बीरू का बयान
मेरा एक,और शायद एकमात्र असली, जन्म आज से पचीस बरस पहले उसके उपन्यास
उसका बचपन में हुआ था । तब वह जवान था और मैं अनजान । उसकी उम्र तीस की
थी और मेरी अनिश्चित। मुझे पैदा करने की प्रेरणा न जाने उसे किस सुर्ख़ सरोवर से
मिली थी। अपनी उस पैदाइश का क़र्ज़ चुका देने की प्रेरणा मुझे उसी की संशयरत चुप्पी
और शून्यरंजित शोर से मिली है। यह बात कुछ देर बाद कुछ साफ़ हो जाएगी।
मैं नहीं जानता कि मुझे पैदा करने के लिए उसे कैसे कैसे कष्ट उठाने पड़े थे, किन
किन कुंठाओं से ऊपर उठना पड़ा था, कौन कौन सी मितलाहटों को मारना पड़ा था ।
वह शायद जानता हो, लेकिन उसने कभी बतलाके नहीं दिया । जब कभी पूछा है उसने
पुचकारकर झटक सा दिया है - क्यों सोए हुए दर्दों को जगाते हो, भाई ! यह नीमहारा
मनहर अन्दाज़ ऐसे अवसरों पर वह हिन्दी साहित्य की मुख्यधारा से उधार ले लेता है,
और मैं यह सोचकर सिकुड़ जाता हूँ कि उसकी नज़र में मैं भी किसी सोए हुए दर्द या
खोई हुई दवा से ज़्यादा नहीं, या कम अज़ कम इस उपन्यास से पहले मैं यूँ ही सोचा
करता था ।
उसका बचपन, कुछ बूढ़े पाठकों को याद होगा, उसका पहला पूरा उपन्यास था,
और मैं उसका पहला अधूरा अनायक । मुझसे पहले वह अपनी लाल पीली कहानियों
कुछ एक नुचेखुचे और मैले कुचैले पुतले बनाकर ही असन्तुष्ट हो जाता रहा था ।
वे पुतले उसके सुशील इशारों पर न तो खिलकर नाचते थे, न खुलकर रेंगते थे। उनमें
से अधिकतर अब उसकी याद से उतर चुके होंगे, और बाक़ियों को याद कर उसे
बकबकी सी शर्म महसूस होती होगी। जो हो, मुझ तक पहुँचते पहुँचते न जाने उसमें
कहाँ से इतना आत्माधार आ गया था कि उसने मेरी कागज़ी काया में कुछ प्राण फूँक
देने की हिम्मत कर दिखाई थी । या कम अज़ कम मेरी कामना मेरी कल्पना को यही
सुझाती है। जब कभी उससे इस बारे में पूछा है उसने पुचकारकर टाल दिया है- क्यों
बीती हुई विपदाओं को वापस बुलाते हो, भाई ! और अब यह सोचकर मुझे असीम
सन्तोष मिलता है कि काफ़ी अरसे तक अपनी पैदाइश और उसकी परेशानियों के बारे
में कुछ पूछने और उसकी जानलेवा पुचकार सुनने की नौबत ही नहीं आएगी।
वैसे मुझे इस बात पर नीमगर्म सा गर्व हमेशा रहेगा कि मैं उसका पहला अधूरा
अनायक था, या हूँ। उसे भी धूमिल सा अभिमान तो होगा ही कि पचीस बरस बीत
गए, मैं न एकदम समाप्त हुआ हूँ, न बेसुध। अभी तक उसके पीछे पीछे लुढ़कता
तो इसकी...।
शूम उछलकर छलक सा पड़ता है - ख़बरदार, जो कुछ और कहा तो !
बाबा उसकी तरफ़ यूँ देखते हैं जैसे अपनी ख़ामोशी की क़ीमत तय कर रहे हों ।
शेखजी निराश नज़र आते हैं, मंजूरे का बाप खुश । वह शेखजी को समझाता है- शेख
साहिब, इन दोनों का कोई जाती मुआमला होगा, हमें क्या, जैसे चाहें उसे निबटाएँ,
लेकिन हमारी गली में ये तमाशे नहीं होने चाहिए !
