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Jaysingh Gunvarnanam (Mahakavi Ranchhorbhatt Pranit)
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जयसिंहगुणवर्णनम् (महाकवि रणछोड़भट्ट प्रणीतं) : महाराणा श्रीजयसिंह गुणवर्णनम् जिसका अन्य नाम जयप्रशस्ति अथवा जयसमन्द प्रशस्ति भी है, मूलतः मेवाड़ के गुहिल राजवंश और उसके गौरवशाली पक्षों का देवभाषा में काव्यब।। प्रतिनिधि ग्रन्थ है। यह महाराणा श्रीजयसिंह (विक्रम संवत् 1737-1755 तद्नुसार सन् 1680-1698ई.) के कृत्तित्व और व्यक्तित्व पर केन्द्रित है और इसमें तत्कालीन दिल्ली और दक्षिण अभियान के सन्दर्भ भी यत्किंचित् रूप में द्रष्टव्य है। इसमें मेवाड़ के भूगोल, युद्ध-यात्राओं सहित सांस्कृतिक परम्पराओं के अन्तर्गत दान-पुण्य, तीर्थाटन तथा स्नान, महल, उद्यान, सरोवर आदि के निर्माण कार्यों एवं उन पर हुए व्यय का प्रामाणिक विवरण भी उपलब्ध होता है। इसी प्रकार मेवाड़ के बाँसवाड़ा, देवलिया-प्रतापगढ़, डूँगरपुर, सिरोही, जैसल���ेर, बूँदी आदि के साथ सम्बन्धों की सूचनाएँ भी मिलती हैं।प्रस्तुत ग्रन्थ में पाठ के निर्धारण में दोनों पाण्डुलिपियों का प्रयोग किया गया है और सावधानी से मिलान के साथ-साथ जहाँ पाठभेद लगा, वहाँ टिप्पणियाँ दी गई हैं। संस्कृत कहीं-कहीं त्रुटिपूर्ण लगीं और कहीं-कहीं पाठ भी त्रुटित मिला। इस कारण यथामति सुधारने और पाठ की पूर्ति का प्रयास भी किया गया है लेकिन मूलपाठ को यथावत् रखने का प्रयास प्राथमिकता से किया गया है। इसके आरम्भिक श्लोकों की पूर्ति राजप्रशस्ति के पाठ के आधार पर की गई है। इसी प्रकार ग्रन्थ के अन्त में माहात्म्य की पूर्ति के लिए भी राजप्रशस्ति का सहारा लिया गया है। यही नहीं, जहाँ कहीं पाठ खण्डित, त्रुटित मिला, उसकी पूर्ति के लिए राजप्रशस्ति सहित अमरकाव्यम्, जयावापी प्रशस्ति आदि की भी मदद ली गई है। दानादि विषयक श्लोकों के संशोधन के लिए हमने मत्स्यपुराण, हेमाद्रि कृत चतुर्व्वर्ग चिन्तामणि के दानखण्ड, बल्लालसेन के दानसागर, नीलकण्ठ दैवज्ञ के दानमयूख आदि को आधार बनाया है। यथास्थान इसकी सूचना भी दी गई है।‘जयसिंह गुणवर्णनम्’ की रचना उसी प्रशस्तिकार रणछोड़ भट्ट ने की, जिसने राजप्रशस्ति की रचना की थी। यह ग्रन्थ सम्भवतः महाराणा के निधन, वर्ष विक्रम संवत् 1756 तक पूरा हो गया था। हालांकि उसने संवत् 1744 में जयसमन्द के उत्सर्ग और महाराणा के नौका विहार के बाद की कोई घटना नहीं लिखी है। इससे लगता है कि उक्त 12 वर्षों में कोई उल्लेखनीय प्रसंग सामने नहीं आया हो। एक प्रकार से यह ग्रन्थ रणछोड़ भट्ट का आत्म परिचय भी लिए हुए है। महाराणा राजसिंह के काल की तरह ही जयसिंह के शासनकाल में भी उसका सम्मान बना रहा। वैसे महाराणा अमरसिंह के विषय में उसने ‘अमरकाव्यम्’ अथवा ‘अमरकाव्यं वंशावलीग्रन्थ’ ग्रन्थ लिखा है लेकिन वह उसके प्रारम्भिक काल का ही परिचायक प्रतीत होता है। इस ग्रन्थ से ज्ञात होता है कि अमरकाव्यम् उसने पहल�� लिख दिया था और उसको आगे लिखना चाहता था लेकिन उसका निधन हो जाने से अधूरा रह गया हो। अमरकाव्यम् के आरम्भ में ग्रन्थकार ने अमरसिंह के प्रति आशीष की याचना इस प्रकार की है-सिर पर गंगा जैसी नदी को धारण करने वाले, पार्वती को अपने अंग में स्थान देने वाले, हरिण के प्रसंग में हाथ में परशु एवं क्षुरिका धारण करने वाले नटराज भगवान् एकलिंग श्रेष्ठ अमरसिंह को अपनी वाणी एवं मंगल प्रदान करते हुए रक्षा करें 8211; शिरसि विधृतगंग शैलजातांगसंग करपरशुवरण्डाभिः कुरंगप्रसंग। अवतु स नटरंग स्वं गदः संददान प्रवरममरसिंहं मंगलान्येकलिंग।। (अमरकाव्यम् 1, 10)जयसिंहगुणवर्णनम् मूलतः महाराणा जयसिंह के जीवन चरित्र पर आधारित ग्रन्थ है। ओझा जयसमन्द की प्रतिष्ठा तिथि को लेकर आश्वस्त नहीं थे। इसी कारण लिखा कि इस तालाब की प्रशस्ति की रचना भी की गई थी, परन्तु वह खुदवाई नहीं गई, जिससे उक्त तालाब के विषय में अधिक हाल मालूम नहीं हो सका। हमें विश्वस्त रूप से उस प्रशस्ति की मूललिपि का पता लगा, परन्तु बहुत उद्योग करने पर भी वह मिल न सकी। (ओझा पृष्ठ 594)इस ग्रन्थ के प्रकाश में आने से मेवाड़ और मुगल साम्राज्य सहित पड़ौसी तथा दूरस्थ कुमाऊँ, श्रीनगर जैसी रियासतों के साथ सम्बन्धों के विषय में जानकारी तो सामने आएगी ही, महाराणा जयसिंह के विषय में अनेक नई जानकारियाँ और सांस्कृतिक, धार्मिक तथा आर्थिक सूचनाएँ भी उजागर होंगी। यह युद्ध और शान्तिकालीन मेवाड़ की सूचनाओं के स्रोत के रूप में भी पहचाना जाएगा।हमारा मानना है कि जयसिंह के विषय में पर्याप्त स्रोतों के अभाव में ऐसा सोचा और लिखा गया। प्रस्तुत स्रोत निश्चित ही ऐसी दृष्टि और स्थापनाओं का परिमार्जित करेगा।इस ग्रन्थ को लुप्त सिद्ध किया गया है। हमने दो पाण्डुलिपियों के आधार पर पहली बार इसका सम्पादन और अनुवाद किया है। विद्वानों और अध्येताओं की सम्मति की सदैव प्रतीक्षा रहेगी।RelatedTRUE
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