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Kashi Ka Assi
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जिन्दगी और जिन्दादिली से भरा एक अलग किस्म का उपन्यास। उपन्यास के परम्परित मान्य ढाँचों के आगे प्रश्नचिह्न। ‘अस्सी’ काशीनाथ की भी पहचान रहा है और बनारस की भी। जब इस उपन्यास के कुछ अंश ‘कथा रिपोर्ताज’ के नाम से पत्रिकाओं में छपे थे तो पाठकों और लेखकों में हलचल-सी हुई थी। छोटे शहरों और कस्बों में उन अंक विशेषों के लिए जैसे लूट-सी मची थी, फोटोस्टेट तक हुए थे, स्वयं पात्रों ने बावेला मचाया था और मारपीट से लेकर कोर्ट-कचहरी की धमकियाँ तक दी थीं। अब यह मुकम्मल उपन्यास आपके सामने है जिसमें पाँच कथाएँ हैं और उन सभी कथाओं का केन्द्र भी अस्सी है। हर कथा में स्थान भी वही, पात्र भी वे ही—अपने असली और वास्तविक नामों के साथ, अपनी बोली-बानी और लहजों के साथ। हर राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय मुद्दे पर इन पात्रों की बेमुरव्वत और लट्ठमार टिप्पणियाँ काशी की उस देशज और लोकपरंपरा की याद दिलाती हैं जिसके वारिस कबीर और भारतेन्दु थे ! उपन्यास की भाषा उसकी जान है—भदेसपन और व्यंग्य-विनोद में सराबोर। साहित्य की ‘मधुर मनोहर अतीव सुंदर’ वाणी शायद कहीं दिख जाये!

 

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अनुक्रम

1. देख तमाशा लकड़ी का - 11

2. सन्तों घर में झगरा भारी - 33

3. सन्तों, असन्तों और घोंघाबसन्तों का अस्सी - 74

4. पांड़े कौन कुमति तोहें लागी - 116

5. कौन ठगवा नगरिया लूटल हो - 133

 

देख तमाशा लकड़ी का

 

मित्रो, यह संस्मरण वयस्कों के लिए है, बच्चों और बूढ़ों के लिए नहीं; और उनके लिए

भी नहीं जो यह नहीं जानते कि अस्सी और भाषा के बीच ननद-भौजाई और

साली - बहनोई का रिश्ता है ! जो भाषा में गन्दगी, गाली, अश्लीलता और जाने क्या-क्या

देखते हैं और जिन्हें हमारे मुहल्ले के भाषाविद् 'परम' (चूतिया का पर्याय) कहते हैं, वे

कृपया इसे पढ़कर अपना दिल दुखाएँ-

 

तो, सबसे पहले इस मुहल्ले का मुख्तसर-सा बायोडाटा - कमर में गमछा, कन्धे पर

लँगोट और बदन पर जनेऊ - यह 'यूनिफॉर्म' है अस्सी का !

 

हालाँकि बम्बई-दिल्ली के चलते कपड़े-लत्ते की दुनिया में काफी प्रदूषण गया

है पैंट-शर्ट, जीन्स, सफारी और भी जाने कैसी-कैसी हाई-फाई पोशाकें पहनने लगे हैं

लोग ! लेकिन तब, जब कहीं नौकरी या जजमानी पर मुहल्ले के बाहर जाना हो ! वरना

ने जनेऊ या लँगोट का चाहे जो बिगाड़ा हो, गमछा अपनी जगह अडिग है !

 

'हर हर महादेव' के साथ 'भोंसड़ी के' नारा इसका सार्वजनिक अभिवादन है ! चाहे होली

का कवि सम्मेलन हो, चाहे कर्फ्यू खुलने के बाद पी..सी. और एस.एस.पी. की गाड़ी,

चाहे कोई मन्त्री हो, चाहे गधे को दौड़ाता नंग-धड़ंग बच्चा - यहाँ तक कि जॉर्ज बुश

या मार्गरेट थैचर या गोर्बाचोव चाहे जो जाए (काशी नरेश को छोड़कर)- सबके लिए

'हर हर महादेव' के साथ 'भोंसड़ी के' का ' जय-जयकार !