शेखजी उसकी तरफ़ यूँ देखते हैं जैसे कह रहे हों क्यों नहीं होने चाहिए ? यह
गली तेरे बाप की नहीं। फिर वे शूम से मुखातिब होकर कहते हैं-क्यों भाई हुआ क्या,
कुछ पता भी तो चले
माँ सबसे मुखातिब होकर कह रही है - मैं सब जानती हूँ !
मुझे ख़तरा है कि वह फिर वही खुरदरी कहावत दोहराने लगेगी, और शूम की बीवी
फिर मचल उठेगी । वह अन्दर न जाने क्या कर रही है । शायद कपड़े बदल रही हो ।
उसका दोपट्टा अब भी चारपाई पर चुपचाप सोया पड़ा है । मेरा जी चाहता है कि उसके
पास बैठ जाऊँ। डरता हूँ कि माँ डाँटना शुरू कर देगी । हैरान हूँ कि वह पूरी तरह तड़प
क्यों नहीं रही । शूम की बीवी शायद अन्दर दोपट्टा ही ढूँढ़ रही हो । मंजूरे का बाप
ख़ाली चारपाई पर बिछे पड़े दोपट्टे की तरफ़ यूँ देख रहा है जैसे कहनेवाला हो - हमारी
गली में ये तमाशे नहीं होने चाहिए !
शेखजी शूम से पूछ रहे हैं - सरदारनीजी अन्दर बैठी रो क्यों रही हैं, बाहर क्यों
नहीं आतीं, कुछ पता भी तो चले !
बाबा उसकी तरफ़ यूँ देखते हैं जैसे इल्तिजा कर रहे हों-शेखजी, उस बला को.
खुदा के लिए अभी अन्दर ही बैठी रहने दीजिए - और शूम यूँ जैसे पूछ रहा हो - शेखजी,
आप भी बुड्ढे बदमाश हैं क्या ?- और मंजूरे का बाप यूँ जैसे फ़रमान जारी कर रहा
हो-हमारी गली में ये तमाशे नहीं होंगे-और माँ यूँ जैसे झिड़क रही हो - मुसलों का
यहाँ कोई काम नहीं !—और मैं यूँ जैसे मेरे सब दर्दों की दवा उन्हीं के पास हो ।
शूम शेखजी के पास पिचका सा खड़ा कोई लँगड़ी सी सफ़ाई दे ही रहा होता है
कि अन्दर से एक कुरलाहट दौड़ती हुई बाहर आती है, जैसे उसकी बीवी को किसी ने
हलाल करना शुरू कर दिया हो, या जैसे उसने फ़ैसला कर लिया हो कि बाहर जमी
भीड़ को रो धोकर ही खदेड़ा जा सकता है। चले !
शेखजी आवाज़ उठाते हैं-सरदारनीजी को हो क्या रहा है, कुछ पता भी तो मंजूरे का बाप पुकार उठता है - सरदार शाम सिंह !
माँ दाँत पीसकर कहती है- अब रोकर सच्ची हो रही हैं, फफ्फेकुट्टन !
