Hum Jo Dekhate Hain
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    | Item Weight | 122 | 
| ISBN | 978-8119989447 | 
| Author | Mangalesh Dabral | 
| Language | Hindi | 
| Publisher | Radhakrishna Prakashan | 
| Pages | 93 | 
| Dimensions | 22*14*1 | 
| Publishing year | 2024 | 
| Edition | 1st | 
| Return Policy | 5 days Return and Exchange | 
 
  
  
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            Product description
          
        
        
          
          
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                    ‘पहाड़ पर लालटेन’ और ‘घर का रास्ता’ के बाद मंगलेश डबराल के तीसरे कविता–संग्रह ‘हम जो देखते हैं’ का पहला संस्करण 1995 में प्रकाशित हुआ था। इन वर्षों में इस संग्रह के कई संस्करणों का प्रकाशित होना इसका साक्ष्य है कि बाज़ार, उपभोगवाद, भूमंडलीकरण और साम्राज्यवादी पूँजी की बजबजाती दुनिया के बावजूद समाज में कविता के व्यापक और संवेदनशील कोने बचे हुए हैं और उसके सच्चे पाठक भी। यह संग्रह इस कठिन समय में भी ऐसी कविता को सम्भव करता है जो विभिन्न ताक़तों के ज़रिए भ्रष्ट की जा रही संवेदना और निरर्थक बनती भाषा में एक मानवीय हस्तक्षेप कर सके। ये कविताएँ उन अनेक चीज़ों की आहटों से भरी हैं जो हमारी क्रूर व्यवस्था में या तो खो गई हैं या लगातार क्षरित और नष्ट हो रही हैं। वे उन खोई हुई चीज़ों को ‘देख’ लेती हैं, उनके संसार तक पहुँच जाती हैं और इस तरह एक साथ हमारे बचे–खुचे वर्तमान जीवन के अभावों और उन अभावों को पैदा करनेवाले तंत्र की भी पहचान करती हैं। अपने समय, समाज, परिवार और ख़ुद अपने आपसे एक नैतिक साक्षात्कार इन कविताओं का एक मुख्य वक्तव्य है।
‘हम जो देखते हैं’ में कई ऐसी कविताएँ भी हैं जो चीज़ों, स्थितियों और कहीं–कहीं अमूर्तनों के सादे वर्णन की तरह दिखती हैं और जिनकी संरचना गद्यात्मक है। किसी नए प्रयोग का दावा किए बग़ैर ये कविताएँ अनुभव की एक नई प्रक्रिया और बुनावट को प्रकट करती हैं, जहाँ अनेक बार विवरण ही सार्थक वक्तव्य में बदल जाते हैं। लेकिन गद्य का सहारा लेती ये कविताएँ ‘गद्य कविताएँ’ नहीं हैं। इस संग्रह की ज़्यादातर कविताएँ एक गहरी चिन्ता और यहाँ तक कि नाउम्मीदी भी जताती लगती हैं, लेकिन शायद यह ज़रूरी चिन्ता है जो हमारे वक़्त में विवेक और उम्मीद तक पहुँचने का एकमात्र ज़रिया रह गया है। इनकी रचना–सामग्री हमारी साधारण, तात्कालिक, दैनंदिन और परिचित दुनिया से ली गई है, लेकिन कविता में वह अपनी बुनियादी शक़्ल को बनाए रखकर कई असाधारण और अपरिचित अर्थ–स्वरों की ओर चली जाती है। विडम्बना, करुणा और विनम्र शिल्प मंगलेश डबराल की कविता की परिचित विशेषताएँ रही हैं और इस संग्रह में वे अधिक परिपक्व होकर अभिव्यक्त हुई हैं। यह ऐसी विनम्रता है, जो गहरे नैतिक आशयों से उपजी है और जिसमें आक्रामकता के मुक़ाबले कहीं अधिक बेचैन करने की क्षमता है।
                  
              ‘हम जो देखते हैं’ में कई ऐसी कविताएँ भी हैं जो चीज़ों, स्थितियों और कहीं–कहीं अमूर्तनों के सादे वर्णन की तरह दिखती हैं और जिनकी संरचना गद्यात्मक है। किसी नए प्रयोग का दावा किए बग़ैर ये कविताएँ अनुभव की एक नई प्रक्रिया और बुनावट को प्रकट करती हैं, जहाँ अनेक बार विवरण ही सार्थक वक्तव्य में बदल जाते हैं। लेकिन गद्य का सहारा लेती ये कविताएँ ‘गद्य कविताएँ’ नहीं हैं। इस संग्रह की ज़्यादातर कविताएँ एक गहरी चिन्ता और यहाँ तक कि नाउम्मीदी भी जताती लगती हैं, लेकिन शायद यह ज़रूरी चिन्ता है जो हमारे वक़्त में विवेक और उम्मीद तक पहुँचने का एकमात्र ज़रिया रह गया है। इनकी रचना–सामग्री हमारी साधारण, तात्कालिक, दैनंदिन और परिचित दुनिया से ली गई है, लेकिन कविता में वह अपनी बुनियादी शक़्ल को बनाए रखकर कई असाधारण और अपरिचित अर्थ–स्वरों की ओर चली जाती है। विडम्बना, करुणा और विनम्र शिल्प मंगलेश डबराल की कविता की परिचित विशेषताएँ रही हैं और इस संग्रह में वे अधिक परिपक्व होकर अभिव्यक्त हुई हैं। यह ऐसी विनम्रता है, जो गहरे नैतिक आशयों से उपजी है और जिसमें आक्रामकता के मुक़ाबले कहीं अधिक बेचैन करने की क्षमता है।
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