 

फर्क इतना ही है कि पहला बन्द बोलना पड़ता है- जरा जोर लगाकर; और दूसरा

बिना बोले अपने आप कंठ से फूट पड़ता है।

 

जमाने को लौड़े पर रखकर मस्ती से घूमने की मुद्रा 'आइडेंटिटी कॉर्ड' है इसका !

नमूना पेश है-

 

खड़ाऊँ पहनकर पाँव लटकाए पान की दुकान पर बैठे तन्नी गुरू से एक आदमी

बोला- 'किस दुनिया में हो गुरू ! अमरीका रोज-रोज आदमी को चन्द्रमा पर भेज रहा

है और तुम घंटे भर से पान घुला रहे हो ?"

 

मोरी में 'पच्' से पान की पीक थूककर गुरू बोले-'देखौ ! एक बात नोट कर लो !

चन्द्रमा हो या सूरज - भोंसड़ी के जिसको गरज होगी, खुदै यहाँ आएगा तन्नी गुरू

 

 

सन्तों, असन्तों और घोंघाबसन्तों का अस्सी
 
सच पूछिए तो जमाना हो गया था अस्सी गए !
 
बीच-बीच में उलाहने सुनाई पड़ते थे सन्तों के-कि बन्धुवर, जाने कब से
कहाँ-कहाँ मराते घूम रहे हो, कभी इधर भी आओगे ? दुनिया क्या से क्या होती जा
रही है और तुम्हारा पता नहीं  इससे पहले कि अस्सीघाट मियामी (अमरीका का एक
समुद्री तट) का असामी हो जाए; इससे पहले कि घाट के विदेशी और चौराहे के
'स्वदेशी' देसी मुहल्ले की खाट खड़ी कर दें- आओ और देखो कि किस कदर 'गँड़ऊ
गदर' मचा रहे हैं दड़बे के गदरहे 
 
और आखिरकार मैं जा ही पहुँचा एक दिन 
यह आज से लगभग ढाई साल पहले का किस्सा है।
 
मित्रो, अस्सी का अपनाशब्द- कल्पद्रुम' है - दुनिया जानती है। इसके पास और कुछ
नहीं, शब्दों की ही खेती है  वह इसी फसल के अन्न का निर्यात करता है देश-विदेश
में। आज से पचास साल पहले अपने 'फॉर्म हाउस' में उसने दो शब्द उगाए
थे-‘व्यवस्था' औरकार्यक्रम'  कार्यक्रम उसे अपने काम का नहीं लगा। कार्यक्रम माने
दारू। बोतल खोलिए, गिलास में ढालिए, चुस्की मारिए ! कार्यक्रम चलाइए-देश को
अस्थिर, अव्यवस्थित और तबाह कीजिए। अगर मुल्क को व्यवस्थित और स्थिर रखना
हो, तबाही और बर्बादी से बचाना हो तो भाँग लीजिए ! भाँग, दारू की तरह कोई तैयार
माल नहीं है कि खोली, ढाला और पिया। व्यवस्था करनी पड़ती है इसकी ! भिंगोने-धोने
की, छानने-घोटने की, सिलबट्टे की। घंटों लगते हैं। इसलिए व्यवस्था माने भाँग ! भाँग
के लिए समय और इत्मीनान चाहिए। कार्यक्रम उनके लिए जिनके पास समय नहीं है,
पादने तक की फुर्सत नहीं है !
 
