अनुसार 2 मिलन

 

बहुत ज़रूरी नहीं है कि तू सबब ठहरे

ये बात अपनी जगह हम किसी मलाल1 में हैं

1 दुख

 

गुज़िश्ता1 साल रहा जिन पे तंग अ’र्सा-ए-वक़्त2

ये सारे ख़्वाब ब-ता’बीर अब के साल में हैं

1 पिछला 2 समझ का चक्कर


 

8

नदी थी कश्तियाँ थीं चाँदनी थी झरना था

गुज़र गया जो ज़माना कहाँ गुज़रना था

 

मुझी को रोना पड़ा रतजगे का जश्न जो था

शब-ए-फ़िराक़1 वो तारा नहीं उतरना था

1 विरह की रात

 

मिरे जलाल1 को करना था ख़म सर-ए-तस्लीम2

तिरे जमाल3 का शीराज़ा4 भी बिखरना था

1 आक्रोश 2 सर झुका कर मान लेना 3 सौन्दर्य 4 बंधन

 

तिरे जुनून ने इक नाम दे दिया वर्ना

मुझे तो यूँ भी ये सेहरा उ’बूर1 करना था

1 पार

 

इक ऐसा ज़ख़्म कि जिस पर ख़िजाँ का साया न था

इक ऐसा पल कि जो हर हाल में ठहरना था


 

9

मता-ए’-पास-ए-वफ़ा1 खो नहीं सकूँगा मैं

किसी का तेरे सिवा हो नहीं सकूँगा मैं

1 वफ़ादारी की पूँजि

 

सदा रहेगा तर-ओ-ताज़ा शाख़-ए-दिल पर तू

फ़ुज़ूल रन्ज कि कुछ बो नहीं सकूँगा मैं

 

तू आँखें मूँद ले तो नींद आए मुझ को भी

तू जानता है कि यूँ सो नहीं सकूँगा मैं

 

मुझे विरासत-ए-ग़म से भी आ’क़1 कर डाला

ये कैसा लुत्फ़ कि अब रो नहीं सकूँगा मैं

1 वंचित

 

बहुत हसीं है जहाँ1, ज़िन्दगी भी ख़ूब मगर

मज़ीद बार-ए-नफ़स2 ढो नहीं सकूँगा मैं

1 दुनिया 2 सांसों का बोझ


 

10

साअ’त-ए-हिज्‍र1 कट गई इ’श्क़ जवान हो गया

शह्​र में अ’र्से बा’द फिर अम्न-ओ-अमान हो गया

1 विरह का क्षण

 

जिस के बग़ैर ज़ीस्त का ज़ह्​न में ख़ाका तक न था

कैसे वो शख़्स यक-ब-यक1 वह्​म-ओ-गुमान हो गया

1 अचानक

 

दिल के मुअा’मिलात की हम को भी थोड़ी फ़ह्​म1 है

क्या कहें दोस्तो! यहाँ जाँ का ज़ियान2 हो गया

1 समझ 2 हानि

 

हम को भी फ़ख़्‍र है कि हम रखते थे अपने सर पे छत

कोई मकाँ मिला न था दर्द मकान हो गया

 

एक नए सफ़र पे अब होना है हमको गामज़न1

पाँव भी लड़खड़ा उठे रस्ता ढलान हो गया

1 अग्रसर


 

11

न हम गदा1 न किसी को पुकारा करते हैं

फ़क़ीर हैं गुज़राँ2 पर गुज़ारा करते हैं

1 भिकारी 2 अतीत

 

जो पहले करते रहे गोशा-हा-ए-ख़ल्वत1 में

वो ज़िक्‍र-ए-याद तिरा आश्कारा2 करते हैं

1 एकान्त 2 प्रकट

 

जतन करें भी तो आँखों से मह्​व1 होते हैं

जो नक़्श2 ये दर-ओ-दीवार उभारा करते हैं

1 तल्लीन

 

किया है फिर नज़र-अन्दाज़1 उसने अह्​ल-ए-दिल

चलो कि कार-ए-जुनूँ भी दोबारा करते हैं

1 अनदेखा

 

अब इसके बा’द वही दश्त-ए-हू, वही रम1 है

वही तलाश-ए-ख़ुतन2 है नज़ारा करते हैं

1 कुलांचे 2 कस्तूरी हिरन के लिए मशहूर जगह


 

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