मैं डर रहा हूँ कि शेखजी माँ से पूछ लेंगे–माँजी, आप मुँह ही मुँह में क्या मिनमिना
रही हैं, कुछ पता भी तो चले ! शूम वह दूधिया दोपट्टा उठाकर अन्दर भाग जाता है,जैसे उसकी बीवी उसी
इस गिनती में गुम गिरता पड़ता मैं शायद अपने घर पहुँच गया होता, लेकिन फ़कीरे
की दुकान की महक मुझे रोक लेती है । वह पकोड़ियों के लिए बेसन घोल रहा है, और
सामने सनातन धर्म मन्दिर के दरवाज़े में लोहे की कुर्सी पर बैठे झूलते हुए शास्त्रीजी
अपने मुँह में मिसरी । बहुत मीठा बोलते हैं। पता नहीं कहाँ के हैं। कोई उन्हें बंगाल
का बताता है, कोई बिहार का । सबको पता है कि पंजाब के नहीं । हो ही नहीं सकते ।
उनका पहरावा ही अलग है । और लहजा भी । हर वक़्त मुस्कुराते रहते हैं । या शायद
उनका मुँह ही ऐसा है । प्रेमे पानवाले के मुँह की तरह । शायद वे भी शीते और प्रेमे
के गाँव के ही हों । और उसी अकाल के मारे यहाँ आ पड़े हों। मैं उनके बारे में बहुत
कम जानता हूँ। वे मेरे बारे में कुछ भी नहीं जानते होंगे। हालाँकि हज़ारों बार मैं उनके
पास से गुज़र चुका हूँ। कभी कभी जब वे फ़कीरे के साथ राम या सीता के बारे में
किसी बहस में मस्त हों तो मैं किसी न किसी बहाने से उनके पास रुक जाता हूँ । जब
छोटा था तो किसी बहाने की ज़रूरत नहीं हुआ करती थी। अभी इतना बड़ा नहीं हुआ
कि उनके साथ खुलकर बात कर सकूँ। उनकी बहसों का सिर पैर न तब दिखाई देता
था न अब। लेकिन उनकी आवाजें तब भी मज़ेदार थीं, अब भी । फक़ीरा नाक में बोलता
है । कुछ लोग उसे नूनगुंन्ना कहकर छेड़ते हैं। क्योंकि उसके मुँह में एक भी दाँत नहीं,
इसलिए उसका हर लफ़्ज़ सी सी करता हुआ बाहर आता है, शास्त्रीजी का ठंडी हवा
में लिपटा हुआ सा । कभी कभी दोनों एक साथ बोलना शुरू कर देते हैं तो लगता है
जैसे कोई अजीब साज़ बज उठा हो ।
सनातन धर्म सभा के सालाना जलसे में हर बार एक जलतरंग बजानेवाला उस्ताद
अपने करतब दिखाता है । सारे जलसे का इन्तज़ाम शास्त्रीजी की देखरेख में रहता है।
वे पता नहीं कहाँ कहाँ से करारे भजनीक और उपदेशक बुलवा लाते हैं । दो तीन दिनों
के लिए क़स्बे की कैफ़ियत ही बदल जाती है । उसी तरह जैसे रामलीला के दिनों में ।
कई दिन पहले से ही प्रभातफेरियाँ शुरू हो जाती हैं। जुलूस के दिन हिन्दू मुस्लिम फ़साद
का ख़तरा तना रहता है। ख़ासतौर पर पिछले दो सालों से । जब से पाकिस्तान की पुकार
पक्की हुई है। जलसे की कार्रवाई शास्त्रीजी चलाते हैं । बड़ी हुशियारी से | दान दोह
में माहिर हैं। हिन्दी बहुत गूढ़ बोलते हैं । लेकिन हर लफ़्ज़ को इस तरह सजा सजाकर
जैसे कशीदाकारी कर या सौगात बाँध रहे हों। हर फ़िक़रे के इर्दगिर्द उनके पतले पीले
हाथों के तीतर बटेर से उड़ते रहते हैं । जैसे वे गूँगे और बहरे और बेवकूफ़ सभासदों
के लिए अपनी मुश्किल मुश्किल बातों का तरजुमा सलीस हरकतों में करते जा रहे हों ।
इसीलिए कहा जाता है कि शास्त्रीजी की बातें दूध पीते बच्चे और दूध पिलाती अनपढ़
औरतें भी आसानी से समझ लेती हैं। उनकी विदेशी सी भाषा के बावजूद ।
फ़कीरा एकदम अनपढ़ बताया जाता है । लेकिन शास्त्रीजी की संगत में रहकर बातें
यूँ करने लगा है जैसे बनारसी पंडित हो । कहते हैं कि उसका हाफ़िज़ा इतना तेज़ है
कि जो बात एक बार सुन लेता है कभी भूलता नहीं । सारी रामायण उसे मुँह जुबानी
याद है। और सारी गीता । और आधा गुरुग्रन्थ साहिब । और क़ुरान की कई आयतें ।