इसीलिएव्यवस्थाअपने पास रखी, 'कार्यक्रम' दिल्ली पार्सल किया ! तभी से
दिल्ली में कार्यक्रम चल रहे हैं और वहीं से देश में चलाए भी जा रहे हैं !
येकल्पद्रुम' के कुछ तिनके हैं - कुछ झड़े, कुछ सड़े, कुछ सूखे-बेजान। ऐसे जाने कितने
तिनके हैं जो हवा में-अस्सी की हवा में उड़ते रहते हैं। वे कभी पकड़ में आते है, कभी
नहीं आते ! मेरी भी पकड़ में नहीं आए थे पहली बार जब मैं एक 'श्रद्धेय' के
 
पांड़े कौन कुमति तोहें लागी
 
कहना तन्नी गुरू का कि अस्सी- भदैनी का ऐसा कोई घर नहीं जिसमें पंडे, पुरोहित
और पंचांग  हों और ऐसी कोई गली नहीं जिसमें कूड़ा, कुत्ते और किराएदार  हों।
 
तन्नी गुरू में एक ऐब है  ऐब यह है कि वे कहते हैं और भूल जाते हैं और यह
भी कि कहना कुछ चाहते हैं, कह कुछ और जाते हैं। बुढ़ापे में ऐसा होता होगा शायद !
जैसे - वे कहना चाहते थे कि 'कोई-कोई' घर और 'कोई-कोई' गली लेकिन ऐसे बोल
गए जैसेसब’|
 
तो 'पंचांग' और 'किराएदार' - ये जीविका के सहारे थे पंडों के। पंचांग तो कोई
बात नहीं, लेकिन समय बदलने के साथ किराएदार हरामी होने लगे ! समझिए कि मारे-मारे
फिर रहे हैं गली-गली, भगाए जा रहे हैं दरवज्जे-दरवज्जे से कि चलो, फूटो हियाँ से- लखैरों
के लिए कोई कोठरी नहीं !...ऐसे में जगह दो दया करके, किराया बस इतना कि समझो
मुफ्त में लेकिन महीने के अन्त में हर बार किच-किच | बिजली का बिल हो तो किच-किच,
पानी  मिले तो किच-किच, कहो-खाली करो तो किच-किच ! इस तरह एक तो सारी
जिन्दगी किचाइन करो और जरा सी भी आँखें भजीं नहीं कि कोठरी गई हाथ से उनके
नाम अलॉट। फिर लड़ते रहिए सारी जिन्दगी मुकदमा। और अगर किराएदार कहीं पड़ोसी
जनपद चन्दौली, गाजीपुर, बलिया, जौनपुर या बिहार के हुए तो कोठरी क्या, मकान ही
गया। कहाँ से जुटाएँगे आप उतना लाठी-डंडा, बल्लम-गँड़ासा, तमंचा -बन्दूक ?
 
ऐसे में बाबा विश्वनाथ से अपने भक्तों का यह दुःख देखा नहीं गया !
उन्होंने विदेशियों को भेजना शुरू किया बड़े पैमाने पर  संगीत-समारोहों और
घाटों के दर्शन के लिए ! ये सारे समारोह अस्सी-भदैनी के आस-पास होते हैं-जनवरी
से अप्रैल के बीच ! शहर में होटल भी थे लेकिन महँगे और दूर। धीरे-धीरे केदार घाट
से लेकर नगबा के बीच के सारे घाटों के मकान लॉज बनने लगे। लेकिन वे ज्यादातर
लॉज थे, होटल नहीं। आप वहाँ ठहर तो लेंगे, खाएँगे-पिएँगे कहाँ ? उनकी इस जरूरत
को समझा छोटी और निचली जातियों ने। बाभन तो उन्हें अपने घर में जगह देने से
रहे लेकिन निचली जातियों ने नगर में एक नई संस्कृति चालू की-‘पेइंग गेस्टकी।
वह भी महीने के नहीं, डेली के हिसाब से !
 
यह सिलसिला शुरू हुआ था - ' 85 के आस-पास !
मुहल्ले के बाभन-ठाकुर उन्हें गरियाते रहे, धिक्कारते रहे, सरापते रहे लेकिन

 

 


 

 

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