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Humko To Soi Lakhe : Karmendu Shishir
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नवजागरण, खासकर ‘हिन्दी नवजागरण' को लेकर पिछले कुछ वर्षों से हिन्दी की दुनिया में घमासान बहस छिड़ी हुई है। यह बहस सिर्फ इसलिए भी नहीं है कि हिन्दी मार्क्सवादी आलोचक रामविलास शर्मा की मान्यताएँ उनके कुछ प्रतिद्वन्द्वी आलोचकों को मान्य नहीं हैं बल्कि इसलिए भी हैं कि इस हिन्दी नवजागरण में उन्हें अनेक चीजें अनुपस्थित दिखाई पड़ती हैं; चाहे उससे अन्य भारतीय जातियों के जुड़ने का मसला हो अथवा दलितों व मुसलमानों की उपस्थिति की बात । यहाँ तक कि हिन्दी भाषी इलाकों के आदिवासी समाज की भूमिका को भी रखने की कोशिश हिन्दी क्षेत्र के नवजागरण में नहीं दिखाई पड़ती है। पर यहाँ एक सवाल यह भी उठता है कि क्या नवजागरण से जुड़ा समस्त साहित्य हमारे सामने उपलब्ध है जिसको लेकर इस प्रकार के सवाल हिन्दी नवजागरण के विरोधी उठाते रहे हैं या हमने रामविलास शर्मा के काम को ही अन्तिम सत्य मान लिया है और उसी से सारे निष्कर्ष निकालते जा रहे हैं? यदि इन बातों को छोड़ भी दें तो अनेक ऐसे काम हो रहे हैं जो हिन्दी क्षेत्र के नवजागरण की सीमाएँ भी बताते हैं और विशेषताएँ भी ! उन पर भी ध्यान देने की जरूरत है। हाल ही में प्रकाशित कर्मेन्दु शिशिर की राधामोहन गोकुल और हिन्दी नवजागरण इस आन्दोलन के ऐसे अनेक अछूते पहलुओं से परिचित कराती है जिनके बारे में अब तक ठीक से बातें नहीं हुई हैं। हिन्दी साहित्य में राधामोहन गोकुल (1865-1935) की तरफ आलोचकों का ध्यान कभी गया ही नहीं । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के इतिहास में भी इनका उल्लेख नहीं मिलता । यद्यपि अकेले आचार्य शुक्ल इसके लिए दोषी नहीं हैं, क्योंकि बाद के इतिहासकारों और आलोचकों ने भी इन पर ध्यान नहीं दिया। जैसा कि कर्मेन्दु शिशिर ने राधामोहन गोकुल और हिन्दी नवजागरण में उल्लेख किया है, इनकी पुस्तकों को देखें तो साफ पता चलता है कि जिस तरह का काम उन्होंने किया है, वह अद्भुत है । ....इसी पुस्तक से...
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