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Kayamkhani Nawab Jainadikhanji ke Vanshajon ka Itihas Jainan Parichay
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कायमखानी नवाब जैनदीखाँजी के वंशजों का इतिहास जैनाण-परिचय : क्षेत्रीय इतिहास तथा संस्कृति के प्रति आज जागरूकता निरन्तर बढ़ती ही जा रही है। ऐतिहासिक शोध सामग्री का राजस्थान में अभाव नहीं है, परन्तु उसके खोज व उपयोग करने के लिए अथक परिश्रम और धैर्य की नितान्त आवश्यकता है। कमान बख्शू खाँ पहाडि़याण ने जो स्वयं कायमख���नी जाति के है, अपने पूर्वजों तथा उनके द्वारा अर्जित जागीरों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने के लिए दत्तचित होकर निष्ठा और लगन के साथ शोध सामग्री एकत्रित की है, जिसके आधार पर प्रस्तुत अभिनिबन्ध तैयार किया गया है। लेखक का यह प्रयास सराहनीय है।प्रारम्भिक सर्वेक्षण में यद्यपित यह कार्य विनम्र प्रयास है फिर भी इससे आगे की शोध दिशाएँ अधिक उन्मुक्त होती दिख पड़ती है। भाट, दाढ़ी, मीर और जांगड़ जातियों की सामग्री का विश्लेषणात्मक संकलन वांछनीय है। फारसी व राजस्थानी ग्रन्थों से भी कायमखानी सम्बन्धी सामग्री उपलब्ध की जा सकती है। मैं आशा करता हूँ कि अन्य शोधकत्र्ता इसी कार्य को और अधिक विस्तार के साथ सम्पूर्ण कायमखानी जाति के विभिन्न राजनैतिक, सामाजिक व सांस्कृतिक जीवन पर प्रकाश डालेंगे। निश्चय ही यह अभिनिबन्ध उन शोधकत्र्ताओं के लिए प्रेरणादायक प्रमाणित होगा।लेखक ने उपलब्ध सामग्री के आधार पर कायमखाँ के धर्म परिवर्तन की तिथि 1360ई. निश्चित की है, जो फतहपुर परिचय, भाटों और मूता नैणसी द्वारा दी गई तिथि से भिन्न है। यद्यपि लेखक ने इस तिथि को निर्धारित करने के लिए तर्क प्रस्तुत किये है फिर भी लेखक ने अपने अभिनिबन्ध में नबाब जैनदीखाँ का परिचय, जैनाण कायमखानियों द्वारा सत्तावनी की स्थापना जैनाण कायमखानियों की खांपें, थम्भें, वंशावलियों और जागीरों का युक्तियुक्त विश्लेषण किया है। सत्तावनी के गाँवों की सूची तैयार करने में लेखक ने लगन और श्रम का परिचय दिया है, जो किसी भी शोध विद्यार्थी के लिए अनुकरणीय है। अन्त में लेखक ने झाड़ोद के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए सत्तावनी के कायमखानियों का मारवाड़ राज्य के साथ सम्बन्धों का वर्णन किया है। कायमखानी नवाब जैनदीखाँ के वंशणों का जैनाण परिचय ग्रन्थ का समुचित स्वागत होगा।लेखक के अनुसार कायमखानियों ने 19वीं शताब्दी के मध्य तक याने 500 वर्ष मुस्लिम सर्वोच्च सत्ता के काल तक राजपूत संस्कृति का ही पालन किया किन्तु 19वीं शताब्दी के अंतिम चरण में जब कायमखानी अंग्रेजी सेना में भर्ती होने लगे और उन्होंने अन्य मुसलमान सैनिकों से सम्पर्क स्थापित किया तब उन्होंने राजपूत संस्कृति का परित्याग कर मुस्लिम संस्कृति को अपना लिया। इस सम्बन्ध में गहराई से विचार व चिन्तन करने की आवश्यकता है। मैं लेखक को इस श्रमसाध्य कार्य को सफलता पर बधाई देता हूँ।RelatedTRUE
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