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मानव-जाति के भाग-निर्माण में जितनी शक्तियों ने योगदान दिया है और दे रही हैं, उन सब में धर्म के रूप में प्रगट होनेवाली शक्ति से अधिक महत्त्वपूर्ण कोई नहीं है। सभी सामाजिक संगठनों के मूल में कहीं-न-कहीं यही अद्भुत शक्ति काम करती रही है तथा अब तक मानवता की विविध इकाइयों को संगठित करनेवाली सर्वश्रेष्ठ प्रेरणा इसी शक्ति से प्राप्त हुई है। हम सभी जानते हैं कि धार्मिक एकता का संबंध प्रायः जातिगत, जलवायुगत तथा वंशानुगत एकता के संबंधों से भी दृढ़तर सिद्ध होता है। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि एक ईश्वर को पूजनेवाले तथा एक धर्म में विश्वास करनेवाले लोग जिस दृढ़ता और शक्ति से एक-दूसरे का साथ देते हैं, वह एक ही वंश के लोगों की बात ही क्या, भाई-भाई में भी देखने को नहीं मिलता। धर्म के प्रादुर्भाव को समझने के लिए अनेक प्रयास किए गए हैं। अब तक हमें जितने प्राचीन धर्मों का ज्ञान है, वे सब एक यह दावा करते हैं कि वे सभी अलौकिक हैं, मानो उनका उद्भव मानव-मस्तिष्क से नहीं बल्कि उस स्रोत से हुआ है, जो उसके बाहर है।______________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________अनुक्रम1. ज्ञानयोग — 72. मनुष्य का यथार्थ स्वरूप — 193. माया और भ्रम — 374. माया और ईश्वर धारणा का क्रमविकास — 535. माया और मुति — 666. ब्रह्म एवं जगत् — 787. सभी वस्तुओं में ब्रह्मदर्शन — 928. अपरोक्षानुभूति — 1039. बहुत्व में एकत्व — 12210. आत्मा का मुत स्वभाव — 13511. विश्व — बृहत् ब्रह्मांड — 14812. विश्व — सूक्ष्म ब्रह्मांड — 15813. अमरत्व — 17214. आत्मा — 18315. आत्मा — उसके बंधन तथा मुति — 19716. मनुष्य का सत्य और आभासमय स्वरूप — 20517. संन्यासी का गीत — 227

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